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01 October 2022

गांधी जयंती: जाति पर सबसे करारी चोट गांधी की

जयप्रकाश और लोहिया की पढ़ाई और उनके आंदोलनों के साथ राजनैतिक शुरुआत करने वाले इस लेखक जैसे लोगों के लिए लंबे समय तक यह दुविधा बनी रही कि जेपी और उनसे भी बढ़कर लोहिया तो क्रांतिकारी थे लेकिन गांधी व्यवस्थावादी थे। यह मानने का सबसे बड़ा आधार यही था कि लोहिया-जेपी जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो जैसे नारे लगवाते थे, अंतर-जाति शादी पर खुश होते थे, पिछड़ों को आगे लाने की बात करते थे लेकिन गांधी जाति के सवाल पर ढुलमुल रहे और कभी वर्ण-व्यवस्था के समर्थन में कुछ बोलते थे तो कभी खिलाफ भी। लेकिन धीरे-धीरे दूसरी तस्वीर उभरती गई और जब गांधी का अध्ययन बढ़ा तब तो लोहिया और जेपी जाति और वर्ण-व्यवस्था वाले सवाल, छुआछूत दूर करने और वर्ण-व्यवस्था से जुड़ी कुरीतियों को खत्म करने के सवाल पर गांधी के आगे बच्चे लगने लगे। जाति के सवाल पर सबसे तीखी और दमदार लड़ाई लड़ने वाले आंबेडकर भी गांधी से हल्के और कम प्रभाव वाले लगने लगे हैं।

यहां अपने पुरखों की तुलना करना या उन्हें छोटा-बड़ा बताने की होड़ में लगने की जरूरत नहीं है। न ही इस तथ्य को भुलाने की जरूरत है कि जाति बहुत ही ताकतवर और लचीला संगठन है जो बार-बार मरकर भी जी उठता है। सारे नेताओं के प्रयासों, बार-बार के ताकतवर आंदोलनों, उनसे निकले कानूनों और अदालती मुस्तैदी के बावजूद जाति व्यवस्था ही नहीं, छुआछूत भी अभी तक पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। बार-बार की घोषणाओं और बहुत साफ कानूनी प्रावधानों के बावजूद हाथ से मैला साफ करने और सिर पर मैला ढोने की व्यवस्था अभी भी जारी है। सरकारी दफ्तरों में ही नहीं, जाति-धर्म और मुल्क की हदों से ऊपर मानी जाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और संस्थाओं के हिंदुस्तानी दफ्तरों में भी लगभग सारे सफाई कर्मचारी दलित मिलेंगे और शीर्ष पर सवर्ण। इसकी तुलना में हमारी संसद और विधानसभाओं का रिकार्ड बेहतर होगा। लेकिन सबसे शानदार रिकार्ड गांधीवादी कार्यकर्ताओं और गांधीवादी संस्थाओं का है, जिनमें गांधी के रहते कौन कहे, उनके जाने के पचहत्तर साल बाद आज तक जातिगत भेदभाव और छुआछूत का एक भी बड़ा मामला सामने नहीं आया है।

वे जाति के सवाल पर हिंदुस्तानी समाज को सर्वाधिक आंदोलित करने और जाति व्यवस्था के बंधनों को तोड़ने और ढीला करने में गांधी सबसे बड़े थे। उन्होंने सिर्फ जाति की लड़ाई नहीं लड़ी, इसलिए कई बार उनकी जाति संबंधी लड़ाई छोटी और हल्की लगती है। मुख्यत: इसी चलते आज के सचेत दलित, जिनकी जिंदगी में छुआछूत और अपमान अब भी दिन-रात जहर घोलता है, गांधी से नाराज हैं। लेकिन कई बार लगता है कि राष्ट्रीय आंदोलन और अपने पचासों दूसरे आंदोलनों के साथ छुआछूत मिटाने और जातिगत बुराइयों को न मानने की अपनी मुहिम से गांधी ने कांग्रेस, अपने रचनात्मक कामों से जुड़ी संस्थाओं और समाज में ज्यादा बड़ा काम कर दिया। अगर गांधी की ऊर्जा सिर्फ जाति तोड़ने या जाति व्यवस्था की बुराइयों से टकराने में नहीं लगी तो उसका दूसरा लाभ राष्ट्रीय आंदोलन समेत दूसरे आंदोलनों की ऊर्जा को जातिगत बंधन कमजोर करने की दिशा में मिला।

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बाबा साहब की तरह कानूनी प्रावधानों में ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। वे मन बदलने को ज्यादा बड़ा काम मानते थे, लेकिन उन्होंने जाति की बुराइयां दूर करने वाले कानूनी प्रावधानों की पहल की या आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। यह बताना न होगा कि ऐसे ज्यादातर कानूनी प्रावधानों को लाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बाबा साहब (हालांकि उनको लगभग पूरी कांग्रेस का समर्थन हासिल था) को भी संविधान लिखने के काम में मुख्य भूमिका दिलाने में गांधी का हाथ था। गांधी ने अपने लिए और राष्ट्रीय आंदोलन तथा कांग्रेस के लिए जिन तीन सामाजिक कार्यक्रमों को सबसे ज्यादा महत्व दिया, उनमें हिंदू-मुसलमान एकता और खादी के साथ छुआछूत का विरोध था। गांधी ने अकेले मंदिर प्रवेश आंदोलन से देश भर के हिंदू समाज और खासकर दलितों के मन में जैसी हलचल मचाई, वैसी मिसाल हमारे ज्ञात इतिहास में और कोई दिखाई नहीं देती।

आकार-प्रकार देखें तो जातिगत जड़ता दूर करने के मामले में गांधी हमारे भक्ति आंदोलन के संतों से भी ऊपर आ जाते हैं। बुद्ध जाति से सीधे टकराए थे लेकिन अंत में उसने ही बाजी मारी और भले बौद्ध मत दुनिया में गया लेकिन हिंदुस्तान की जाति व्यवस्था उसे निगल गई। ऐसा नहीं है कि दर्शन में बहुत ऊंची चीजें जानने-समझने वाले हमारे पंडितों या ज्ञानियों को जाति-व्यवस्था की जकड़न से दिक्कत न हुई हो, लेकिन उन्होंने बहुत अजीब रुख अपनाया। अपने आचरण में बदलाव न करते हुए ऊंची-ऊंची बातें और दर्शन बघारना जारी रखा। कर्म और सिद्धांत में, श्रेय और प्रेय में, निर्गुण और सगुण व्यवहार में मेल की कोई कोशिश नहीं दिखती। शंकराचार्य जैसा महापुरुष भी जाति को माया बताकर अपना मूल काम करता गया, जो सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और बौद्ध मत के प्रभाव को कम करना साबित हुआ। विवेकानंद पहले ऐसे दार्शनिक हैं जो कथनी और करनी का भेद खत्म करना चाहते हैं और मानते थे कि इसी में हिंदुस्तान का उद्धार संभव है। 

इस मामले में गांधी सबसे प्रबल महापुरुष दिखते हैं जिनकी करनी और कथनी में कम से कम फर्क रहा। उनकी कथनी से तो कई बार वर्ण-व्यवस्था की तारीफ भी निकलती है पर बारीकी से देखने पर वह भी एक लंबी रणनीति का हिस्सा ही जान पड़ती है। उनकी आत्मकथा और कई जीवनियों से यह साफ लगता है कि बचपन में घर पर सफाई का काम करने वाले भंगी को छूने से लेकर पढ़ाई के दिनों से ही मुसलमान दोस्त के साथ खाने या इंग्लैंड में ईसाई या दूसरे धर्म वाले परिवारों में आने-जाने और खाने-पीने में गांधी ने शाकाहार का खयाल तो रखा लेकिन छूत-अछूत का नहीं। कुछ हैरान करने वाली चीज है कि गांधी के हिंदू-मुसलमान मेल-मिलाप और सद्भाव पर कोई शक नहीं करता लेकिन गांधी के हरिजन प्रेम और जाति-व्यवस्था की बुराइयों को न मानने वाली बात पर अब भी बार-बार शंका की जाती है। 

दक्षिण अफ्रीका के समय से ही गांधी जातिगत भेदभाव या उससे जुड़ी बुराइयों से ऊपर उठ गए लगते हैं। वहां उनकी चिंता पूरी हिंदुस्तानी कौम की थी, किसी जाति और मजहब की नहीं। उनका व्यवहार तो गैर-हिंदुस्तानियों के साथ भी एकदम खुला ही था। ईसाई मिली और यहूदी पोलक की शादी कराने के साथ उन्होंने उन्हें अपने साथ अपने परिवार में रखा। उनके घर की पार्टियों में सभी जाति और धर्म के लोग आते थे और वहीं रात में पेशाब-पाखाना वाले पॉट की सफाई के सवाल पर उनकी कस्तूरबा से तीखी भिड़ंत हुई, जिसमें वे बा का हाथ पकड़कर घर से बाहर घसीट ले गए थे। उनके भतीजे प्रभुदास के ब्यौरों से लगता है कि छगनलाल और मगनलाल जैसे उनके सबसे शुरुआती सहयोगी, भतीजे और फीनिक्स फार्म को जमाने वाले लोग भी तब तक छुआछूत वाले सवाल पर गांधी से सहमत नहीं हुए थे और गांधी से बचकर खुद को ‘विधर्मियों’ के साथ खाने-पीने से बचते थे। यह भी संभव है कि गांधी जानकर भी इस चीज की अनदेखी करते हों क्योंकि तब उनके लिए छगनलाल और मगनलाल या बा का साथ ज्यादा जरूरी था।

गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से आकर कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे तो यह चर्चित प्रसंग है कि शौचालय में बहुत गंदगी देखकर खुद ही उसकी सफाई करने लगे। भरे-पूरे अंग्रेजी पोशाक में सफाई करते गांधी को देखकर लोग चौंके थे लेकिन किसी ने उनका हाथ बंटाना जरूरी नहीं समझा। दक्षिण अफ्रीका में ही उन्होंने खाना बनाने, सफाई करने, कुटाई-पिसाई करने, मोची का काम, धोबी का काम, हज्जाम का काम, बढ़ई का काम और प्रिंटिंग प्रेस का ज्यादातर काम सीख लिया था और अपने साथियों को सिखा दिया था। वहां के दोनों आश्रमों में मजदूर या सफाई कर्मचारी नहीं थे। और कहना न होगा कि गांधी और बाद में उनके आंदोलन के चलते कम से कम अपना शौचालय साफ रखना हमारे जैसे काफी सारे लोगों के लिए शर्म की चीज नहीं रही। इसमें तकनीक की भी भूमिका है और इस दिशा में भी गांधी और गांधीवादियों का योगदान बड़ा है।

खुद गांधी ने अपने बेटे मणिलाल को दर्जी का काम सिखाया तो देवदास से कई तरह के काम कराए। बाद में अपने आश्रम के एक ब्राह्मण सदस्य, काका वलुंजकर को मृत जानवरों की खाल निकालने में कुशल देखकर वे बहुत खुश हुए और उन्हें चमड़े का कारखाना लगाने के लिए हर तरह का प्रोत्साहन दिया।

दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटने और अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहे अनुसार भारत भ्रमण करने के क्रम में गांधी ने भले ही ढूंढकर पंचम वर्ण की स्थिति देखने की कोशिश की, धर्म-स्थलों की बदहाली देखी, अपना जनेऊ उतार दिया और शिखा भर को पहचान की चीज रहने दी, अपना या परिवार के लोगों का या फिर दक्षिण अफ्रीका से साथ आए लोगों का आचरण बदला, अपने नए बन रहे साबरमती आश्रम में रहने वालों की शर्त बदली लेकिन उनको यह साफ हो गया कि भले ही छुआछूत समेत ज्यादातर बुराइयों से अधिकांश हिंदू समाज परेशान है लेकिन समाज का सबसे ताकतवर समूह इससे लाभ पाता है और इसे जल्दी बदलने के पक्ष में नहीं होगा। जाति-व्यवस्था के शीर्ष और अंग्रेजी हुकूमत में ताकतवर ऊंची जाति के लोगों का कांग्रेस से लेकर सारी संस्थाओं पर भी कब्जा था और राष्ट्रीय आंदोलन के नाम पर चलने वाली सारी गतिविधियों के संचालक भी वही थे। इसलिए गांधी ने जाति के सवाल पर अपना रुख बदला, दक्षिण अफ्रीका वाली पोजीशनों में भी फर्क आया और उन्होंने जाति से सीधे टकराने या जाति तोड़ो जैसे कार्यक्रम लेने से परहेज किया।

गांधी के सहयोग के लिए जितने बड़े बिहारी वकील उनके पहले सत्याग्रह आंदोलन के लिए चंपारण आए, सबके साथ दो-दो, चार-चार नौकर थे, जो उनका अलग-अलग खाना बनाने के साथ ही उनके कपड़े धोने से लेकर रोज पैर दबाने जैसी सेवा करते थे। शुरू में तो गांधी ने यह चलने दिया लेकिन खुद अपने उदाहरण से वे सबके मन में यह बात बैठाने में सफल रहे कि सामाजिक-राजनैतिक काम करना है तो इस तरह का जीवन नहीं चलेगा। जल्दी ही नौकर-चाकर विदा किए गए और साथ रसोई बनाने लगी। राजेंद्र बाबू (पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद) ने लिखा है कि इससे पहले घर के लोगों, अपनी बिरादरी के लोगों या ब्राह्मण रसोइये के अलावा किसी और का बनाया भोजन उन्होंने नहीं किया था। कस्तूरबा आईं तो वही सबका खाना बनाने लगीं। जल्दी ही भोजन बदलने से बाकी आदतें भी बदलीं और सफाई ही नहीं, अपना सारा काम खुद करने की होड़ शुरू हुई। राजेंद्र बाबू ने लिखा है कि हमने सुना था कि गांधी शौचालय भी साफ करते-कराते हैं। इसलिए हमें डर था कि गांधी जी यह काम करने को न कह दें, लेकिन गांधी खुद यह काम करते रहे, अपने सहयोगियों को कच्चा मानकर ऐसा करने को नहीं कहा।

लेकिन गांधी सारे काम खुद करते हों, चंपारण में शिकारपुर के दीवान के घर जाने में नौ नखरे करते हों और मुफलिसी वाले मूनिस साहब के घर, राजकुमार शुक्ल के घर सबसे पहले पहुंचते हों, गवाहियों में अछूतों और महिलाओं समेत सभी जाति और वर्ग के लोगों को अवसर देते हों, मांगपत्र में नील की खेती रोकने के साथ मृत जानवरों के चमड़े पर चर्मकारों का अधिकार होने की मांग जोड़ते हों तो उनकी मैसेजिंग कैसी और कितनी प्रभावी होगी, यह कल्पना ही की जा सकती है। चंपारण सत्याग्रह की पच्चीस हजार गवाहियों (जो बाजाप्ता स्टांपपेपर पर हैं और जिनमें दो जानकार लोगों के अंगूठे के निशान भी हैं) वाले लोगों की जाति जानने की जो कोशिश सौ साल बाद कुछ अध्येताओं ने की तो हैरान रह गए कि बिना शोर-शराबे के हर जाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हुआ है। जांच आयोग के सामने तीन व्यवस्थित गवाहियों में एक दलित की गवाही भी है।

इससे बड़ा चमत्कार उन्होंने साबरमती आश्रम में सभी जाति-धर्मों के लोगों को रखकर और एक रसोई से सबको एक पांत में बैठाकर भोजन करा के किया। गांधी ने सुबह-शाम की अपनी प्रार्थनाओं में भी सबको बैठाया, जिसमें नास्तिक लोग भी शामिल हुए। आश्रम में सिर्फ एक बार दूधा भाई नामक दलित के कुएं से पानी भरने पर बवाल मचा। विरोध में कस्तूरबा, गांधी की बड़ी बहन (विधवा), तथा मगनलाल और छगनलाल की बहुएं भी शामिल थीं। गांधी अड़ गए कि यह व्यवहार उन्हें कबूल नहीं है। और आश्रमवासी अगर ऐसा करेंगे तो उनको आश्रम बंद करना मंजूर है लेकिन यह व्यवहार नहीं। बा समेत बाकी लोग तो गांधी का रुख देखकर अपना व्यवहार बदलने को तैयार हुए लेकिन रालियात बहन नहीं मानीं तो गांधी ने उनको छोड़ दिया।

इसी दूधा भाई की बेटी लक्ष्मी को गांधी ने गोद लेकर देश और आश्रमवासियों को अपने व्यवहार और छुआछूत के बारे में बहुत साफ संदेश दिया। लक्ष्मी गांधी की बहुत दुलारी थी और देवदास की हमउम्र होने के चलते परिवार में जल्दी घुल मिल गई। फिर तो बा के प्राण भी उसमें बसने लगे, पर लक्ष्मी गांधी के सख्त अनुशासन और उम्मीदों पर अन्य बच्चों की तरह खरी नहीं उतरी तो शादी के बाद आश्रम से बाहर रहना पड़ा। दूधा भाई उसकी शादी बिरादरी में ही चाहते थे लेकिन गांधी के लिए लक्ष्मी का मन प्रमुख था। उसकी शादी एक तमिल ब्राह्मण युवक से हुई। गांधी के देवदास की शादी भी अंतर-जाति की थी। रामदास की शादी भी जाति की कठोर बंदिशों के अनुसार नहीं थी और इसमें गांधी ने खुद सादगी के साथ पुरोहिती की थी। गांधी के अपने जीवन, परिवार के लोगों और आश्रम के जीवन में जातिवाद, जातिगत भेदभाव, जाति-प्रथा से जुड़ी बुराइयों, जाति और हिंदू धर्म से जुड़ी कुरीतियों का स्थान लगभग नहीं है। उसकी जगह समानता और वैज्ञानिक नजरिया ही प्रभावी दिखाता है।

निजी तौर पर बहुत शुरू में ही अपने जीवन और आचरण से जाति और उससे जुड़ी बुराइयों को दूर करने के निश्चय में गांधी पर समाजवाद और पश्चिमी सोच की समता का भी असर होगा लेकिन ज्यादा असर पूरब के धर्मों का है। हिंदू समाज इस बात पर गर्व कर सकता है कि उसने महात्मा गांधी जैसा सपूत पैदा किया, लेकिन गांधी की राजनीति और सोच पर बुद्ध की करुणा का असर भी वैसा ही गहरा है जिसने श्रेय और प्रेय का फासला पाटने के लिए प्रेरित किया। गांधी पर ईसा और मोहम्मद साहब की बातों का या अन्य संत पुरुषों के उपदेश का असर ढूंढने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी। लेकिन, जैसा गांधी बहुत साफ ढंग से बताते हैं कि उनके लिए सत्य सबसे बड़ा है, सत्य ही ईश्वर है और खुद उनका विवेक ही सर्वोपरि महत्व की चीज है। उनका मन इस कसौटी पर जाति व्यवस्था, उसमें शामिल ऊंच-नीच का भेद और फिर इस फासले के चलते बनी अनेक शोषक और अमानवीय कुरीतियों को मनाने को तैयार नहीं हुआ। यह अपने युग से आगे की चीज थी। गांधी के निजी संपर्क में आने और इस तरह बदलने वालों की संख्या भी हजारों में रही।

जाति ही नहीं, मजहब, लिंग और क्षेत्र जैसे विभाजनों और उनसे जुड़ी घटिया मान्यताओं को दूर करने में गांधी के चार आश्रमों का जीवन भी बहुत पक्का आधार बना। हिंदुस्तान में बनाए आश्रमों ने सत्याग्रही तैयार किए। ये लोग हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रमों के प्राण साबित हुए तथा उनका आचरण अपनी संस्थाओं और आसपास के लोगों पर ही नहीं, पूरे समाज पर पड़ा। गांधी के करीब 32-33 साल भारत रहने और सक्रियता के दौर में दूधा भाई वाला उदाहरण छोड़ दें तो कभी जातिगत बुराई या प्रकट छुआछूत दिखाई नहीं देता।

फिर गांधी का राष्ट्रीय आंदोलन पर, कांग्रेस पर, खादी से जुड़ी संस्थाओं, हरिजन सेवक संघ वगैरह जैसी पचासों संस्थाओं से क्या और कैसा रिश्ता रहा, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बताना जरूरी है कि गांधी ने हर कहीं आजादी के साथ छुआछूत मिटाने और हिंदू-मुसलमान सद्भाव का एजेंडा रखा। 1934 में तो उन्होंने साढ़े नौ महीने तक हरिजन उत्थान और अछूतों के मंदिर प्रवेश के कार्यक्रम के साथ देश में करीब बीस हजार किमी की यात्रा की। इस यात्रा में उनका कई जगह हिंसक विरोध हुआ लेकिन उन्होंने उसकी परवाह नहीं की। कांग्रेस के तीन प्रमुख कार्यक्रमों में छुआछूत मिटाना भी रहा, बल्कि एक दौर ऐसा आया जब कांग्रेस की सक्रिय सदस्यता अर्थात नेतागीरी की सीढ़ी चढ़ने के लिए सूत जमा कराना और हरिजन परिवारों में आने-जाने का बाजाप्ता हिसाब देना होता था। हर कार्यकर्ता को डायरी रखनी होती थी जिसमें यह हिसाब लिखा जाता था। यह कहा जाने लगा था कि गांधी हरिजनों को अतिरिक्त प्रेम करते हैं। 

एक चीज बहुत साफ दिखती है कि गांधी ने पहले खुद को बदलने के बाद जब बा और परिवार के लोगों और फिर अपने आश्रमों के लोगों के बीच छुआछूत समेत जाति-व्यवस्था से जुड़ी बुराइयों को दूर करने की कोशिश की तो मुख्य जोर मन बदलने पर ही रहा। उन्होंने अपने उदाहरण से ही नहीं, अपने संबंधों के आधार पर दबाव बनाया, ज्यादा करीबी लोगों के साथ जोर-जबरदस्ती भी की लेकिन सारे देश में वह ऐसा नहीं कर सकते थे। बाद में मुल्क के लिए भी ऐसे कानून बनाने में गांधी की भूमिका और सहयोग रहा। 

जब मैं बयालीस में गांधी का भारत छोड़ो प्रस्ताव आने के पहले की गहमागहमी और चर्चाओं के बीच ये अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर द्वारा लिया गांधी का इंटरव्यू पढ़ रहा था तो एक सवाल पर चौंका। फिशर ने पूछा कि आप तो काफी समय से अंग्रेजों से लड़ रहे हैं, आपको उनको देश से बाहर करने का खयाल कब आया।  गांधी का जबाब था कि जब मैं चंपारण में था तभी समझ गया था कि अंग्रेजों को बाहर निकाले बगैर बात नहीं बनेगी। यह चीज घोषित करने में बुढ़ऊ ने पूरे पच्चीस साल का समय लगा दिया। इसमें जाति तोड़ो फुले, आंबेडकर, लोहिया और पेरियार जैसा हो, यह भी जरूरी नहीं था। देश की गुलामी से लेकर पचासों दूसरे सवाल छोड़कर सबसे पहले जाति से ही लड़ना प्राथमिकता और रणनीति, दोनों दृष्टियों से गांधी को उचित न लगा हो सकता है। संभव है, जाति की ताकत और उसके समर्थन को वे ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हुए ज्यादा बड़ी लड़ाई की सोच रहे हों। आखिर वे आजादी के बाद सवा सौ साल जीने का लक्ष्य रखे हुए थे।

(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी अध्येताचंपारण से लेकर गांधी और कस्तूर बा के जीवन पर कई चर्चित किताबें)

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OUTLOOK 01 October, 2022
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