नए बिल के जरिए दिल्ली के एलजी को संपूर्ण शक्ति देना संविधान का मजाक
अनिश्चितता और अस्थिरता की स्थिति के बीच विपक्ष को बनाए रखना मौजूदा सरकार की मंशा रही है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार को जितना झटका लगा है, उतना किसी अन्य सरकार को नहीं लगा है। 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनने के बाद से ही सीएम अरविंद केंजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार आमने-साने रहे हैं। उन्हें अराजक कहा गया। कोई ऐसा व्यक्ति जो संविधान में विश्वास नहीं रखता है और वो नौकरशाही का सम्मान नहीं करता है। लगातार अपराध की शिकायत कर रहा है। भाजपा ने उन्हें झूठा और अक्षम करार दिया है। लेकिन मोदी और अमित शाह से मतभेद के बीच सीएम केजरीवाल बेहद लोकप्रिय हुए हैं और उन्होंने एक बार नहीं बल्कि दो बार, अपमानजनक तरीके से दोनों को हराते हुए दिल्ली में दो बार सरकार बनाई है।
लेकिन, साल 2020 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद से केजरीवाल ने केंद्र सरकार को 'युद्ध विराम' जैसा घोषित कर दिया है। यह भी मान लिया गया था कि केजरीवाल को आखिरकार एहसास हो गया है कि पीएम मोदी बहुत शक्तिशाली हैं और वे बहुत कमजोर हैं,जिनसे उनकी लड़ाई चल रही है। अपने तीसरे कार्यकाल में उन्हें लग रहा है कि सरकार सुचारू रूप से चल रही है, लेकिन यह तब तक मिथक साबित होता है जब तक कि मोदी सरकार कोई बड़ा धाबा बोलने का फैसला न कर ले। अब केंद्र सरकार ने निचले सदन में एक विधेयक पेश किया है जो यदि कानून बन जाता है तो केजरीवाल केवल और केवल एक मुख्यमंत्री होंगे, जिसमें कोई वास्तविक शक्ति नहीं होगी। इस विधेयक के जरिए ये सुनिश्चित होगा कि जितनी भी शक्तियां हैं वो उपराज्यपाल (एलजी) में निहित होंगा और वो सरकार होगी। इसके बाद अब इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि केजरीवाल और उनकी पार्टी ने भाजपा और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
साल 2015 में जब, नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र में एक साल हो चुके थे। उस वक्त हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल ने अभूतपूर्व जनादेश के साथ जीता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद पीएम मोदी के लिए ये पहली हार थी जिसे उन्होंने चखा था। 2014 में संसदीय चुनावों के अलावा, मोदी ने भाजपा के लिए चार राज्य जीते थे, जिसमें हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं। उनकी बाजीगरी राष्ट्रीय राजधानी में नहीं चल पाई और मोदी लहर को केजरीवाल ने रोकते हुए महज तीन सीट से संतोष करा दिया। तमाम दांवपेच के बावजूद भी भाजपा 70 में से केवल 3 सीटें ही जीत सकीं। केजरीवाल भाग्यशाली साबित हुए। वहीं, कांग्रेस अपने अस्तित्व के संकट का सामना कर रही थी और आप को राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर देखा गया। जिसके बाद पीएम मोदी को एहसास हुआ था कि यदि नए मध्यम वर्गीय लोगों चहेते को रोका गया तो ये उनकी अपनी लोकप्रियता के लिए बड़ा खतरा पैदा कर सकता है।
दो महीने के भीतर ही मोदी सरकार ने इस पर एक्शन ले लिया। विधानसभा शुरू होने के बाद ही एंटी क्रप्शन ब्यूरो, जो 1993 के बाद से दिल्ली सरकार के साथ थी। केंद्र सरकार ने जबरन उस पर कब्जा कर लिया। केंद्र ने दिल्ली ब्यूरोक्रेसी को नियंत्रित करने वाले सर्विस डिपार्टमेंट को भी अपने कब्जे में कर लिया। मुख्यमंत्री केजरीवाल के ऑफिस पर छापा मारा गया। उनके प्रमुख सचिव को गिरफ्तार कर लिया गया। केंद्र द्वारा ये कदम इतना वीभत्स था कि दर्जन भर से अधिक विधायकों को भर्त्सना के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। नियमित रूप से आम आदमी पार्टी को आयकर विभाग से नोटिस भेजे गए और एक आदेश पारित कर दिया गया कि आप को दीन दयाल उपाध्याय मार्ग स्थित अपना पार्टी कार्यालय खाली करना चाहिए। और अंत में दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले ये कहा उपराज्यपाल दिल्ली कैबिनेट की सहायता और सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। ये ताबूत में कील ठोकने जैसा हुआ। अब केजरीवाल वस्तुतः बिना किसी पावर के सत्ता में बैठने वाले अपंग मुख्यमंत्री जैसे थे।
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने सीएम केजरीवाल के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने अपनी मूल संवैधानिक स्थिति को बहाल किया और कहा कि कानून-व्यवस्था और पुलिस-भूमि को छोड़कर, एलजी के पास अन्य मामलों में कोई शक्ति नहीं है। इसके बाद सीएम केजरीवाल के हाथ में फिर से शक्ति आ गई। मोदी-शाह के लाख जतन के बाद भी केजरीवाल ने बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज की। इस बार फिर भाजपा को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। भाजपा सिर्फ 8 सीटें जीत पाई। अब केजरीवाल फिर से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्होंने गुजरात और गोवा में स्थानीय निकाय चुनावों में कुछ सीटें जीती हैं। मुझे नहीं पता कि आम आदमी पार्टी (आप) की इस नई सफलता से वर्तमान कानून का कोई लेना-देना है या नहीं। लेकिन यह विधेयक न केवल कानून के नजरिए से गलत है, बल्कि इसकी भावना लोकतंत्र विरोधी भी है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली का प्रशासनिक ढांचा बहुत जटिल है। लेकिन, यदि इसे विधानसभा और चुनी हुई सरकार को सौंप दिया गया है, हर पांच साल में चुनाव होते हैं, तो मुख्यमंत्री को एक नाम मात्र का सीएम नहीं बनाया जा सकता है और उपराज्यपाल खुद को नहीं मान सकते हैं कि वो मालिक/बॉस हैं। कोई ये समझ सकता है कि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है। लेकिन ये भी समझना होगा कि चंडीगढ़ की तरह ये केंद्र शासित प्रदेश भी नहीं है। यह दिल्ली के लोगों की सामूहिक बुद्धि का अपमान होगा जो अपनी सरकार, मुख्यमंत्री और विधायक के रूप में चुनते हैं। मुख्यमंत्री सरकार का चेहरा है और उन्हें लोगों का सामना करना होता है, एक एलजी को नहीं।
यहां तक कि जब संविधान सभा में राज्यपाल की भूमिका पर चर्चा की गई थी तो ये तय किया गया था कि उन्हें चुना नहीं जा सकता। क्योंकि, उन्हें राज्य में सत्ता का वैकल्पिक केंद्र नहीं होना चाहिए। उन्हें सिर्फ राज्य प्रशासन के सुचारू कामकाज के लिए एक शीर्षक के तौर पर होना चाहिए। लेफ्टिनेंट गवर्नर अलग नहीं हैं। हालांकि, उन्हें अधिक शक्ति दी गई है। इसलिए, यदि एलजी को मुख्यमंत्री के ऊपर वरीयता दी जाती है तो ये दिल्ली में संविधान को अपने माथे पर रखने की एक कवायद होगी। यह भाजपा के राजनीतिक हित की सेवा कर सकता है लेकिन ये संविधान का मजाक होगा।
(लेखक कॉलमिस्ट और सत्यहिंदी डॉट कॉम के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)