भावनाओं पर भारी हकीकत
साल 2018 देश के लिए एक अहम संदेश लेकर आ रहा है। यह संदेश देश का आम आदमी राजनैतिक दलों से लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे संगठनों तक सभी को दे रहा है कि वह भावनाओं के बजाय जीवन की कड़वी हकीकतों को ज्यादा प्राथमिकता दे रहा है। यही वजह है कि वह अपनी आर्थिक बेहतरी के लिए होने वाले फैसलों को सहजता से स्वीकार करने को तैयार है। हाल के गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने यही संदेश भी दिया लेकिन हमारे राजनैतिक दल और अन्य संगठन इसे नजरअंदाज करने की कोशिश करते दिख रहे हैं जो लंबे समय में उनके लिए फायदे के बजाय नुकसानदेह साबित हो सकता है।
एक ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में दो समुदायों के युवक और युवती की शादी का है। युवक और युवती दोनों वयस्क हैं और दोनों परिवार शादी के लिए सहमत हैं। लेकिन शादी के आयोजन में जिस तरह एक राजनैतिक दल से जुड़े लोगों ने दखलअंदाजी की कोशिश की, वह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में स्वीकार्य नहीं है। देश में किसी भी महिला और पुरुष को अपनी मर्जी से किसी भी जाति-धर्म के व्यक्ति से शादी करने का संवैधानिक अधिकार है। उनके इस अधिकार का हनन गैर-कानूनी है। फिर, धर्म के नाम पर ऐसा करना तो देश और समाज के लिए घातक है। यह भी अहम है कि चुनाव जीतकर सरकार बनाने वाले राजनैतिक दलों का जिम्मा हर नागरिक के अधिकार और संविधान की रक्षा करना है। ऐसे में राजनैतिक दलों का दायित्व और बढ़ जाता है कि उनके किसी भी कदम से संवैधानिक मूल्यों को ठेस तो नहीं पहुंच रही है।
इस वजह से गाजियाबाद की घटना और अधिक चिंताजनक हो जाती है क्योंकि इस मामले में सत्ताधारी दल के जिला अध्यक्ष पर ही आरोप लगे हैं। अगर इसमें दो केंद्रीय मंत्रियों के ताजा बयानों को जोड़ लें तो बेहद डरावनी तस्वीर खड़ी हो जाती है। कर्नाटक में केंद्रीय राज्यमंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा कि हम तो संविधान बदलने के लिए ही यहां आए हैं। इसी तरह महाराष्ट्र के चंद्रपुर में एक अस्पताल के कार्यक्रम में गैर-हाजिर डॉक्टरों के लिए केंद्रीय राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने कहा कि वे नक्सलों के साथ चले जाएं और तब हम उन्हें गोलियों से भून डालेंगे।
असल में हमारे राजनैतिक दल अक्सर जनता से मिलने वाले सबक को भूल जाते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि जब लोग आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हों तो भावनाओं का राजनैतिक दोहन थोड़ा आसान होता है। लेकिन जब अस्तित्व का संकट हो तो भावनाएं नहीं, आर्थिक मसले अहम हो जाते हैं।
आने वाला साल 2018 इसी दिशा में संकेत दे रहा है। सरकारों को लोगों का जीवन-स्तर बेहतर करने पर ध्यान लगाना होगा। देश के किसान बड़े संकट से जूझ रहे हैं। कई राज्यों ने उनके कर्ज माफ करने के फैसले किए हैं लेकिन यह स्थायी हल नहीं है। जब तक उनकी आय बढ़ाने के कदम नहीं उठाए जाते हैं तब तक खास फर्क नहीं पड़ेगा। गुजरात विधानसभा चुनावों में यह मुद्दा सत्ताधारी पार्टी भाजपा को ग्रामीण क्षेत्रों में कम सीटें मिलने की प्रमुख वजह रहा है। वहां चुनाव प्रचार में भावनात्मक मुद्दे जोरशोर से उठाए गए लेकिन नतीजे उनसे कम ही प्रभावित हुए।
यही बात दूसरे क्षेत्रों पर भी लागू होती है। मसलन, सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद रोजगार के अवसरों में जरूरी इजाफा नहीं हो रहा है। ऐसे में बेरोजगार लोगों की खड़ी हो रही फौज बड़ी चुनौती बन सकती है। उन्हें किसी राष्ट्रीय या धार्मिक गौरव के झुनझुने से लंबे समय तक नहीं बहलाया जा सकता है। सरकार को नीतिगत स्तर पर कड़ी मशक्कत करनी होगी ताकि रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकें। यह बात किसी एक राजनैतिक दल पर लागू नहीं होती है और न ही केवल केंद्र सरकार पर लागू होती है बल्कि देश के सभी राजनैतिक दलों और राज्यों की सरकारों को इसी दिशा में सोचना होगा।
लोकसभा चुनावों के पहले आठ राज्यों के चुनाव भी इसी पैमाने पर लड़े जाएंगे। जो पार्टी लोगों की आर्थिक बेहतरी का ज्यादा भरोसा दिलाएगी, लोग उसी की ओर झुकेंगे। जो दिखावा और भावनाओं के जरिए सत्ता हासिल करने की कोशिश करेगी, उसे लोगों की स्वीकार्यता मिलेगी, कहना मुश्किल है।
हमने इस अंक में इन दोनों मुद्दों को छूने की कोशिश की है। नए साल को विभिन्न क्षेत्रों में 'संभावनाओं का साल' मानते हुए बातें की गई हैं तो धर्म और कट्टरता पर देश के प्रमुख समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और धार्मिक मसलों की समझ रखने वाले लोगों के जरिए धर्म के विभिन्न पक्षों को पाठकों के सामने रखने की कोशिश की गई है।
बहरहाल, देश के हर आमो-खास को अपने कार्यकलाप से यह साबित करना चाहिए कि वह देश को ऐसे मजबूत राष्ट्र के रूप में खड़ा करने में योगदान देगा, जो संवैधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की रक्षा करे, जहां हर किसी को बेहतर जीवन जीने का हक और आजादी हो, न कि वह किसी दबाव में सहमा हुआ जीने को मजबूर हो।