जनादेश ’24 / नजरिया: प्रांतीय राजनीति की चुनौती
नरेंद्र मोदी और उनकी प्रचार मंडली ने सरकार या भाजपा की जगह ‘मोदी की गारंटी’ और ‘चार सौ पार’ जैसे नारों से अपने समर्थकों को उत्साहित करने की कोशिश की है। नए नारे या जुमले गढ़ने में प्रधानमंत्री मोदी का जवाब नहीं है। पहले भी कई बार ऐसे नारे गढ़े गए थे लेकिन उनके पूरा न होने या चुनाव हारने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को कहना पड़ा था कि ये तो उनके कार्यकर्ताओं को उत्साहित और प्रेरित करने के लिए था।
आज यह सवाल सबसे मौजूं है कि भाजपा को चार सौ सीटें आएंगी कहां से। जो कोई राज्यवार हिसाब लगाता है, वह सारी उदारता के बावजूद 272 पार नहीं कर पाता क्योंकि उत्तर और पश्चिम के राज्यों में भाजपा ने पिछली बार लगभग सारी सीटें जीती थीं और दक्षिण तथा पूरब में बहुत कम। इस बार दक्षिण और पूरब में भी सीटें बढ़ने की जगह घटती या कड़ी चुनौती में उलझी लग रही हैं और उत्तर तथा पश्चिम में भी। वहां भाजपा के लिए सीटें बढ़ाने की गुंजाइश तो नहीं ही बची है। भाजपा को अपने सौ से ज्यादा सांसदों का टिकट काटना पड़ा है और जगह-जगह बगावत है। कई मंत्री बेटिकट रह गए हैं। दर्जन भर मुद्दों की रस्साकशी के बाद मोदी खुद मुद्दा बन गए हैं, सारा चुनाव उन्होंने अपने ऊपर ओढ़ लिया है। भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में नरेंद्र मोदी का जिक्र सबसे ज्यादा 65 बार आया है।
काफी लंबे अनिश्चय के बाद अचानक ‘इंडिया’ गठबंधन जब उभर कर आया, तो मोदी या भाजपा की सारी कवायद उसे बदनाम करने, तोड़ने और एक ‘शेर और जाने कितने गीदड़ों’ की लड़ाई बताने की रही। जल्दी ही यह समझ आया कि लीडर के दावे और सारे प्रचार के बावजूद विविधता भरे इस देश में गठबंधन के बगैर काम नहीं चलने वाला है, तो लाज-लिहाज छोड़कर जाने किस-किस दल या नेता के साथ गठबंधन किया गया, एनडीए को पुनर्जीवित करने का नाटक किया गया। कई राज्यों में स्थानीय स्तर पर मजबूत क्षेत्रीय दल के खिलाफ साम-दाम-दंड-भेद अपनाने के बावजूद भाजपा की बात नहीं बनी। इसके बावजूद यही लगता है कि भाजपा के रणनीतिकारों को यह बात समझ नहीं आई है कि नब्बे के दशक के बाद इस देश की राजनीति एकदम बदल गई है।
भले इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में कांग्रेस को 413 सीटें मिली थीं, लेकिन उसे अपना कार्यकाल पूरा करना भारी पड़ गया। जीत के इसी गुमान में कांग्रेस ने अपने चंडीगढ़ अधिवेशन में ‘एकला चलो’ का नारा दिया था जबकि वी.पी. सिंह ने अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ अलग किस्म की राजनीति की और भाजपा तथा कम्युनिस्ट पार्टियों को मजबूर कर दिया कि वे उनकी सरकार को समर्थन दें। दुर्भाग्य से, यह प्रयोग लंबा नहीं चला लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों को गठबंधन राजनीति और क्षेत्रीय दलों की उभरती ताकत का अंदाजा हो गया।
पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने क्षेत्रीय दलों को गलत ढंग से पटाकर अल्पमत की सरकार चलाई, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने अनुच्छेद 370 हटाने, राम मंदिर का निर्माण और कॉमन सिविल कोड जैसे अपने बुनियादी मसलों को ताक पर रखकर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) बनाया और राज किया। तब यह नई सियासी बात थी। देश में क्षेत्रीय दलों की राजनीति निरंतर प्रबल होती गई।
नेहरू के समय की कांग्रेस के बारे में माना जाता था कि वह सामाजिक स्तर पर एक ‘रेनबो कोलिशन’ बनाकर चलती थी। प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी इसे नेहरू मॉडल कहते हैं, हालांकि तब भी पूर्वोत्तर, तमिलनाडु और पंजाब में भिन्न स्वर सुनाई देने लगे थे लेकिन कुल मिलाकर कांग्रेस सारे समाज को साथ रखती थी। धीरे-धीरे वह ब्राह्मण, दलित और मुसलमान की पार्टी बनने लगी और मध्य जातियां समाजवादी आंदोलन के प्रभाव में उससे छिटकती गईं। कालांतर में उन्होंने अपनी मजबूत पार्टियां बनाईं। आज उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, हरियाणा में लोकदल, पंजाब में अकाली दल, कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस-पीडीपी, ओडिशा में बीजद, पश्चिम बंगाल में टीएमसी और दक्षिण की तो पूरी राजनीति ही क्षेत्रीय दलों के कब्जे में आ चुकी है।
शुरू में कांग्रेस और कथित राष्ट्रीय पार्टियां इन आंदोलनों/दलों को देश की एकता के लिए खतरा बताती थीं, इनके नेताओं को जातिवादी-परिवारवादी बताती रहीं, लेकिन वी.पी. सिंह वाले प्रयोग ने यह ठप्पा हटा दिया। देश में पहली बार एक मुसलमान मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृह मंत्री ही नहीं बनाया गया, बल्कि अंग्रेजी न जानने वाले देवीलाल उप-प्रधानमंत्री बने। फिर तो रक्षा मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, रेलवे मंत्रालय समेत सारे महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर क्षेत्रीय सूरमा आए और उन्होंने मजे से बढ़िया शासन किया। ‘कुशासन और जंगल राज’ के लिए बदनाम लालू यादव का रेल मंत्रालय प्रबंधन हार्वर्ड के मैनेजमेंट कोर्स में शामिल हुआ। कई फैसले (खासकर क्षेत्रीय दल से जुड़े मंत्रियों को लेकर) दिल्ली की जगह चेन्नै, लखनऊ और पटना में होने लगे। देश टूटने का खतरा और देशद्रोही वाला तमगा जाने कहां बिला गया। करुणानिधि, जयललिता और प्रकाश सिंह बादल जैसे लोग भले दिल्ली नहीं आए, लेकिन दिल्ली की राजनीति में उनकी धमक बढ़ी।
क्षेत्रीय दलों की धमक बढ़ने के पीछे संसद में उनकी उपस्थिति का बढ़ना मुख्य कारण था। उनके मजबूत समर्थकों ने जोखिम लेकर भी उनके उम्मीदवारों को संसद में भेजा। जाहिर तौर पर ऐसा राज्य में मजबूती आने के बाद हुआ। एक समय तो ऐसा आया कि चुनाव आयोग की परिभाषा से राष्ट्रीय मानी जाने वाली सारी पार्टियों के सांसदों की कुल संख्या क्षेत्रीय दलों के सांसदों से कम होने लगी। वोट प्रतिशत में वे कब का पचास फीसदी पार कर गई थीं।
इधर दो चुनाव से और पुलवामा की घटना के बाद मोदी तथा भाजपा के आसमान पर पहुंचने के बाद यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों के सांसदों की संख्या फिर आधे से ऊपर हो गई (हालांकि क्षेत्रीय दलों की हिस्सेदारी भी 42-43 फीसदी है) लेकिन मत प्रतिशत में पिछली लोकसभा में भी क्षेत्रीय दल ऊपर थे। इस बार मोदी और मीडिया के सारे शोर-शराबे के बावजूद अगर पहली नजर में और राज्यवार गिनती में भाजपा का चार सौ या 370 सीटों के आसपास पहुंच पाना असंभव-सा लगता है तो उसका कारण क्षेत्रीय दलों की निरंतर बनी मजबूती है। बात इतनी भर नहीं है। क्षेत्रीय दल समाज और राजनीति की जो जरूरत पूरी करते हैं, उसे पूरा करना किसी राष्ट्रीय दल के वश की बात नहीं है। हिंदू, अगड़ा, पुरुष, शहरी और कॉरपोरेट हितों का रक्षक होना अगर भाजपा का मुख्य चरित्र बन गया है तो पिछड़ा, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब और ग्रामीण जनता ही क्षेत्रीय दलों का आधार है। भाजपा जैसे-जैसे ताकतवर हुई है, ज्यादा बेशर्मी से मुसलमानों से आंख फेरती जा रही है।
भाजपा ने हल्के एहसास के साथ बीजद, अन्नाद्रमुक, भारत देशम पार्टी और अकाली दल के साथ गठबंधन बनाने का असफल प्रयास किया। तमिलनाडु में उसका घुसना मुश्किल हो गया तो आंध्र में उसे चंद्रबाबू नायडु का सहारा लेना पड़ा है जिन्हें केंद्रीय एजेंसियों के माध्यम से पचहत्तर दिन जेल में रखा गया था। जेल से नेताओं को तोड़ने का प्रयास तो पूरे देश में हो रहा है, लेकिन झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी ने हवा बदल दी। अदालत ने अगर चुनावी बॉन्ड पर भाजपा के भ्रष्टाचार को उजागर किया तो इन गिरफ्तारियों ने हवा बदली है। पहला लक्षण तो मुरझाए ‘इंडिया’ गठबंधन में जान आ जाना है। कांग्रेस भी अब ‘एकला चलो’ का नारा छोड़कर काफी आगे आ चुकी है। अब तो वह देश भर में जातिवार जनगणना और आरक्षण की सीमा पचास फीसदी से भी ऊपर करने की मांग कर रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं। विचार निजी हैं)