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30 November 2018

एमएसपी इजाफे पर टेढ़ी नजर

चुनावों के मद्देनजर किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए केंद्र में एनडीए सरकार की खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में इजाफा और बाजार में अतिरिक्त आपूर्ति से निपटने के लिए सब्सिडी विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में गंभीर सवालों की जद में आ गए हैं। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों ने भारत की कृषि सब्सिडी पर सवाल उठाए हैं। कुछ साल पहले डब्ल्यूटीओ में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भी सवाल उठे थे। कई देशों की दलील थी कि भारत में खाद्य सब्सिडी कृषि पर समझौते (एओए) के तहत निर्धारित सीमाओं से अधिक थी। हालांकि, लंबी बहस के बाद भारत को अस्थायी राहत मिली कि सब्सिडी की सीमाओं की प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन करने के बावजूद कोई भी डब्ल्यूटीओ सदस्य भारत के खिलाफ विवाद पैदा नहीं करेगा।

लेकिन पिछले कुछ महीनों में भारत की कृषि सब्सिडी को लेकर बहस अधिक तीखी हो गई है। इस साल मई में अमेरिका ने गेहूं और धान के एमएसपी में इजाफे पर भी सवाल उठाया था। हाल ही में, अमेरिका ने कपास के समर्थन मूल्य में इजाफे पर भी इसी तरह के सवाल पूछे।

अमेरिका का तर्क यह है कि इन तीन फसलों को दी गई सब्सिडी एओए द्वारा निर्धारित सीमाओं से बहुत अधिक है। डब्ल्यूटीओ सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की गणना अंतरराष्ट्रीय कीमतों के संदर्भ में की जाती है, जिन्हें प्रतिस्पर्धी कीमत माना जाता है। एओए पर अमल के लिए वार्ता के दौरान प्रत्येक वस्तु का अंतरराष्ट्रीय मूल्य निर्धारित बाह्य संदर्भ मूल्य था, जिसे 1986-88 के दौरान अंतरराष्ट्रीय कीमतों के औसत के रूप में अपनाया गया। प्रत्येक फसल को दी गई सब्सिडी के कुल मूल्य की गणना (जिसे “बाजार समर्थन मूल्य” कहा जाता है) के लिए वर्तमान एमएसपी और निर्धारित “बाह्य संदर्भ मूल्य” के बीच के अंतर को सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदी गई मात्रा से गुणा किया जाना चाहिए।

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एओए उस बाजार समर्थन मूल्य को निर्धारित करता है, जो दूसरे देश हर फसल को दे सकते हैं। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए फसलों को दिया जाने वाला बाजार समर्थन मूल्य उसके उत्पादन के कुल मूल्य से 10 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता है।

भारत के लिए इस फॉर्मूले का क्या मतलब है? धान की आम किस्मों के लिए भारत में एमएसपी 1986-87 में 172 अमेरिकी डॉलर प्रति टन था, जो 2014-15 में बढ़कर 334 अमेरिकी डॉलर प्रति टन हो गया, लेकिन बाह्य संदर्भ मूल्य 263 अमेरिकी डॉलर प्रति टन ही स्थिर रखा गया। इस तरह 1986-87 में धान का एमएसपी निर्धारित “बाहरी संदर्भ मूल्य” से बहुत नीचे था, जो अब इस संदर्भ मूल्य से बहुत ज्यादा है। भारत के मौजूदा एमएसपी की तुलना तीन दशक पुरानी “बाहरी संदर्भ मूल्य” से करना बिलकुल अतार्किक है, लेकिन एओए “सब्सिडी अनुशासन” के रूप में इसे थोप रहा है। एओए के इस अतार्किक नियम के बावजूद, भारत द्वारा फसलों को दिया जाने वाला बाजार समर्थन मूल्य उसके उत्पादन मूल्य से 10 फीसदी से कभी अधिक नहीं रहा। भारत ने इस तथ्य को डब्ल्यूटीओ में उठाया। लेकिन, अमेरिका ने अब बहस को चुनौती दी है कि भारत द्वारा प्रमुख फसलों को दिया जाने वाला बाजार समर्थन मूल्य इस सीमा से बहुत अधिक है।

अमेरिका का मुख्य तर्क यह है कि भारत द्वारा चावल, गेहूं और कपास को दिया जाने वाला बाजार समर्थन मूल्य एओए द्वारा निर्धारित सीमा से बहुत अधिक है। यह सीमा प्रत्येक फसल के उत्पादन मूल्य का 10 फीसदी है। अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ में कहा कि 2010-11 से चावल का बाजार समर्थन मूल्य  कृषि उत्पादन मूल्य का 70 फीसदी बना हुआ है और इसी अवधि के दौरान गेहूं के लिए यह 60 फीसदी से अधिक था, जबकि कपास के लिए यह 53 और 81 फीसदी के बीच था।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि अमेरिका बाजार समर्थन मूल्य के इन अतिरंजित अनुमानों पर कैसे पहुंचा। अमेरिका ने एमएसपी और भारतीय रुपये में “बाह्य संदर्भ मूल्य” को मापकर भारत के बाजार समर्थन मूल्य की गणना की है, जबकि भारत ने इन दोनों कीमतों को अमेरिकी डॉलर के संदर्भ में मापा है। इसका मतलब है कि जब भारत आंकड़ों को पेश करता है, तो रुपये के मूल्यह्रास को देखा जाता है, जबकि अमेरिका भारत के खिलाफ अपने तर्कों में इन बातों को शामिल नहीं करता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि एओए डब्ल्यूटीओ सदस्यों को किसी भी मुद्रा में अपने बाजार समर्थन मूल्य की गणना की आजादी देता है। यह भी समझना जरूरी है कि किसी देश द्वारा पेश किया गया आंकड़ा सुसंगत होना चाहिए। भारत 1998 में पहली अधिसूचना से ही डब्ल्यूटीओ में अमेरिकी डॉलर में लगातार इन आंकड़ों को पेश कर रहा है।

अमेरिका ने खरीद या पैदावार की उपयुक्त मात्रा से संबंधित दूसरा मुद्दा उठाया है। भारत इस बात पर कायम है कि “उपयुक्त पैदावार” किसी ऐसी फसल के कुल उपज का वह हिस्सा होना चाहिए, जो वास्तव में एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है। हालांकि, अमेरिका संकेत दे रहा है कि भारत को वास्तविक खरीद से पहले अपनी “उपयुक्त पैदावार” घोषित करनी होगी। वास्तविक खरीद से पहले “उपयुक्त पैदावार” की घोषणा करने के दो प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं। “उपयुक्त पैदावार” उच्च स्तर पर निर्धारित किया जाता है, तो यह किसानों द्वारा एक विशेष फसल की उपज की मात्रा के फैसले को प्रभावित कर सकता है। यदि यह अपेक्षाकृत कम निर्धारित किया जाता है, तो इससे किसानों को एमएसपी के लाभ से वंचित होना पड़ेगा। ये दोनों विकल्प भारत के लिए पूरी तरह से अस्वीकार्य हैं, क्योंकि देश की  कृषि व्यवस्था अनिश्चितताओं से भरी हुई है। इसलिए एमएसपी देने के लिए सरकारी खरीद को वास्तविक उत्पादन के साथ संयोजित करना चाहिए।

नवंबर की शुरुआत में भारतीय कृषि नीति के विभिन्न पहलू ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, यूरोपीय संघ, जापान, रूस और अमेरिका सहित कई डब्ल्यूटीओ सदस्यों की बारीक समीक्षा के दायरे में आ गए। इनमें अहम मुद्दे मिल्क पाउडर, चीनी और दालों की आपूर्ति प्रबंधन संबंधित नीतियां, इन सभी उत्पादों/वस्तुओं को दी जाने वाली निर्यात सब्सिडी और दालों के आयात पर प्रतिबंध थे।

एओए भारत को प्रत्यक्ष निर्यात सब्सिडी का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देता है, लेकिन कृषि उत्पादों के विपणन निर्यात की लागत को कम करने और निर्यात परिवहन पर माल की ढुलाई एवं आंतरिक परिवहन के लिए अप्रत्यक्ष निर्यात सब्सिडी दी जा सकती है। इन सुविधाओं का उपयोग ऊपर उल्लिखित वस्तुओं के निर्यातकों को सहयोग देने के लिए किया गया है। हालांकि, यह सुविधा 2023 के अंत में बंद हो जाएगी। 2015 में नैरोबी के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में फैसला लिया गया था कि विकासशील देश सिर्फ 2023 के अंत तक अप्रत्यक्ष निर्यात सब्सिडी का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह कृषि में निर्यात सब्सिडी से संबंधित सभी नीतियों के लिए अहम होगा। डब्ल्यूटीओ सदस्यों ने पिछले कृषि सत्र में दालों का अधिक उत्पादन और अनपेक्षित स्थितियों से निपटने के लिए नीतियों के पुनर्मूल्यांकन की समीक्षा भी की थी। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों के लिए प्रमुख चिंता दालों के लिए स्थिर बाजार गंवा देना था, जिसे भारत ने कई वर्षों तक मुहैया कराया था।

ऑस्ट्रेलिया का मानना था कि भारत ने एमएसपी मुहैया कराने सहित आयात को प्रतिबंधित करने और दालों के लिए घरेलू बाजार को स्थिर करने के लिए जो कदम उठाए, उससे वैश्विक बाजार प्रभावित हुआ। कई टिप्पणीकारों ने तर्क दिया कि डब्ल्यूटीओ के नियमों का मूल उद्देश्य यह है कि विश्व बाजार एक अनुमानित और पारदर्शी तरीके से काम करे। साथ ही कहा- संगठन के सदस्यों द्वारा अपनाई गई नीतियां इन उद्देश्यों को पूरा करने वाली होनी चाहिए।

डब्ल्यूटीओ सदस्यों द्वारा भारत की कृषि नीतियों की हालिया समीक्षा कई महत्वपूर्ण संकेत देती है। पहला यह है कि भारतीय कृषि में गहराते संकट के समाधान के लिए नीतियों में लचीलेपन की जरूरत है, जो एओए के मौजूदा नियम प्रदान नहीं करते। भारतीय नजरिए के मुता‌बिक, नीतियों में लचीलापन, दोहा दौर की प्रमुख वार्ता के नतीजों में से एक होना चाहिए था। इसलिए, दोहा दौर की वार्ता के पुनरुत्थान पर ध्यान केंद्रित करने के लिहाज से भारत के लिए यह एक सशक्त प्रोत्साहन है। दूसरा और महत्वपूर्ण संकेत यह है कि सरकार को कृषि क्षेत्र में संरचनात्मक बदलाव के लिए काम करना चाहिए, जो छोटे और सीमांत किसानों तथा भूमिहीन श्रमिकों के हितों को केंद्र में रखता हो। डब्ल्यूटीओ नियमों में कृषि को लेकर कामचलाऊ नीतियों के लिए बेहद कम जगह है। जाहिर है, इसमें सिर्फ सुसंगत नीतियां ही समीक्षा के पैमाने पर खरी उतर सकती हैं।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं)    

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TAGS: कृषि, एमएसपी, डब्ल्यूटीओ, केंद्र सरकार, MSP, WTO, Central Government, Agriculture
OUTLOOK 30 November, 2018
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