दिल्ली में ‘बड़बोली’, ‘गोली’ हारी मगर भाजपा विरोधी दलों के लिए भी बड़ा सबक
दिल्ली के लोगों ने सत्ताधारी आम आदमी पार्टी (आप) को फिर लगभग वही जनादेश सुना दिया, जो पांच साल पहले सुनाया था। उसके बरक्स भाजपा के “गद्दारों को गोली”, “शाहीनबाग को करंट”, “बिरयानी”, “आतंकवादी” जैसी बड़बोली के सहारे जीत हासिल करने के दावे को बुरी तरह शिकस्त दे दी। भाजपा के खाते में बेशक पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले करीब 6 प्रतिशत वोटों का इजाफा हुआ (2015 के 32.34 प्रतिशत के मुकाबले 2020 में 38.78 प्रतिशत)। लेकिन आप ने अपना वोट प्रतिशत लगभग बरकरार रखा (2015 के 54 प्रतिशत के मुकाबले करीब 53.51 प्रतिशत)। लिहाजा, भाजपा के भड़काऊ अभियान का कुछ असर तो हुआ लेकिन वह इतना भारी नहीं था कि एक खास तरह का उग्र राष्ट्रवाद राष्ट्रनिर्माण के शिक्षा, स्वास्थ्य, लोककल्याण के बुनियादी मुद्दों वाले राष्ट्रवाद को परास्त कर दे। कांग्रेस भी लड़ी लेकिन इन दोनों ही मामलों में कोई विशेष अपील न जगाने के कारण अपने पुराने वोट प्रतिशत को लगभग आधा कर बैठी। नतीजतन, दिल्ली का जनादेश तमाम राजनैतिक दलों के लिए कई तरह के सबक लेकर आया है, जिस पर कौन कितना तवज्जो देता है, इसी से देश में आगे की सियासत तय हो सकती है।
सबक तो पहले भाजपा के लिए ही है, जिसे हाल में दिल्ली के लोगों ने ही नहीं, इसके पहले बल्कि झारखंड की जनता भी उसकी ‘डबल इंजन की सरकार’, ‘राममंदिर’, ‘नागरिकता संशोधन कानून’, ‘एनआरसी’ जैसे नारों को बेमानी साबित कर चुकी है। उसके भी पहले महाराष्ट्र और हरियाणा के लोगों ने अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाने पर उसे ज्यादा समर्थन देने से इनकार कर दिया था। लेकिन भाजपा इन जनादेशों से सबक लेने के बदले और उग्र राह पर बढ़ती गई, जिसका सबसे तीखा अभियान दिल्ली के लोगों के सामने पेश किया गया। पार्टी को अपने इस अभियान पर इतना भरोसा था कि उसने अपने लगभग सभी केंद्रीय मंत्रियों, तमाम मुख्यमंत्रियों, 220 से अधिक सांसदों को तीखी बोली के साथ उतार दिया। यही नहीं, दिल्ली में बिहारी वोटों को तोड़ने के लिए जदयू के नेता, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी उतार दिया गया लेकिन सबसे अधिक बिहारी आबादी वाले बुराड़ी में जदयू के उम्मीदवार को भी भारी शिकस्त झेलनी पड़ी। यानी दिल्ली के चुनाव भाजपा के लिए ही नहीं, उसके सहयोगी दलों के लिए भी बड़े सबक लेकर आए हैं। इन पर अगर गौर नहीं किया गया, तो इसके नतीजे इसी साल के आखिर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों और उसके बाद बंगाल वगैरह के चुनावों में भी दिख सकते हैं।
लेकिन भाजपा और उसके सहयोगी दलों से भी बड़ा सबक विरोधी दलों के लिए हैं। कांग्रेस और तमाम दूसरे दलों को दिल्ली के लोगों से बेहद संजीदा नसीहत मिली है। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, ‘कश्मीर’, ‘शाहीन बाग को करंट’, ‘गद्दारों को गोली’ जैसे नारों का राष्ट्रवाद तभी हारेगा जब बुनियादों मुद्दों का राष्ट्रवाद मजबूत होगा। ये बुनियादी मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, लोगों के जीवन में सहूलियत मुहैया कराना ही हैं जिससे लोग अपनी मजबूती महसूस करते हैं और राष्ट्रनिर्माण बेहतर होता है। दिल्ली में आप सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा, अस्पताल, मोहल्ला क्लिनिक की व्यवस्थाएं मजबूत कीं। लोगों को बिजली, पानी की सहूलियत मुहैया कराई। यानी उसने उन मुद्दों पर ध्यान दिया, जिन्हें स्थानीय मुद्दे कहकर खारिज करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह तो सर्वविदित है कि मौजूदा एनडीए सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती सरकारें भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली जैसे तमाम बुनियादी मसलों को निजी क्षेत्र के हवाले करके सरकार की भूमिकाएं कम करने की नीतियों पर ही चलती रही हैं। यानी विकास का एजेंडा निजीकरण के भरोसे छोड़ा जाता रहा है, जिससे जनता लगातार त्रस्त होती रही है। दिल्ली के लोगों ने इस नीति को एक तरह से खारिज कर दिया है। यही नहीं, इन मुद्दों को ढंकने के लिए निरे खोखले किस्म के उग्र राष्ट्रवाद का हांका लगाने की राजनीति को भी हरा दिया है।
तो, कांग्रेस समेत तमाम गैर-भाजपाई नेताओं और राज्य सरकारों के लिए सबक है कि वे बुनियादी मुद्दों पर जितना मजबूती से काम करेंगी, उतनी ही उनकी राजनीति मजबूत होगी। लोग बच्चों की शिक्षा के लिए मजबूत सरकारी पहल की मांग करते हैं, सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत होते देखना चाहते हैं, न कि स्वास्थ्य बीमा के जरिए राहत देने को तवज्जो देते हैं। इसी तरह दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में किसानों की मजबूती और दूसरे मसले हो सकते हैं। दिल्ली का जनादेश यही है कि लोगों के बुनियादी मसलों को निजी क्षेत्र के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता। तो, क्या गैर-भाजपा शासित राज्य सरकारें ये सबक लेंगी और लोगों को उस राष्ट्रवाद की ओर ले जाएंगी जिससे उनके जीवन की सहूलियतें बढें। अगर यह हो सकेगा तभी देश में नई सियासत पैदा होगी। याद रखें, 2014 में मोदी की अगुआई में भाजपा सरकार भी ‘अच्छे दिन’ लाने के वादे के सहारे आई थी। 2019 में भाजपा की जीत में एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि कांग्रेस समेत तमाम दलों पर लोगों का भरोसा नहीं बन पाया था कि वे राष्ट्रनिर्माण के बुनियादी मुद्दों पर ईमानदारी से आगे बढ़ेंगे। लाख टके का सवाल यही कि क्या दिल्ली के जनादेश से सबक लेकर राजनीति नई दिशा की ओर बढ़ेगी।