नया नागरिकता कानून भाजपा की बहुसंख्यकवादी सोच का नतीजा, क्या दुष्परिणामों पर भी सोचा
एक प्राचीन और गौरवशाली देश एक ऐसी नीति चुनता है जो आव्रजन विरोधी है। देश के मुख्य भू-भाग का बहुसंख्य उस पार्टी के पीछे मजबूती से खड़ा दिखाई देता है जो दूसरे देशों से आने वाले लोगों के खिलाफ जोरदार अभियान चलाती रही है। लेकिन समस्या छोटे राज्यों में है। वे इस नीति का कड़ा विरोध कर रहे हैं। विरोध इतना तीखा है कि यह अलगाववाद की हद तक विभाजन पैदा करता है।
ब्रेक्जिट चुनाव में भी यही कहानी दिखाई दी। इसके नतीजे इसी सप्ताह सामने आए। यूनाइटेड किंगडम चार देशों इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड का संघ है। इनमें से शुरू के तीन देश एक द्वीप जिसे ग्रेट ब्रिटेन कहते हैं, में स्थित हैं। आखिरी देश यानी उत्तरी आयरलैंड एक अलग द्वीप पर स्थित है जो भौगोलिक दृष्टि से रिपब्लिक ऑफ आयरलैंड से जुड़ा है।
2016 के जनमत संग्रह में, इंग्लैंड और वेल्स ने ब्रेक्जिट के पक्ष में वोट दिया। इसका अर्थ है कि वे यूरोपियन यूनियन को छोड़ना चाहते थे। उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड ने ब्रेक्जिट के खिलाफ वोट दिया। यही नतीजे आम चुनाव में दिखाई दिए। बहुसंख्यकवादी यूरोप विरोधी और आव्रजन विरोधी रुख रखने वाली बोरिस जॉनसन की कंजर्वेटिव पार्टी ने इंग्लैंड और वेल्स मंे भारी जीत हासिल की। लेकिन स्कॉटलैंड ने एक स्थानीय पार्टी को जिताया जिसने यूनाइटेड किंगडम को छोड़ने के लिए जनमत संग्रह करवाने की तुरंत मांग उठा दी।
उत्तरी आयरलैंड ने इतिहास में पहली बार अलगाववादी रुख अपनाने वाली पार्टी सिन फेन को लॉयलिस्ट से ज्यादा सीटों पर जिताया। सेन फिन चाहती है कि रिपब्लिक ऑफ आयरलैंड से नजदीकी का संबंध रहे और संभव हो तो उससे जुड़ जाए। रिपब्लिक ऑफ आयरलैंड यूरोपियन यूनियन का हिस्सा है। ब्रेक्जिट का विचार ऐसी किसी भी संभावना के विपरीत है।
स्कॉटलैंड लंबे अरसे से महसूस करता है कि उसका आर्थिक जुड़ाव इंग्लैंड के साथ है, वहां के लोगों ने बहुत पहले उस पर कब्जा किया था। इसी तरह उत्तरी आयरलैंड में कैथॉलिक्स और अनेक प्रोटेस्टेंट यूनाइटेड किंगडम के बजाय रिपब्लिक ऑफ आयरलैंड के साथ सांस्कृतिक और भाषाई जुड़ाव के अलावा कारोबारी रिश्तों के चलते ज्यादा निटकता महसूस करते हैं। ये पहलू कोई नया नहीं हैं, जनमत संग्रह और आम चुनाव से पहले भी सभी इनके बारे में जानते थे।
इस तरह की चेतावनियां थीं कि यूरोप को लेकर बड़े बदलाव की नीति से दूसरी समस्याएं उभर सकती हैं। लेकिन इंग्लैंड के लोगों की बहुसंख्यकवादी सोच और आव्रजन विरोधी भावना इतनी तीव्र थी कि यह चुनाव के दूसरे मुद्दों पर हावी हो गई।
एक पल के लिए इंग्लैड के लोग विजय का संतोष महसूस कर सकते हैं। अब हम अपने यहां की मौजूदा स्थिति पर गौर करते हैं। भारत एक आव्रजन नीति लागू करने जा रहा है जबकि इस नीति की जटिलता पर अच्छी तरीके से विचार नहीं किया गया इसलिए इसे बहुसंख्य भारतीय और सांसद समझ ही नहीं पाए हैं।
इस मुद्दे पर विभिन्न पक्षों और विचारधारों के लोग अलग-अलग तरीके से निष्कर्ष निकाल रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी का कहना है कि यह नीति अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर मुस्लिमों को शरण देने के लिए है लेकिन इसका लाभ सिर्फ उन्हें मिलेगा जो 2015 से पहला भारत आए। जबकि अपनी नागरिकता साबित न कर पाने वाले मुस्लिमों को डिटेंशन सेंटरों में बंद किया जा सकता है। अगर वे अपने मूल देश की अपनी नागरिकता साबित नहीं करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं दे पाए तो उन्हें अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान वापस नहीं भेजा जा सकेगा। उन्हें भारत में हमेशा के लिए डिटेंशन सेंटरों में डाल दिया जाएगा जैसा असम में हुआ है।
भाजपा सरकार नए नागरिकता कानून को विदेश में उत्पीड़न झेल रहे वहां के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के लिए अनिवार्य बता रही है। लेकिन जिन राज्यों खासकर पूर्वोत्तर में यह बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि वहां हिंदू सहित किसी भी धर्म के बाहरी लोगों से समस्या है। यही वजह है कि वहां इसका विरोध हो रहा है। जबकि देश के बाकी राज्यों के लोग उनकी वास्तविक समस्या समझने के बजाय इसे सांप्रदायिक मुद्दा मान रहे हैं। उन्हें लगता है कि विरोध जमीन स्तर से नहीं बल्कि वहां की विरोधी सरकारों द्वारा भड़काया जा रहा है।
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) को भाजपा की असम इकाई ने भी समर्थन दिया था और लागू कराने की कोशिश की थी, अब वह भी इसे खारिज कर रही है। उसका कहना है कि एनआरसी की सूची के बाहर रह गए 19 लाख लोगों को एक और मौका दिया जाना चाहिए। इसकी वजह है कि सूची से बाहर रह गए लोगों में अधिकांश हिंदू हैं जिनके पास दस्तावेज नहीं हैं। एनआरसी की सूची के नतीजे भाजपा के लिए भी चौंकाने वाले थे।
नए नागरिकता कानून के दायरे में इन लोगों को शामिल किया गया है। लेकिन मुस्लिमों को खासतौर पर बाहर रखा गया है। अगर कोई गैर मुस्लिम दस्तावेज पेश नहीं कर पाता है तो उसे नए नागरिकता कानून के तहत शरण दे दी जाएगी जबकि बच्चों और बुजुर्गों सहित मुस्लिमों को डिटेंशन सेंटर में बंद कर दिया जाएगा। लेकिन पूर्वोत्तर ऐसा समाधान नहीं चाहता है जो भाजपा ने दिया है। इससे स्पष्ट है कि इस कानून को पूरी तरह समझा नहीं गया है।
यह खुद की सोच से उत्पन्न समस्या से अलग कुछ भी नही है। यह सच है कि एनआरसी की जड़ें राजीव गांधी और असम सरकार के बीच हुए एक समझौते में निहित हैं। लेकिन ताजा समस्या पूरी तरह भाजपा की बहुसंख्यकवादी और मुस्लिम विरोधी नीति से पैदा हुई है। जैसा यूके में हुआ। इस नीति के साइड इफेक्ट के बारे में अभी किसी ने सोचा नहीं है। इसके नतीजे अवांछनीय होंगे।
( लेखक एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं)