जाति जनगणना ::गिनती का सवाल नहीं, हिस्सेदारी की माँग है
भारत के सामाजिक और राजनीतिक विमर्श में जातीय जनगणना एक बार फिर केंद्र में आ गई है। केंद्र सरकार द्वारा इसके समर्थन की घोषणा के बाद से पूरे देश में बहस का नया दौर शुरू हुआ है। विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस ने इसे जनता की आवाज़ की जीत बताया, लेकिन साथ ही सरकार से इसकी समय-सीमा को स्पष्ट करने की माँग भी की। राहुल गांधी जैसे नेताओं ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में निर्णायक क़दम बताया, वहीं कई राज्यों में पहले से ही जातीय सर्वेक्षण पूरे कर लिए गए हैं। बिहार और कर्नाटक की रिपोर्टों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जातिगत आँकड़े सिर्फ़ पहचान का मसला नहीं, बल्कि हिस्सेदारी और संसाधनों के न्यायसंगत वितरण की बुनियाद हैं। ऐसे में यह सवाल और तीखा हो गया है कि क्या केंद्र केवल बयान दे रहा है या वास्तविक क्रियान्वयन के लिए भी प्रतिबद्ध है? चुनावी मौसम के बीच इस मुद्दे का उभार राजनीति और सामाजिक परिवर्तन — दोनों के लिए एक कसौटी बन चुका है। देश जिस चौराहे पर खड़ा है, वहाँ यह तय होना ज़रूरी है कि नीति-निर्माण कल्पनाओं से नहीं, आँकड़ों की सच्चाई से होगा।
जातीय जनगणना को लेकर जो मांगें आज उठ रही हैं, उनका इतिहास आज़ादी से पहले के दौर में जाकर रुकता है। 1931 में ब्रिटिश सरकार ने अंतिम बार जातियों की विस्तृत गणना की थी। उसके बाद स्वतंत्र भारत ने यह रास्ता छोड़ दिया, यह मानते हुए कि जातियों की चर्चा से समाज के भीतर विभाजन गहरा हो सकता है। लेकिन व्यवहार में ऐसा कोई क्षरण नहीं हुआ — जाति भारतीय समाज के व्यवहार, अवसर और पहचान का एक सघन हिस्सा बनी रही। 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना भले ही एक साहसिक प्रयास था, पर उसका डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया। वजह बताई गई कि आँकड़े सुसंगत नहीं हैं, मगर आलोचकों का मत था कि राजनीतिक असहजता और संभावित नीतिगत दबावों से बचने के लिए सरकार ने जानबूझकर इसे रोके रखा। यही वह ऐतिहासिक चुप्पी है जिसे आज फिर से चुनौती दी जा रही है — इस बार हाशिये के समुदायों की संगठित माँगों के साथ, जो केवल गिनती में नहीं बल्कि भागीदारी में यक़ीन रखते हैं।
जातीय जनगणना के समर्थन में उठने वाली आवाज़ें सिर्फ़ भावनात्मक नहीं, ठोस नीतिगत ज़रूरतों पर टिकी हुई हैं। एक ऐसे देश में जहाँ सामाजिक असमानता की जड़ें गहरी हैं, वहाँ बिना आँकड़ों के कोई भी कल्याणकारी नीति केवल अटकल बनकर रह जाती है। बिहार सरकार के सर्वे ने यह दिखाया कि पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 63 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन इनकी भागीदारी शिक्षा, नौकरियों और स्वास्थ्य सेवाओं में बहुत कम है। कर्नाटक की रिपोर्ट में भी यही विरोधाभास सामने आया — कुछ जातियाँ अब भी ज़बरदस्त पिछड़ेपन में हैं, जिन्हें अब तक आरक्षण या योजनाओं से वास्तविक लाभ नहीं मिला। यदि सरकारें सामाजिक न्याय की बात करती हैं, तो उन्हें उस असमानता को पहचानना ही होगा जो दशकों से योजनाओं की परछाई से भी दूर रही। जातीय आंकड़े केवल चुनावी संतुलन नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक न्याय का आधार बन सकते हैं — बशर्ते उनका इस्तेमाल ईमानदारी से हो।
हालांकि, इस प्रक्रिया के विरोध में आने वाली चिंताओं को भी गंभीरता से लेना ज़रूरी है। कुछ विशेषज्ञों और सामाजिक चिंतकों का मानना है कि जातियों की गिनती करना दरअसल जातिवाद को और मज़बूत करना है, जो हमारे समाज में पहले ही एक गहरी समस्या है। जब सरकारें आधिकारिक तौर पर जातिगत पहचान दर्ज करती हैं, तो आशंका रहती है कि यही आँकड़े बाद में राजनीतिक ध्रुवीकरण का ज़रिया बन जाएँ। यह भी एक व्यावहारिक सत्य है कि इतने बड़े पैमाने पर डेटा एकत्र करने में तकनीकी त्रुटियाँ, राजनीतिक हस्तक्षेप और वर्गीकृत सूचनाओं की गलत व्याख्या की संभावना हमेशा बनी रहती है। सरकार अब तक इसी संतुलन को साधने की कोशिश कर रही है — न पूरी तरह इंकार, न ही खुला समर्थन। यह व्यवहारिक सावधानी है या रणनीतिक चुप्पी, यह कहना कठिन है। किंतु स्पष्ट है कि जातीय जनगणना को लेकर समाज में एक तीव्र इच्छा और सत्ता में एक स्पष्ट हिचक दोनों साथ-साथ मौजूद हैं।
इस पूरी बहस का एक संवैधानिक पहलू भी है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 15(4) और 340 जैसे प्रावधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष उपायों की अनुमति देते हैं, पर ये उपाय बिना विश्वसनीय आंकड़ों के कितने प्रभावी होंगे? राज्यों द्वारा कराई गई जातीय गणनाएँ सराहनीय पहल हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता सीमित है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर की नीतियों के लिए केंद्र की भूमिका निर्णायक होती है। सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार यह स्पष्ट कर चुका है कि आरक्षण और कल्याण योजनाओं में बदलाव के लिए मात्र अनुमान नहीं, बल्कि प्रमाणिक और संख्यात्मक डेटा आवश्यक है। ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि केंद्र इस प्रक्रिया को एक चुनावी जुमले की तरह नहीं, बल्कि संवैधानिक ज़िम्मेदारी के रूप में देखे। अन्यथा सामाजिक न्याय केवल भाषणों में सीमित रह जाएगा, और उन वर्गों की वास्तविक ज़रूरतें फिर से अनदेखी रह जाएँगी जिनके नाम पर नीतियाँ बनाई जाती रही हैं।
जब एक लोकतंत्र में बड़ी आबादी अपने अस्तित्व को मान्यता दिलाने के लिए आँकड़ों का सहारा लेने पर मजबूर हो, तो यह एक साधारण प्रक्रिया नहीं, बल्कि गहरे तंत्रगत संकट का संकेत है। जातीय जनगणना से जुड़ी बहस हमें यह सोचने को बाध्य करती है कि क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ हर व्यक्ति को केवल उसकी ‘पहचान’ के आधार पर आँका जाएगा, या हम उस दिशा में बढ़ रहे हैं जहाँ पहचान का प्रयोग उसे बराबरी का हक दिलाने के लिए किया जाएगा। आँकड़े अपने आप में न दोषी हैं, न मुक्तिदाता — उनका उपयोग तय करता है कि वे समाज में विभाजन लाएँगे या समावेशिता। यदि सरकारें और नीति-निर्माता इस प्रक्रिया को राजनीतिक लाभ की जगह सामाजिक सुधार की दृष्टि से देखें, तो जातीय जनगणना एक ऐतिहासिक बदलाव की भूमिका निभा सकती है। यह निर्णय अब केवल सत्ता का नहीं, समाज की संवेदना का भी इम्तिहान है।
( यह स्वतंत्र स्तंभकार वीरेंद्र कुमार के निजी विचार हैं।)