मुद्दों को मुंह चिढ़ाते नतीजे
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर हमें आश्चर्य होना चाहिए। इसलिए नहीं कि एग्जिट पोल के नतीजे देखकर हमने कुछ और उम्मीदें पाल ली थीं, इसलिए नहीं कि मीडिया में आने वाली ग्राउंड रिपोर्ट सत्तारूढ़ गठबंधन की विदाई का संकेत दे रही थीं, इसलिए नहीं कि नतीजे हमारी आशा के अनुरूप नहीं थे।
हमें राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन की एक और विजय पर आश्चर्य इसलिए होना चाहिए चूंकि यह नतीजा इतिहास के इस मोड़ पर लोकतांत्रिक राजनीति के मर्म को जैसे मुंह चिढ़ा रहा है। जिस तरह बाजार की विफलता पर नव उदारवादी अर्थशास्त्री चकित होते हैं, उसी तरह इस चुनावी नतीजे से राजनीति के छात्रों को भी चकित होना चाहिए। जब हम चकित होने के इस भाव को छिपाते हैं, तो हम सीखने के द्वार भी बंद कर देते हैं।
आप उस राज्य के बारे में सोचिए जहां भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों की आबादी का एक हिस्सा निवास करता है। राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय की तुलना में वहां की प्रति व्यक्ति आय पांच दशकों से लगातार घटती गई। वहां की आबादी तुलनात्मक रूप से युवा है और श्रमिक पूल में उसका योगदान अधिक है, फिर भी श्रमिक साझेदारी अनुपात में वह देश में सबसे नीचे और बेरोजगारी में सबसे ऊपर है। वह राज्य अपनी युवा आबादी को नौकरियों के लिए तैयार नहीं करता क्योंकि उच्च शिक्षा में दाखिले की दर सबसे कम है। उसकी स्वास्थ्य व्यवस्था देश में सबसे गई-बीती है, कानून-व्यवस्था की स्थिति बदहाल है। इसके बाद भी अगर कोई आपसे कहे कि बीते 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज पक्ष फिर चुनाव में जीत गया, तो आपको आश्चर्य होना चाहिए कि नहीं?
अगर आपको यह भी पता लगे कि उस राज्य में इस वर्ष महामारी हुई और बाढ़ भी आयी। दोनों ही में भारी बदइंतजामी हुई। पैदल घर लौटने पर मजबूर लाखों प्रवासी मजदूरों के प्रति सरकार ने बेरुखी दिखाई। पहली तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर में रिकॉर्ड गिरावट आई तो बिहार सबसे अधिक प्रभावित होने वाले राज्यों में था। चीन सीमा पर जिन सैनिकों ने सरकारी भूल से जान गंवाई उनमें ज्यादातर बिहार के थे। ऐसे साल में अगर सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव जीतती है तो आपको आश्चर्य होना चाहिए कि नहीं?
यह राजनैतिक प्रतिस्पर्धा के उस तर्क के विपरीत है जिस पर लोकतंत्र टिका है। लोकतंत्र का कोई भावी इतिहासकार यह समझने के लिए बिहार के इस चुनाव को देख सकता है कि लोकतंत्र विफल क्यों हुए।
उसे पहली बात तो यह पता चलेगी कि बिहार में राजनीतिक विकल्प मुक्त रूप से उपलब्ध नहीं थे, जिसकी कल्पना लोकतांत्रिक सिद्धांत में की जाती है। राजस्थान या मध्य प्रदेश जैसे अन्य हिंदी भाषी राज्यों की तरह बिहार में दो पार्टियों के बीच सीधे मुकाबला नहीं था, न ही केरल की तरह दो स्थायी गठबंधन के बीच। यहां हर चुनाव में गठबंधन बनते और टूटते रहे हैं। यहां तो मतदाता के वोट डालने से पहले ही गठबंधन बनने और टूटने के आधार पर आधी जीत या हार तय हो जाती है। इस वर्ष राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सभी प्रमुख विपक्षी दलों को मिलाकर एक बड़ा, महागठबंधन बनाना चाहता था। अंततः वह छोटा गठबंधन ही बना सका जिसमें राजद के अलावा कांग्रेस और तीन मुख्य वामदल भाकपा (माले), भाकपा और सीपीएम शामिल थे। सभी वामदलों को शामिल करना अच्छा कदम था क्योंकि इससे महागठबंधन को भोजपुर और मगध क्षेत्र में बढ़त हासिल हुई। दो छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पार्टियों- एचएएम और वीआइपी को छोड़ दिया गया। एनडीए ने इन दोनों को साथ लेकर चतुराई दिखाई। इतिहासकार को ऐसा लग सकता है कि इन दोनों छोटी पार्टियों को शामिल करने के लिए टिकटों में कांग्रेस का हिस्सा कम किया जा सकता था। लेकिन इस चुनाव में सबसे बड़ी फिसलन वहां नहीं हुई।
दोनो गठबंधन को वोटकटवा का सामना करना पड़ा। जाहिर है बीजेपी ने नीतीश का कद छोटा करने के लिए चिराग पासवान को बढ़ावा दिया। शुरू में जब यह चुनाव एकपक्षीय लग रहा था, तब यह रणनीति बहुत अच्छी थी, लेकिन बाद में जब तेजस्वी ने चुनाव प्रचार में जान फूंकी और चिराग अपना काम करने लगे तो यह दांव उल्टा दिखने लगा। लेकिन जैसा कहते हैं, सफल व्यक्ति की सौ गलतियां भी माफ होती हैं। उधर एआइएमआइएम का आना एनडीए के लिए विशेष उपहार की तरह था, क्योंकि वह सिर्फ महागठबंधन को ही नुकसान पहुंचा सकता था। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि जिन पांच सीटों पर उसके प्रत्याशियों को जीत मिली, उसके अलावा बहुत सीटों पर उसकी वजह से महागठबंधन के उम्मीदवारों की हार नहीं हुई। फिर भी यह तो कहा जा सकता है कि एआइएमआइएम की मौजूदगी ने सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील उत्तर पूर्वी जिलों में हिंदू मतदाताओं को एकजुट किया। वोटकटवा की भूमिका महागठबंधन की हार का असली कारण नहीं थी।
इसके बाद वह इतिहासकार मतदाताओं के झुकाव का अध्ययन करेगा। उसे पता चलेगा कि मतदाता उन खरीदारों की तरह नहीं थे जो मोलभाव करने के लिए हर दुकान में जाते हैं। इन मतदाताओं की निष्ठा पहले से तय थी, जो वास्तव में उनके जन्म से तय होती है। उसे पता चलेगा कि ऐसा पूरी दुनिया में हुआ है और बिहार में इसने जातिगत निष्ठा का रूप ले लिया है। ये मतदाता राजनीति की दुनिया को जाति के चश्मे से ही देखते हैं। जो सूचनाएं उन तक पहुंचती हैं और जिन पर वे भरोसा करते हैं, जिन नेताओं की बात उन्होंने मानी और पसंद किया तथा जिन उम्मीदवारों का उन्होंने समर्थन किया, यह सब उस जातिगत चश्मे का ही नतीजा है। उसे पता चलेगा कि मंडल युग के बाद राजद ने मुस्लिम-यादव गठजोड़ का ऐसा अजय गठबंधन बना लिया था जिसके सामने सभी परास्त थे। इस चुनाव में भी वह गठबंधन धड़ल्ले से काम किया। अगर लोकनीति-सीएसडीएस की शोध को माने तो इस बार भी 83 फ़ीसदी यादव और 76 फ़ीसदी मुसलमान महागठ्बंदन के पक्ष में लामबंद हुए। लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने भी राजद से मुकाबले के लिए नया सामाजिक गठबंधन तैयार कर लिया था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को अगड़ी जातियों का50 से 55 प्रतिशत समर्थन और और कुर्मी समाज का 81 फ़ीसदी समर्थन मिला। इसके अलावा उसे अति पिछड़ी जातियों का भी 58 फ़ीसदी समर्थन मिला जिसने यादव-मुस्लिम गठजोड़ की बराबरी कर दी। दलित वोट बंट गया। यानि जातीय समीकरण के चलते किसी एक को बढ़त नहीं मिली।
अब वह तीसरे फैक्टर यानी चुनावी हवा की तरफ मुड़ेगा। इस मान्यता के विपरीत कि बिहार चुनाव में मुद्दे मायने नहीं रखते, उसे पता चलेगा कि राजनीति के नायक मुद्दों की अहमियत भली-भांति समझते थे। दलगत और जातिगत निष्ठा तो बस शुरुआती बिंदु हैं। अगर कोई अपने पक्ष में हवा पैदा करने में कामयाब रहता है तो वह दूसरी जातियों और दलों के वोट भी हासिल कर सकता है। यही कारण था कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव को पदच्युत करने में कामयाब हुए। उसे यह भी पता चलेगा कि इस बार तेजस्वी यादव ने भी वही करने की पूरी कोशिश की। वे नीतीश शासन के खिलाफ लोगों में बढ़ते रोष को भुनाना चाहते थे। उन्हें रोष जगाने में सफलता तो मिली, लेकिन यह गुस्से की हद तक नहीं पंहुचा। नीतीश राज से नाराजगी के बावजूद बिहार के अनेक लोगों को राजद सरकार का वह अंतिम कार्यकाल याद आने लगा जो अंधेर नगरी चौपट राजा का नमूना था। "जंगल राज" की जगह वह ज्यादा यादव राज प्रतीत होता था। बेरोजगारी पर फोकस करना एक रणनीति थी क्योंकि यह मुद्दा बिहार के युवा मतदाताओं को प्रभावित करता है।थोड़े से छात्रों और बेरोजगार युवाओं ने जाति से ऊपर उठकर तेजस्वी का समर्थन भी किया, लेकिन तेजस्वी एक भरोसेमंद विकल्प देने में नाकाम रहे। एक झटके में दस लाख सरकारी नौकरियां देने का उनका वादा एक जुमले जैसा लगा होगा। इतिहासकार इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि भरोसेमंद विकल्प और एजेंडा न दे पाना विपक्ष की मुख्य विफलता थी।
उसे यह भी पता चलेगा कि एनडीए को उसके मुद्दों के कारण आंशिक सफलता ही मिली। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को राजनीतिक मुद्दा बनाने का उसका हास्यास्पद प्रयास फ्लॉप हो गया। अनुच्छेद 370 को बेमानी करने अथवा भारत-चीन सीमा पर बिहार के सैनिकों के शहीद होने जैसे मुद्दे बेचने के प्रयासों का भी वही हश्र हुआ। राम मंदिर मुद्दा शायद कुछ इलाकों में हिंदू मतदाताओं को संगठित करने में कामयाब रहा हो। महिलाओं से जुड़ा भी एक मुद्दा था जिसकी चर्चा तो कम हुई लेकिन उसका असर बहुत अधिक दिखा। नीतीश सरकार की शराबबंदी नीति ने सरकार को महिलाओं में लोकप्रिय बना दिया और उनमे सत्तारूढ़ गठबंधन को 3 से 5 फीसद की बढ़त मिली। इस चुनाव में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा वोट डाले। यानि कि इस कम चर्चित मुद्दे ने विजेता की झोली में लगभग दो फीसदी अतिरिक्त वोट डाले। यह उस चुनाव में बेहद महत्वपूर्ण है जहां एनडीए और महागठबंधन के बीच अंतर सिर्फ 0.1 फीसदी से भी कम था।
अंततः वह इस नतीजे पर पहुंचेगा कि किसी स्पष्ट हवा के अभाव में इस चुनाव में चौथे फैक्टर ने काम किया, और वह था- दांवपेंच, पैसा, मीडिया और चुनाव की मशीन। वह पूछेगा कि चुनाव के पहले फेज में महागठबंधन के पक्ष में चली हवा दूसरे और तीसरे फेज तक पलट क्यों गयी? चुनाव मैनेजमेंट के मामले में भारतीय जनता पार्टी को काफी बढ़त हासिल थी। उसने विपक्ष की तुलना में कई गुना अधिक खर्च किया। बिहार का मीडिया ऊंची जाति के पक्ष में बोलने के लिए कुख्यात है, जिसका फायदा सत्तारूढ़ पार्टी को मिला।क्या दूसरे और तीसरे फेज में कुछ विशेष खेल हुआ? क्या वोट की गिनती में कुछ सीटों के हेरफेर के आरोप में दम है? शायद तब तक भावी इतिहासकार के पास इन सवालों के उत्तर हों।
लेकिन लोकतंत्र का वह भावी इतिहासकार जब यह लिखेगा कि किस तरह इस चुनाव के जरिये बिहार की जनता ने अपने भविष्य को आकार दिया, तो उसे यह दिखेगा की चुनावी समर में जनता जनार्दन कितनी मजबूर थी, कि इतने बड़े समर में जनता के सामने वास्तविक विकल्प नहीं थे, कि यह समर अपने समय के वास्तविक मुद्दों से कटा हुआ था। लोकतंत्र उसे एक अजीब खिलौने जैसा लग सकता है।
(लेखक स्वराज अभियान के संयोजक और चुनाव विश्वेषक हैं। लेख उनके निजी विचार है)