संपादक की कलम से: पीएम मोदी की कश्मीर वार्ता- बल प्रयोग से बेहतर है बातचीत
मुझे सीधा-सादा कहिए, लेकिन मैं ये अवश्य कहूंगा कि कश्मीर पर हमारी केंद्र सरकार ने जो आश्चर्यजनक बाजीगरी की है, उसके बारे में सोचने के लिए जुझ रहा हूं। कश्मीर की मुख्यधारा के अधिकांश नेताओं को महीनों तक बंद रखने के बाद केंद्र इस सप्ताह दिल्ली में उच्च स्तरीय वार्ता की मेजबानी कर रहा है। कोई गलती न करें- परामर्श के लिए केंद्र के कदम का स्वागत है। इस मामले में ये लंबे समय से बाकी था। किसी भी सच्चे लोकतंत्र में राज्य की नीति के रूप में बलपूर्वक पैमाने का कोई स्थान नहीं होना चाहिए और ये बात हमारे शासकों ने जितनी जल्दी इस सिद्धांत को समझा लिया उतना ही बेहतर होगा। लेकिन, अब भी चौंकाने वाली बात ये है कि जिस तेजी से केंद्र सरकार ने हृदय परिवर्तन किया है। उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे कश्मीरी नेताओं को बदनाम करने के लिए महीनों और साल बीतने के बाद सरकार अशांत क्षेत्र में नया रास्ता निकालने के लिए उन्हीं 'खलनायक' नेताओं तक पहुंची है।
केंद्र की रणनीति में बदलाव उस अविश्वास को खत्म करने के लिए अपर्याप्त हो सकता है जो विशेष रूप से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से- जिसके बाद जम्मू-कश्मीर ने अपना विशेष दर्जा खो दिया और राज्य केंद्र शासित प्रदेश में परिवर्तित हो गया। इसके बाद करीब 200 मुख्यधारा के नेताओं को लॉक-अप में बंद कर दिया गया। जमीन पर सेना के जरिए शांति बनाए रखने में कामयाब रहा, जबकि एक नौकरशाह केवल दिल्ली से आदेश लेती रही, प्रशासन चलाता रहा। पहले आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत और फिर कठोर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत नेताओं को जेल में डाल दिया गया। ये कानून पहली बार शेख अब्दुल्ला द्वारा 1970 के दशक में अपने कार्यकाल के दौरान लकड़ी तस्करों को टारगेट करने के लिए बनाया गया था। लोगों को उस तरीके से कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला जिस तरह से उन्होंने शासन किया था। इन नेताओं को बाद में रिहा कर दिया गया। इनका बहिष्कार जारी रहा और जब महबूबा मुफ्ती जिन्होंने अनुच्छेद 370 हटाए जाने से महीनों पहले भाजपा के साथ सरकार में थीं। राज्य की मुख्यमंत्री थी। लेकिन, रिहाई के बाद जब महबूबा ने अपने पासपोर्ट को रिन्यू करने का अनुरोध किया तो उनके इस अपील को खारीज कर दिया गया। आश्चर्यजनक रूप से उन्हें राज्य के लिए खतरा माना गया।
गुरुवार को होने वाली बैठक इस बात का प्रमाण है कि राजनीतिक प्रतिद्वंदी, चाहे उनमें कितनी भी गहरी असहमति क्यों न हों, लेकिन उन्हें घृणा के साथ दूर नहीं किया जा सकता है। जेल से बाहर आने के बाद कई कश्मीरी नेता एक छतरी के नीचे एकत्रित हुए हैं जो पीपुल्स अलायंस फॉर गुप्कर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) के रूप में है। लेकिन, इस गठन को भी "गुपकार गैंग" के रूप में बाहरी हाथ बताया गया था और ग्रुप की चेन में सबसे टॉप पर किसी ने अनजाने में उन्हें देश को नीचा दिखाने के लिए विदेशी शक्तियों के कठपुतली के रूप में कहा।
हालांकि, उत्साह की वजह से खुशी और छाती पीटने का कारण कश्मीर में 5 अगस्त 2019 के बाद की घटनाओं ने केंद्र के बेडौल रवैये की ओर इंगित किया है। रिकॉर्ड के लिए चुपके से "सर्जिकल स्ट्राइक" और अनुच्छेद-370 को निरस्त करना उल्लेखनीय रहा। वास्तव में, कश्मीरियों को अपनी राय रखने की अनुमति नहीं थी। जब उन्होंने आवाज निकालने की कोशिश की तो उन्हें तुरंत खामोश कर दिया गया, इन क्षेत्रों में कड़े सुरक्षा प्रतिबंध और इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन क्या वाकई में शांति कायम हुई है? कश्मीरी आवाजों को पर्याप्त रूप से सुने जाने के अभाव में न्यायपीठ बाहर हो गई है।
इसके अलावे भीतरी संकेत सुकून देने वाले नहीं हैं। संसद में प्रचंड बहुमत के बल पर भाजपा ने मुख्यधारा के कश्मीरी दलों के नेताओं को अवैध रूप से इस क्षेत्र में अपने पसंद का एक राजनीतिक संगठन थोपने की कोशिश की। गठित अपनी पार्टी संगठन से कश्मीरी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद की गई थी। लेकिन, कश्मीरियों ने इसमें अपना विश्वास नहीं जताया। पिछले साल नवंबर में जिला विकास परिषद के चुनावों में पार्टी ने 280 में से सिर्फ 12 सीटों पर जीत हासिल कर पाई। वहीं, इसके विपरीत मुख्यधारा की पार्टियों के गठबंधन पीएजीडी ने भाजपा के 75 के मुकाबले 110 सीटें जीतीं।
निर्वाचित डीडीसी की अपनी समस्याएं हैं। निर्वाचित सदस्यों का कहना है कि उन्हें शक्तिशाली नौकरशाही के साथ महिमामंडित 'सरपंचों' के रूप में कम कर दिया गया है, उनकी परवाह बहुत कम है। लेकिन इससे बड़ा संदेश ये है कि केंद्र की बनाई गई नीति को वास्तव में उन लोगों के बीच आवाज नहीं मिली है जो सबसे ज्यादा मायने रखते हैं और वो हैं कश्मीरी। अच्छा है कि अब जो मायने रखते हैं, उन लोगों को एक अहसास हो गया है और उन नेताओं के साथ बातचीत की मेजबानी करने का केंद्र का कदम इसका सबूत है, जिन्हें उन लोगों ने बदनाम करने की कोशिश की थी। इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि जो बड़ा संदेश दिया जा सकता है, वो यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति में जबरदस्ती की तुलना में परामर्श बेहतर है।
केंद्र के लिए उन लोगों तक पहुंचना कितना भी शर्मनाक क्यों न हो, जिन्हें उन्होंने पहली बार में खारिज कर दिया था। हालांकि देर से ही सही- पहुंचने के लिए इनका तहे दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। इससे असहमति को दबाने के आरोप को झेलने वाली सरकार को भी फायदा होगा। भीमा कोरेगांव से लेकर दिल्ली दंगों तक- हाल के दिनों में आक्रामक सरकार के उन लोगों के साथ असमान रूप से सख्त होने की घटनाएं हुई हैं, जो इससे भिन्न हैं। कोई निश्चित नहीं है कि कश्मीर वार्ता से वास्तव में क्या निकलेगा। लेकिन यदि बदली हुई रणनीति केंद्र द्वारा अपने रवैये में बदलाव की शुरुआत का प्रतीक है तो ये शुरूआत बुरा नहीं है।