Advertisement
07 February 2019

संवैधानिक दायित्व से दूर

File Photo

देश के सर्वोच्च न्यायालय के हाल में लगातार कई मामलों में रवैए से गहरी आशंका होती है कि वह सरकार के आगे झुक-सा गया है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर का दौर ही आखिरी था जब सुप्रीम कोर्ट अपने संवैधानिक दायित्व के प्रति कुछ हद तक सतर्क था। न्यायपालिका की यह संवैधानिक ड्यूटी है कि वह सरकार पर, प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण रखे। लेकिन न्यायाधीश ठाकुर के जाने के बाद प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर और दीपक मिश्रा के दौर की तरह सुप्रीम कोर्ट, मेरे हिसाब से, अपनी संवैधानिक ड्यूटी से बहुत दूर होता जा रहा है। वह सरकार पर चेक ऐंड बैलेंस रखना ही नहीं चाहता। वह सरकार से सवाल नहीं करना चाहता है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। लगता है, न्यायपालिका कार्यपालिका पर अंकुश रखने से हिचक रही है।

हालांकि, 1950 से सुप्रीम कोर्ट हमेशा ही इमरजेंसी के कुछ अपवादों को छोड़कर स्वतंत्रता और निष्पक्षता का परिचय देता रहा है। वह कुछ साल पहले 2जी और कोयला ब्लॉक मामलों में अद्‍भुत फैसले सुना चुका है। लेकिन अफसोस! अब वह अप्रोच नहीं दिखता। हाल के दौर में राफेल विमान सौदे, सीबीआइ, जज लोया की मृत्यु जैसे कई राजनैतिक रूप से संवेदनशील और ऐतिहासिक महत्व के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से हलफनामा दायर करने को भी नहीं कहा। कई मामले में सीलबंद कागजात या सेल्फ सर्विंग इन्‍क्‍वायरी रिपोर्ट के जरिए मामलों को रफा-दफा कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का यह रवैया आश्चर्यजनक और निराशाजनक है। हाल का ही एक मामला देखिए। 30 जनवरी को अचानक वकील एमएल शर्मा ने (सीबीआइ के विशेष निदेशक) राकेश अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने वाली मेंसनिंग याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि शर्मा बोगस पीआइएल दाखिल करते रहते हैं और उन पर जुर्माना भी लगाया जा चुका है। जस्टिस गोगोई खुद उनको चेतावनी दे चुके हैं। फिर भी, उसे स्वीकार कर लिया गया और अगले ही दिन खारिज कर दिया गया। अब अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने का कोई विकल्प नहीं बचा है।

इसके पहले पूर्व सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा के मामले में पहला गुनहगार तो सुप्रीम कोर्ट खुद है। रिटायर जस्टिस पटनायक की निगरानी में वर्मा के खिलाफ आरोपों की सीवीसी से जांच कराने का आदेश दिया गया। लेकिन सीवीसी ने स्वतंत्र रिपोर्ट भेजी। सुप्रीम कोर्ट ने बेहद सम्माननीय जस्टिस पटनायक की रिपोर्ट की अनदेखी की। फिर, चयन समिति बैठी तो प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश की जगह सीकरी साहब और विपक्ष के नेता तीनों को जस्टिस पटनायक की रिपोर्ट की जांच करनी थी। इसके बदले सीवीसी की रिपोर्ट पर सीकरी साहब प्रधानमंत्री से राजी हो गए और आलोक वर्मा को कोर्ट से बहाली के अगले ही दिन हटा दिया गया। पटनायक साहब की रिपोर्ट देखी ही नहीं गई। यह तो जबरदस्त धांधली है।

Advertisement

यही नहीं, राफेल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फंडामेंटल गलतियां की हैं। सुप्रीम कोर्ट कॉमनकॉज के रिव्यू पेटीशन की सुनवाई नहीं कर रहा है। सरकार ने भी अर्जी लगा रखी है कि फैसले में कैग की रिपोर्ट पीएसी और संसद में पेश होने की बात सही नहीं है। तो, क्या सुनवाई जानबूझकर नहीं की जा रही है? यह बहुत ही निराशाजनक है। सुप्रीम कोर्ट के अप्रोच में इतनी इनकंसिस्टेंसी है कि एक दिन कुछ और फैसला सुनाता है तो दूसरे दिन कुछ और। जैसे, राफेल मामले में पहले बोले कि कीमत नहीं देखी जाएगी, फिर दूसरे फैसले में कहा कि कीमत भी देखी जाएगी। राफेल, बिड़ला-सहारा डायरी, जज लोया, सीबीआइ और आधार इन सभी मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसले दिए हैं। मैं पूरे सम्मान और विनम्रता से कह रहा हूं कि ये पांचों फैसले गलत हैं। ये फैसले कानून और तथ्य दोनों हिसाब से गलत हैं।

हाल में सरकार द्वारा दायर अयोध्या अर्जी (विवादित स्थल के अलावा अधिग्रहीत भूमि लौटाने की मंजूरी) को ही लें। मेरी राय में यह अप्लीकेशन स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। इसे दाखिल भी नहीं किया जा सकता है। 1993 के इस्माइल फारूकी मामले के फैसले के समय से इस पर रोक लगी हुई है। उसका उल्लंघन करके सरकार ने अप्लीकेशन फाइल की है।

यही हाल जजों की नियुक्ति का है। इसमें अब शक की गुंजाइश भी नहीं बची कि कॉलेजियम सिस्टम कोलैप्स कर गया है। सरकार जिस भी जज को चाहती है, कॉलेजियम पर दबाव डालकर फौरन उसका नाम रेकमेंड करवा लेती है और अगले ही दिन राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती है। राजस्थान हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंद्राजोग और दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन बेहद ईमानदार और निष्पक्ष जज हैं। दोनों का नाम जब कॉलेजियम से रेकमेंड हुआ तो मेरे ख्याल से जानबूझकर फाइल उस दिन नहीं भेजी गई। जब तक न्यायाधीश मदन बी. लोकुर रिटायर नहीं हुए, उसे दबाकर रखा गया। उसके बाद लीक होने और नई सूचनाओं के बहाने उनके नाम वापस ले लिए गए। ऐसी बात है तो दो अहम हाइकोर्ट में उन्हें चीफ जस्टिस क्यों बनाए रखा गया है। लेकिन कॉलेजियम जानता है कि कोई सबूत नहीं है। राजनैतिक दबाव में कॉलेजियम व्यवस्था ध्वस्त हो गई है। कॉलेजियम और स्वतंत्र जजों पर पहला हमला जस्टिस जयंत पटेल का कर्नाटक से ट्रांसफर था। दूसरा हमला जस्टिस अकील कुरैशी को गुजरात से बॉम्बे ट्रांसफर करना था। तीसरा हमला दो जजों के नामों की दुर्भाग्यपूर्ण वापसी थी। इसके लिए चीफ जस्टिस और कॉलेजियम के सभी जज जिम्मेदार हैं। उन्हें देश को जवाब देना चाहिए।

पहले उम्मीद थी कि जस्टिस खेहर न्यायपालिका को भयमुक्त और निष्पक्ष बनाएंगे। ऐसी ही आशा जस्टिस गोगोई से भी थी। एनजेएसी मामले में सरकार हार गई थी। लेकिन लगता है कि सरकार ने दूसरे तरीके ढूंढ़ लिए हैं। अब सरकार विजेता है और स्वतंत्र न्यायपालिका की हार हो गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दशक में जो प्रधान न्यायाधीश आएंगे, वे मजबूत नेतृत्व का परिचय देंगे और न्यायपालिका का गौरवमयी अतीत लौटा लाएंगे। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें ऐसा करने की शक्ति और बुद्धिमत्ता प्रदान करे!

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं। जैसा उन्होंने हरिमोहन मिश्र से कहा) 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: 'Away from constitutional obligation', Article, Supreme Court's recent cases, by Dushyant Dave
OUTLOOK 07 February, 2019
Advertisement