आम चुनाव ’24: क्या बदलाव होने वाला है?
पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को तीन बार चुनकर संसद में भेजने वाले ऐतिहासिक लोकसभा क्षेत्र फूलपुर में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के लिए उमड़ी भीड़ का अनियंत्रित उत्साह अगर कोई संकेत है, तो कहा जा सकता है कि यह चुनाव बड़े बदलाव का संकेत है। उत्साह इतना जबरदस्त था कि दोनों नेता अपना भाषण तक नहीं दे पाए। तो क्या प्रोफेसर जवीद आलम का वह निम्न वर्ग (सबाल्टर्न)- जिसे वे ‘लोकतंत्र का तलबगार’ कहते हैं- लोकतंत्र को बचाने के लिए उठकर खड़ा हो गया है?
इस उत्साह को देखकर समाजवादी पार्टी के नेता कहने लगे हैं कि उनका पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का फार्मूला चल निकला है। कांग्रेस के लोग कहने लगे हैं कि उनके घोषणापत्र में दिए पांच न्याय लोगों को पसंद आ गए हैं।
पांचवें चरण के मतदान की 49 सीटों में उत्तर प्रदेश की 14 सीटें थीं। इनमें कुछ अवध और कुछ बुंदेलखंड की थीं। इनमें से कम से कम पांच सीटों का लाभ तो कंजूसी से किए गए आकलन में भी इंडिया गठबंधन को दिख रहा था, लेकिन फूलपुर और प्रयागराज की सभाएं और पूरब की सीटों पर सबाल्टर्न तबके के भीतर संविधान और लोकतंत्र के लिए बढ़ता संकल्प अगर कोई संकेत है, तो मान लेना चाहिए कि इस चुनाव में हिंदुत्व और कॉरपोरेट का एजेंडा पछाड़ खा रहा है। आश्चर्य है कि समाज के जिस तबके ने संविधान को ठीक से पढ़ा नहीं है आज वह अपने जीवन में उसकी सार्थकता और उससे बाबासाहब आंबेडकर के भावुक लगाव को महसूस करने लगा है। यही कारण है कि गोंडा संसदीय सीट पर- जहां राजा साहब यानी कीर्तिवर्धन सिंह का अपनी पुरानी रियाया पर बहुत दबाव था कि मोदी का कमल खिलाएं- वकील राम बहाल संविधान और आरक्षण को बचाने के लिए साइकिल दौड़ा रहे थे। बस्ती सीट पर प्रधानी का चुनाव हारने वाले दुखरन भी यही चिंता जताते हैं कि संविधान खत्म हो सकता है, हालांकि वे मायावती का मोह छोड़ नहीं पाते।
इस चुनाव में अगर सवर्णों को अपने धर्म और वर्चस्व की चिंता है, तो अवर्ण समाज के दिल को संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा छू रहा है- विशेषकर पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समाज को। उसे लग रहा है कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा फिर से शासन में आई तो वह सब छिन जाएगा जो संविधान ने उन्हें दिया है क्योंकि चार सौ सीटों के दावे के साथ भाजपा के कई सांसद संविधान बदलने का इरादा जता चुके हैं। यही वजह है कि फैजाबाद लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी के आठ बार के विधायक अवधेश प्रसाद भाजपा के दो बार के सांसद लल्लू सिंह से मजबूती से लड़ रहे हैं। लल्लू सिंह ने भी एक बयान में संविधान बदलने का इरादा जताया था। रोचक तथ्य यह है कि फैजाबाद सामान्य सीट है और अखिलेश यादव ने वहां से अनुसूचित जाति के प्रत्याशी को खड़ा किया है, जो हिंदुत्व के लिए गंभीर चुनौती बना हुआ है। अयोध्या के नाम पर प्रतीकात्मक राजनीति खड़ी करने और बड़ी राजनीतिक पूंजी का वहां निवेश करने के बावजूद भाजपा के साथ अगर धोखा हो जाए, तो यह एक आश्चर्यजनक घटना होगी। 22 जनवरी 2024 को पूरी दुनिया में तूफान उठाकर जिस राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया वह लोगों के अवचेतन में अवश्य है, लेकिन प्रकट रूप से चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया क्योंकि बुलडोजर-जनित विध्वंस से भरे कथित विकास के माहौल में अयोध्यावादियों के आगे अयोध्यावासी डटकर खड़े हो गए हैं। उन्हें याद है कि कैसे भगवान राम के नाम पर उनके घरों को ध्वस्त किया गया, उनकी रोजी-रोटी छीनी गई और मुआवजा भी नहीं मिला; कैसे अयोध्या में बाहरी लोगों ने जमीनें खरीद लीं और स्थानीय लोग बाहर हो गए। दुकानदार तो मेले में लुट गए, वहीं तमाशबीन दुकानें लगा कर बैठ गए।
अयोध्या के रामसुमेर पांडेय इस नाराजगी को मानते हैं। वे कहते हैं कि अगर अवधेश प्रसाद को अनुसूचित जाति के लोगों ने ठीक तरह से वोट दिया होगा, तो वे जीत भी सकते हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सूर्यकांत पांडेय कहते हैं कि बाकी विधानसभा सीटों से होने वाले नुकसान को अयोध्या की सीट से भाजपा पूरा कर लेगी। उनके साथ अवंतिका रेस्तरां में बैठे विमल त्रिपाठी कहते हैं कि आखिर में तो जय श्रीराम हो ही जाता है। सूर्यकांत को आश्चर्य है कि इंडिया गठबंधन के पास ऐसा कौन सा क्रांतिकारी एजेंडा है कि मोदी उसे माओवादी कह रहे हैं। उनकी पार्टी सीपीआइ ने भी यहां से एक प्रत्याशी उतारा है, जो पूर्व सांसद मित्रसेन यादव के पुत्र हैं। माना जा रहा है कि गठबंधन के कुछ वोट काटकर सीपीआइ भाजपा को ही लाभ पहुंचाएगी।
इसके उलट, इंडिया गठबंधन, विशेषकर समाजवादी पार्टी ने गैर-यादव पिछड़ी जातियों को बड़े पैमाने पर टिकट देकर उनकी पीठ पर टिकी हिंदुत्व की राजनीति के आत्मविश्वास को हिला दिया है। पश्चिमी से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक पाल, पटेल, कुर्मी, मौर्य, शाक्य, निषाद बिरादरी के उम्मीदवारों की कतार जहां जाति जनगणना, आरक्षण, संविधान और रोजगार, एमएसपी, मनरेगा की मजदूरी जैसे मुद्दों को उठा रही है, वहीं प्रतीकों की राजनीति की हवा भी निकाल रही है। इसी तबके की ताकत से भाजपा शहरी पार्टी से गांवों की पार्टी और सवर्णों की पार्टी से हिंदू समाज के सभी तबकों की पार्टी बनी थी।
फर्रूखाबाद में नवल किशोर शाक्य, अलीगढ़ में बिजेंद्र सिंह (जाट), मुजफ्फरनगर में हरेंद्र मलिक, फैजाबाद में अवधेश प्रसाद, गोंडा में श्रेया वर्मा, आंबेडकर नगर में लालजी वर्मा, सुल्तानपुर में राम भुआल निषाद, प्रतापगढ़ में एस.के. पटेल, जौनपुर में बाबू सिंह कुशवाहा, गोरखपुर में काजल निषाद, मिर्जापुर में रमेश बिंद की इंडिया गठबंधन (सपा) की उम्मीदवारी से यह बात साफ होती है कि नब्बे के दशक में तेज हुआ हिंदू बनाम हिंदू का संघर्ष एक बार फिर खड़ा हो गया है। उदार हिंदू अब कट्टर हिंदुओं के आगे लाचार होकर खड़ा नहीं रहना चाहता बल्कि वह अपनी राजनीति मजबूत करना चाहता है। इस लड़ाई में अल्पसंख्यक समाज उसके साथ है।
इससे उस तबके में एक उम्मीद बनी है जो भावनात्मक एजेंडे से ऊब चुका है। बस्ती जिले के हसीनाबाद बाजार में साइबर कैफे के संचालक रंकज वर्मा और उनके साथी इस बात पर हंसने लगते हैं कि मोदी जी सदा सच बोलते हैं। जब वे कहते हैं कि इस बार अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बने तो अमुक सड़क रामप्रसाद चौधरी बनवा देंगे, तो लगता है कि उन लोगों को कहीं इंडिया के जीत की उम्मीद है। चौधरी यहां से सपा के प्रत्याशी हैं। उनकी बिरादरी पूरी ताकत से सपा को जिताने में लगी है।
सवाल यह है कि क्या इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों का चयन और उसके नेताओं के सभाओं में उमड़ती भीड़ यह तय करती है कि इस बार भारतीय लोकतंत्र का सत्ता परिवर्तन आसानी से हो जाएगा? आचार्य जेबी कृपलानी ने कहा था कि लोकतंत्र वह व्यवस्था है जहां हम सिरों को फोड़ते नहीं, बल्कि सिरों को गिनते हैं जबकि डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र वह व्यवस्था है जहां पर हम बिना किसी खून-खराबे के सत्ता परिवर्तन कर लेते हैं। यह मामला अब इतना सीधा नहीं रह गया है। चुनावी लोकतंत्र के भीतर से उभरने वाले अधिनायकवाद के हथकंडों को डैनियल जिबलाट और स्टीवेन लेविट्स्की ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ में स्पष्ट तरीके से बताया है।
इसलिए अगर 2024 के परिणाम बदलाव वाले होते हैं, तो क्या मौजूदा शासक वैसे ही आसानी से सत्ता छोड़ देंगे जैसे इंदिरा गांधी ने छोड़ दी थी? यह सवाल भारत के नागरिक समाज को मथ रहा है। उनकी बैठकें बेंगलूरू और दिल्ली में हो रही हैं। जनता के भीतर भी यह सवाल तैर रहा है कि क्या चुनाव प्रणाली पूरी तरह से निष्पक्ष रह गई है? क्या चुनाव आयोग पूरी पारदर्शिता और तटस्थता बरत रहा है? चुनाव आयोग को लेकर अदालतों में भी आशंकाएं जताई गई हैं, लेकिन आयोग न तो त्वरित और कठोर कार्रवाई कर रहा है, न ही प्रतीकात्मक। आयोग ने राहुल गांधी को तो आचार संहिता के उल्लंघन का नोटिस थमा दिया, लेकिन मोदी के बजाय उनकी पार्टी को नोटिस जारी किया।
भाजपा इस बात से आश्वस्त है कि न तो विपक्ष में एकजुटता है और न ही उसके प्रधानमंत्री के नाम पर सहमति। यही आश्वस्ति विपक्ष के प्रति सत्ता को 1977 में भी थी। तब कई नेता जेल में थे और जनता पार्टी का गठन जेल में ही हुआ था। चुनाव निशान भी लोकदल का ले लिया गया था। प्रधानमंत्री के नाम पर सहमति की कमी के नाते ही जनता पार्टी का प्रयोग विफल हुआ था, लेकिन उसने आरंभिक सफलता पाई। उसने इंदिरा गांधी जैसी अजेय मानी जाने वाली नेता को हराया। उसके बाद बीते 47 साल में देश और लोकतंत्र की संस्थाएं बदल गई हैं। मीडिया का विकराल विकास लोकतंत्र का ही आहार कर रहा है। संस्थाएं कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट गई हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों अवध तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में हैं। विचार निजी हैं)