गांधी जयंती/आश्रम और नैतिक राजनीति की ऊर्जा: राजनैतिक तीर्थस्थली से मिलती शक्ति
गांधी के लिए उनके आश्रम पावरहाउस साबित हुए- गांधीवादी आंदोलन की एक नेत्री सरोजिनी नायडू के इस कथन से असहमत होना मुश्किल है। गांधी पांच आश्रमों में रहे और अपने-अपने ढंग से विकसित हुए हजारों कार्यकर्ताओं/नेताओं के लिए भी ये आश्रम खुद को विकसित करने और देश-समाज के काम में हिस्सेदारी की विशिष्ट नर्सरी साबित हुए। भारत में सिविल सोसाइटी आंदोलन की ढंग से शुरुआत कराने में भी यहां बने तीन आश्रमों और फिर उनका अनुसरण करते हुए खड़े हुए सैकड़ों आश्रमों की जबरदस्त भूमिका रही है, हालांकि गांधी को सिविल सोसाइटी के चालू मुहावरों से जोड़ना उचित नहीं है। राष्ट्रीय आंदोलन और दुनिया के उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन के लिए भी यही बात कही जा सकती है।
ये आश्रम आज काफी हद तक निष्क्रिय पड़े हैं, पर अब भी इनके सहारे चलने वाले काम समाज और राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी के चलते ये प्रेरणा-स्थल भी हैं और दक्षिण अफ्रीका के लिए और उससे भी बढ़कर देश के लिए ये अनमोल धरोहर बने हुए हैं। लाखों लोग गांधी से जुड़े स्थलों को तीर्थ और प्रेरणा की चीज मानकर आज भी वहां अपना शीष नवाने पहुंचते हैं, तो उनमें हजारों लोग आश्रमों को देखने भी जाते हैं, जहां रहकर गांधी ने अपनी सारी ‘लीला’ की और लोग तैयार किए। गांधी ने जो-जो प्रयोग इन आश्रमों में और अपने जीवन में किए वे सचमुच लीला ही लगते हैं और वैज्ञानिक आइंस्टीन का यह कथन बहुत थोड़े समय में ही सार्थक लगने लगा था कि आने वाली पीढ़ियां मुश्किल से भरोसा करेंगी कि कभी हाड़-मांस का कोई ऐसा इंसान भी जमीन पर आया था।
गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में सिर्फ हिंदुस्तानियों की लड़ाई लड़ी लेकिन आज वहां के लोग और नेता गांधी पर अपना दावा करते हैं तो इसलिए भी कि गांधी ने उन्हें लड़ना सिखाया, लड़ने के तरीके का उदाहरण पेश किया, लड़ने वालों की फौज जुटाने का तरीका सिखाया। गांधी की लड़ाई में वहां के दो आश्रम बहुत महत्व के थे पर उनसे ज्यादा महत्व की चीज गांधी द्वारा वहां विकसित सत्याग्रह का ‘मंत्र’ साबित हुआ, जो आज तक दुनिया में अन्याय से शांतिपूर्ण लड़ाई में हर किसी के काम आ रहा है।
साबरमती आश्रमः अहमदाबाद के इसी आश्रम से दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह शुरू हुआ
भारत में स्थित आश्रमों में ऐसा कोई विलक्षण ‘हथियार’ तो नहीं बना (और रोज इतने बड़े आविष्कार होते भी नहीं) पर यहां काफी सारे छोटे हथियार बने या पुराने हथियारों में सुधार हुआ, उसका इस्तेमाल करने वालों की फौज खड़ी हुई, ब्रिटिश हुकूमत और अन्य विदेशी उपनिवेशवादियों से भी सीधी लड़ाई हुई और उन्हें पराजित किया गया। साथ ही पश्चिमी सभ्यता के गांधीवादी विकल्प के कीमती प्रयोग हुए, जिसमें भारतीय और पूरबी दुनिया का काफी कुछ था लेकिन पश्चिम से भी काफी लिया गया था।
कहना न होगा कि अगर ‘हिन्द स्वराज’ को लिखने का मसाला दक्षिण अफ्रीका में जुटा था तो उसको प्रयोग की जमीन पर उतारने की कोशिशें हिंदुस्तान के इन आश्रमों में शुरू हुईं और कई को तो देश और दुनिया के स्तर पर सफलतापूर्वक आजमाया गया। सत्याग्रह इतना बड़ा हुआ कि आज भी प्रयोग हो रहा है। गांधी के बाकी प्रयोग उतने नहीं चले और स्थगित से हैं, पर उनको बुरा मानने या बंद करने का साहस अब भी नहीं होता। वे अनमोल इस अर्थ में भी हैं कि ये आज भी तरह-तरह के आंदोलनों और गांधीवादी मूल्यों के लिए प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं।
उनका यह भी महत्व है कि इन आश्रमों और संस्थाओं के भवनों को गांधी की ‘घास-फूस’ वाली शैली में बनाए रखने के सार्वजनिक खर्च की चर्चा भी होती है (क्योंकि गांधी ने उन्हें किफायत और स्थानीय संसाधनों से खड़ा किया था) तो नई साज-सज्जा और भव्य रूप देने की नरेंद्र मोदी सरकार की कोशिश (अकेले साबरमती आश्रम को आधुनिक और विकसित रूप देने की योजना 1,200 करोड़ रुपए की है) की भी आलोचना होती है। मोदी और भाजपा ही नहीं, संघ परिवार गांधी को प्रात:स्मरणीय बताता तो है लेकिन उसके काम गांधी के मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए भी ऐसे बदलाव को अनुचित माना जाता है। और यह गांधी की किफायत और स्थानीयता के बुनियादी मूल्य के खिलाफ तो है ही, जिनके लिए ये आश्रम बने थे। इसी सरकार ने नहीं, पहले की सरकारों ने भी क्या-क्या किया है, क्यों किया है, यह यहां चर्चा का विषय नहीं है।
पर बात सिर्फ सरकारों और सरकारी गांधीवादियों की सीमाओं और गांधी के प्रयोगों को चलाने, न चलाने की उलझन भर की नहीं है। लोहिया जिन्हें मठी गांधीवादी कहते थे उनमें से शायद ही किसी ने निजी व्यवहार में बहुत गैर-गांधीवादी आचरण किया होगा लेकिन ज्यादातर ने गांधी की सोच और व्यवहार की ‘धार’ को कुंद किया है। देश और दुनिया पर एक से एक बड़ी मुश्किलें आईं लेकिन अपवाद छोड़कर उन्होंने शायद ही कभी उनसे टकराने या गांधीवादी विकल्प देने की हिम्मत दिखाई होगी। भूदान का बड़ा आंदोलन जरूर खड़ा हुआ लेकिन उस तरह के दावों और व्यवहार से भूमि की समस्या सुलझ जाएगी, यह मानना ही गैर-गांधीवादी सोच थी। इस जमात ने इमरजेंसी पर साफ फैसला नहीं किया और ज्यादातर विवाद के सवालों पर चुप्पी साधना ही बेहतर माना।
पर यह भी कहना होगा कि गांधी के न रहने के इतने लंबे समय बाद भी किसी ऐसे ‘मठी’ गांधीवादी का निजी आचरण कोई बहुत गैर-गांधीवादी नहीं हुआ। किसी भी गांधीवादी संस्था से छुआछूत बरतने, मजहबी भेदभाव करने, औरत-मर्द के बीच बड़ा भेदभाव करने या संपत्ति हड़पकर अमीर बनाने का उदाहरण नहीं दिखता। गलतियां या बेईमानियां दिखती भी हैं, तो बहुत छोटी, जो इन संस्थाओं या गांधीवादी आंदोलन को तो नुकसान पहुंचाती हैं लेकिन समाज का ज्यादा नुकसान नहीं करतीं।
सबसे आम बेईमानी संस्थाओं के आवास पर येन-केन प्रकारेण कब्जा बनाए रखने की है, जो इन संस्थाओं के बड़े शहरों के केंद्र में आने और इन आवासों के सुविधाजनक हो जाने (गांधी के समय यह लाभ भी न था) के चलते हुआ है। खादी पहनना, शाकाहारी रहना, असत्य से बचना, अहिंसा को सबसे आगे रखना जैसी सारी बुनियादी सीखों पर उन्होंने अमल किया है। पर यह भी हुआ है कि ज्यादातर बड़े मौकों पर अन्याय का प्रतिरोध करने और अपनी जान को भी दांव पर लगाकर प्रतिरोध करने का गांधी का बुनियादी गुण वे सुविधा से भुला देते रहे हैं। इसलिए नब्बे-पंचानबे प्रतिशत गांधीवादी बने रहकर भी उनमें से ज्यादातर लोग गांधी के आंदोलन वाले पक्ष को ज्यादा आगे नहीं बढ़ा पाए हैं।
प्रेरणा स्थलः पूरे भारत से हजारों लोग सेवाग्राम आश्रम देखने आते हैं
अब न तो निरंतर आंदोलन चल सकता है, न गांधी की अनुपस्थिति की भरपाई आसान है, लेकिन ये नन्हे-नन्हे गांधी और गांधी के बाद का उनका काम (जिसमें सबसे प्रमुख गांधी के जीवन और विचारों का प्रचार ही रहा है) उनको बहुत निश्चिंत बैठने भी नहीं देता। सरला बहन, सुंदरलाल बहुगुणा, चन्डी प्रसाद भट्ट, अनुपम मिश्र, हिमांशु कुमार और अभय बंग जैसों के नए गांधीवादी प्रयोग अपनी जगह हैं लेकिन आम गांधीवादी कार्यकर्ता, खासकर गांधी के आश्रमों और गांधीवादी संस्थाओं में जीवन लगाने वाला, देश समाज की जरूरतों के अवसर पर हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रहा है। विनोबा के आह्वान पर अधिकांश ऐसे लोगों ने भूदान में जीवन लगाया, हालांकि उसका हासिल आज भी सवालों के घेरे में है।
समाज की जरूरत और लोगों के आंदोलन में सीधी भागीदारी का पहला बड़ा उदाहरण सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन था, हालांकि उसमें मठी गांधीवादियों के बीच आ रही जड़ता का उदाहरण भी सामने आया। अपने सारे पुराने साथियों का साथ पाने में खुद जेपी के भी पसीने छूट गए, पर गांधीवादी कार्यकर्ताओं की भागीदारी और गांधीवादी संस्थाओं के ठिकाना बनने से आंदोलन को एक मजबूत संरचना हासिल हुई। गांधी ने अपने जीवन की काफी बातें बहुत सच्चाई से अपनी आत्मकथा में लिखी हैं। जाहिर है, उनमें अपने चार-पांच आश्रमों को बनाने और वहां के जीवन और प्रयोगों की भी चर्चा काफी विस्तार से है। लेकिन यह बताने में हर्ज नहीं है कि गांधी ने इस चर्चा में आश्रमों के तब और आज तक प्रभावी महत्व की ढंग से चर्चा नहीं की है। यह संभव भी न था क्योंकि उनको बनाने के पीछे तो उनकी एक सोच रही ही थी लेकिन उसकी सफलता, उसके असली स्वरूप लेने और उसके मूल्यांकन का काम गांधी के लिए संभव न था।
असल में गांधी ने आश्रम शब्द भी बाद में इस्तेमाल किया है। दक्षिण अफ्रीका वाले दोनों आश्रमों का नाम भी आश्रम नहीं सेटलमेंट और फार्म है क्योंकि गांधी पर तब रस्किन और टालस्टाय का असर काफी था और वे पश्चिम के जीवन से ऊबे कुछ समूहों के यूटोपियन प्रयोगों वाले फार्म से भी प्रभावित थे। ऐसा एक बड़ा जर्मन फार्म दक्षिण अफ्रीका में भी था और गांधी वहां के प्रयोग और सोच से काफी प्रभावित थे। ऐसा कुछ शाकाहार वाले जमातों के प्रयोग का भी असर था और गांधी जीवन भर शाकाहारी रहते हुए शाकाहार का प्रचार भी करते रहे लेकिन शाकाहार को आश्रमों का बुनियादी मूल्य नहीं बनाया।
फीनिक्स में अगर मुख्य काम अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ का प्रकाशन और आंदोलन में जेल गए लोगों के परिवार और बच्चों को संभालने का था तो शरीर-श्रम करने को तैयार लोगों और सत्याग्रही जमात जुटाना तथा उनको प्रशिक्षित करने का काम ज्यादा बड़े पैमाने पर टालस्टाय फार्म में हुआ जो फीनिक्स फार्म के छोटा पड़ने और सत्याग्रह की नई जगह से दूर होने के चलते बनाया गया था। उसमें श्रम और उत्पादन वाले पक्ष में लगभग पूर्ण स्वायत्तता हासिल कर ली गई थी और उनसे जुड़े कई नए प्रयोग शुरू हुए। सत्याग्रह का प्रयोग यही विकसित हुआ।
हिंदुस्तान आने पर गांधी पहली बार आश्रम बनाने की बात करते हैं और उनमें भी दक्षिण अफ्रीका के अनुभव के साथ हिन्दुस्तानी आश्रम परंपरा ही नहीं, यहां की मर्यादाओं का खयाल रखा जाता है। दुर्भाग्य से, यहां जमीन कम मिलने से श्रम, खेती और पशुपालन का दक्षिण अफ्रीका जैसा या मनचाहा प्रयोग नहीं हुआ। इसके लिए उन्होंने शांति निकेतन से लेकर गुरुकुल कांगड़ी जैसे हर उस प्रयोग को वहां जाकर देखा, जिसमें कुछ नया हो रहा था। उन्होंने काफी सारे लोगों से सलाह-मशविरा भी किया था, अनेक स्थानों को जाकर देखा था, जिसमें देवघर भी शामिल था। स्वामी श्रद्धानंद उनको हरिद्वार में ही आश्रम बनाने का न्यौता दे रहे थे। राजकोट का विचार भी हुआ। काफी विचार-विमर्श के बाद अहमदाबाद का चुनाव हुआ।
ऐसे ही एक गांधीवादी आचार्य कृपलानी की आत्मकथा यह बताती है कि उन लोगों ने कितने श्रम और निष्ठा से उत्तर भारत में श्री गांधी खादी आश्रम का काम फैलाया था। जब गांधी ने नमक सत्याग्रह का आह्वान किया तो सारा स्टॉक जब्त होने, बैंक खाते पकड़े जाने और खादी कार्यकर्त्ताओं के जेल जाने का खतरा पैदा हुआ। कृपलानी ने गांधीजी से अपनी यह चिंता साझा की तो गांधी ने तत्काल कहा कि तुमको क्या लगता है कि देश आजाद हुआ तो यह सब वापस नहीं पाया जा सकता। देश की आजादी सबसे ऊंची चीज है।
असहयोग आंदोलन के समय बीएचयू बनवाने वाले मालवीयजी और शांति निकेतन को लेकर टैगोर की भी चिंताएं ऐसी ही थीं, पर गांधी ने उसकी परवाह न की। खुद गांधी द्वारा खड़े किए गए विद्यापीठ भी उनके आश्रमों की तरह राष्ट्रीय आंदोलन के लिए पावरहाउस साबित हुए। वहां पढ़ाई के साथ बाकी सब कुछ वह सिखाया गया जो गांधी के आश्रमों में होता था। उनके संचालन में भी आश्रमों या आंदोलन से प्रशिक्षित वरिष्ठ लोग ही लगे थे।
यह बताना जरूरी है कि गांधी ने निजी आचरण में सिर्फ दलितों के साथ नहीं, समाज के किसी भी वर्ग और जाति के साथ भेदभाव नहीं किया और उनके आश्रम इस मर्ज से मुक्त थे। उन्होंने चंपारण के अपने पहले आंदोलन में ही सभी जातियों के अपने सहयोगियों के लिए साथ भोजन बनाने और करने का नियम थोड़ा रुककर लागू किया। राजेन्द्र बाबू ने लिखा है कि इससे पहले उन्होंने अपनी जाति या ब्राह्मण रसोइया के हाथ का बना ही ‘कच्चा खाना’ खाया था। बाहर के जीवन में कांग्रेस और समाज का व्यवहार देखकर गांधी जरूर जाति पर कोई क्रांतिकारी लाइन से बचते रहे। अपनी गोद ली बेटी लक्ष्मी की शादी उन्होंने एक ब्राह्मण लड़के से की थी जबकि उसके असली पिता दूधाभाई उसे अपनी दलित बिरादरी में ही ब्याहना चाहते थे।
गांधी के जीवन और देश-दुनिया के लिए इन आश्रमों में विकसित कार्यक्रमों, विचारों और जीवन-शैली की चर्चा तो जरूरी है ही, इन आश्रमों में रहने वाले, यहां आकर बदलने वाले और समाज में नई भूमिका निभाने वालों की चर्चा भी उतनी ही जरूरी है। ऐसा नहीं है कि गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में ही गांधी के आश्रमों से बाहर रहने वाले या गांधी के प्रभाव में आकर भी आश्रमों में न रहने वाले लोगों ने बड़े काम नहीं किए। गांधी को हिंदुस्तान आए ज्यादा दिन नहीं हुए और हम देश के हर हिस्से में सैकड़ों आश्रमों के निर्माण के साथ हजारों गांधी पैदा होते भी देखते हैं। ये ‘बाहरी’ गांधी कई प्रसंगों में असली गांधी से भी ऊपर गए, गांधी बनने की जिद में कई बार ‘अति’ करते दिखते हैं, कई बार गांधी से डांट खाते हैं तो कई बार प्रशंसा पाते हैं।
गांधी के विचारों, कार्यक्रमों और ‘हथियारों’ के विकास और इस्तेमाल में वे कहीं भी पीछे नहीं रहते। इन हजारों लाखों गांधियों के साथ सक्रिय होने से ही भारत से उपनिवेशवाद विदा हुआ, अपना आंदोलन (स्वदेशी) विकसित हुआ, देश आजाद हुआ, करोड़ों लोगों के जीवन में बदलाव आया और दुनिया को उपनिवेशवाद से लड़ने की प्रेरणा मिली और कई बार मदद भी। अगर गांधी के विचारों का, कार्यक्रमों का और उनकी अपनी जीवनशैली के विस्तार का यह रूप न दिखता तो संभवत: आजादी भी नहीं मिलती। असल में यही गांधी की और अपने आश्रमों से किए गांधी के प्रयोगों की सबसे बड़ी सफलता है। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। बाद में नई राजनीति करने के इच्छुक लोहिया हों या जेपी या फिर किशन पटनायक जैसे बड़े लोग, हर किसी को अपने आदर्शों के अनुरूप राजनैतिक सामाजिक दखल देने के लिए अपनी सोच और उसके अनुरूप प्रशिक्षण वाले कार्यकर्ताओं की कमी महसूस हुई, लेकिन उन्होंने ऐसे आश्रम बनाने और कार्यकर्ता प्रशिक्षित करने के अल्पकालीन प्रशिक्षण शिविरों का ही सहारा लिया, जो किसी बड़े बदलाव के लिए अपर्याप्त साबित हुआ।
आश्रमों को बनाना, सही दिशा में चलाना और इतनी सारी ‘एंगुलरिटी’ वाली यानी असामान्य प्रतिभाओं को (हालांकि यह एंगुलरिटी का ठीक अनुवाद नहीं हुआ) संभालना बहुत आसान काम न था, खास तौर से तब जब आश्रम की दुनिया से बाहर इतना कुछ चल रहा हो, उनसे आश्रमों और आश्रमवासियों का सीधा जुड़ाव हो और आप गांधी हों अर्थात इन सबका केन्द्रीय व्यक्तित्व हो। यह सही है कि गांधी को एक से एक अच्छे लोग और मैनेजर मिले, उन्होंने गांधी के एक-एक काम और विचार को साकार करने में अपना जीवन खपा दिया, कभी किसी पुरस्कार की मांग नहीं की और मान-अपमान भी नहीं माना।
इन सबको संभालने में गांधी भी कई बार असफल हुए। कई बार वक्त न था, कई बार उनका धीरज ही नहीं दिमाग भी जवाब दे गया, उनको सचमुच के दौरे पड़े, लकवा हुआ, लंबा इलाज चला। उनका अपना इलाज तो चलता ही रहा, राजाजी उनको बाहर शांत जगह पर ले गए। डॉक्टरों ने चिट्ठियां लिखने की मनाही की (क्योंकि रोज सैकड़ों चिट्ठियां लिखना और जवाब देना दिमाग पर भारी पड़ने लगा था)। गुस्सा गांधी को भी आता ही होगा, पर गांधी आश्रमों के लिए छटपटाते भी रहे।
अब जिस तरह गांधी ने कांग्रेस को छोड़ा था लेकिन कांग्रेस ने गांधी को नहीं छोड़ा, उसी तरह गांधी ने आश्रमों को छोड़ा लेकिन आश्रमों ने गांधी को नहीं छोड़ा। इंडियन ओपिनियन के प्रकाशन और आश्रम के कामों को चलाने के लिए गांधी के दूसरे पुत्र मणिलाल फीनिक्स में रहे और 1956 में अपनी मौत तक रहे। उनके बाद भी उनका परिवार, खासकर उनकी पत्नी (जो गांधी का मस्तिष्क कहे जाने वाले किशोरलाल मशरुवाला की भतीजी थीं) सुशीला जी ने बहुत बाद तक व्यवस्थित कामकाज चलाया। उसके बाद उनके पुत्र अरुण तो भारत आ गए लेकिन बेटियों ने अपने काम करने के साथ यहां के कामकाज को संभालने में सक्रियता रखी, बल्कि और नहीं तो यहां के बिखराव और गड़बड़ पर शोर तो मचाया ही है और अकेले इसी चीज ने इस आश्रम को काफी हद तक बचाए रखा है।
मणिलाल ने कई तरह से गांधी के काम को विस्तार दिया- इंडियन ओपिनियन को दक्षिण अफ्रीकी हिंदुस्तानियों का अखबार बनाए रखने की जगह सबका अखबार बनाया। आश्रम का स्कूल भी सबके लिए खोला और अपने स्तर पर रंगभेद के खिलाफ लड़ते रहे। बाद में यह स्थिति हो गई थी कि गांधी के इस पुत्र की जिद के आगे पुलिस ने भी हथियार डाल दिए थे। टालस्टाय फार्म जरूर बिखरा लेकिन रह-रहकर उसको समेटने, स्मारक बनाने और पुरानी गतिविधियों को शुरू करने की कोशिशें चलती ही रहती हैं। अब पुराने दिन तो नहीं ही लौटेंगे लेकिन गांधी और गांधीवादियों की सक्रियता को पसंद करने वाले इसे भुला देंगे यह भी संभव नहीं है। आज तो पूरा दक्षिण अफ्रीका ही गांधी से अपने संबंधों पर गर्व करता है।
भारत के आश्रमों में साबरमती गांधी के दांडी मार्च के बाद कुछ समय जब्त रहा, बंद रहा। फिर गांधी स्मारक निधि बनाकर हरिजन छात्रों के अध्ययन और इस तरह के कार्यक्रमों को संचालित करने वाली संस्था के हवाले किया गया। बाद में उसको नेहरू सरकार ने एक खूबसूरत स्मारक का स्वरूप दे दिया था। उसके आसपास चलने वाली संस्थाएं अपने-अपने काम करती रहीं। सेवाग्राम और वर्धा की संस्थाएं भी गिरते पड़ते अपना काम जारी रखे हुई हैं और आज भी ये प्रेरणा के केंद्र हैं।
हैरानी नहीं कि आजाद भारत में भूदान से लेकर अन्ना आंदोलन (जिसकी पैदाइश आम आदमी पार्टी और केजरीवाल हैं) तक देश में जितने भी बड़े आंदोलन रहे हैं सबमें गांधीवादी कार्यकर्ताओं की भागीदारी मजबूती से रही है। यह अनुपात निरंतर गिरा है और लालू-नीतीश से लेकर वीपी सिंह और केजरीवाल जैसों की छल वाली राजनीति ने गांधी के नाम पर भी बट्टा लगाया है लेकिन अब भी देश अगर गांधी के आश्रमों, उससे चलाने वाले कार्यक्रमों और उसके करता-धरता लोगों की तरफ उम्मीद से देखता है तो यह सिर्फ आश्रमों का तीर्थस्थल में बदलना नहीं है, यह बापू के पुण्य-प्रताप के साथ साथ उनके हजारों लाखों अनुयायियों के पुण्य-प्रताप का भी असर है।
(वरिष्ठ पत्रकार, गांधी पर कई चर्चित पुस्तकों के लेखक। आजकल गांधी आश्रमों और संस्थाओं पर काम कर रहे हैं। विचार निजी हैं)