प्रथम दृष्टि: विवाद के बहाने
अमेजन प्राइम वीडियो पर दिखाए जा रहे वेब सीरीज तांडव पर उठा विवाद बदस्तूर जारी है। कभी-कभी यह समझना मुश्किल हो जाता है कि ज्यादा नाटकीय परदे पर दिखाए जाने वाले दृश्य होते हैं या उन पर असल जिंदगी में होने वाला घमासान। इस शो के निर्माताओं पर आरोप है कि उन्होंने धार्मिक भावनाएं आहत की हैं। सूचना-प्रसारण मंत्रालय से इसकी शिकायत की जा चुकी है, अनेक राज्यों में मामले दर्ज हो चुके हैं, उत्तर प्रदेश की पुलिस त्वरित कार्रवाई करते हुए मुंबई पहुंच चुकी है। निर्माता-निर्देशक माफीनामा जारी कर चुके हैं और खबरों के अनुसार इसके दो विवादित दृश्यों को हटा भी दिया गया है, लेकिन इस विवाद का अभी पटाक्षेप नहीं हुआ है। व्यक्तिगत रूप से मुझे तांडव घिसीपिटी कहानी और बोझिल पटकथा के कारण ऊबाऊ लगी, वैसी फिल्मों की तरह जिसे बॉलीवुड ने दस साल पहले बनाना बंद कर दिया था। इस सीरीज को पूरा देखना मेरे लिए दुष्कर था, लेकिन जाहिर है, इसके ऐसे दर्शक भी होंगे, जिन्होंने हर एपिसोड को बारीकी से देखा होगा और आहत होकर पुलिस स्टेशन पहुंचे होंगे।
ऐसे विवादों का अंजाम जो भी हो, सबसे ज्यादा फायदा अंततः ऐसी फिल्म या वेब शो बनाने वालों का ही होता है। कभी-कभी तो लगता है बॉक्स ऑफिस पर सेक्स या सलमान खान से ज्यादा विवाद ही बिकता रहा है। संजय लीला भंसाली की 2018 में प्रदर्शित फिल्म पद्मावत को विवादों की दोहरी मार झेलनी पड़ी थी। एक ओर, करनी सेना जैसे संगठन प्रदर्शन कर रहे थे, तो दूसरी ओर कई नारी संगठन भंसाली द्वारा जौहर जैसी मध्यकालीन प्रथा को कथित रूप से परदे पर महिमामंडित करने से खफा थीं। इन सब विवादों का अंतिम परिणाम क्या आया? पद्मावत उस वर्ष सबसे ज्यादा व्यवसाय करने वाली फिल्मों में एक बनी। ऐसा नहीं था कि विवादों के बगैर पद्मावत फ्लॉप हो जाती, लेकिन इस वजह से फिल्म ने उम्मीद से बेहतर व्यवसाय जरूर किया। ओवर-द-टॉप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर दिखाए गए सीरीज के दर्शकों के आंकड़े उपलब्ध नहीं होते, वरना पता चलता कि हर एफआइआर के दर्ज होने के बाद तांडव के कितने दर्शक बढ़े?
दरअसल, फिल्मवालों के लिए विवाद वैसे ही अच्छे हैं, जैसे दाग डिटर्जेंट बनाने वालों के लिए। डिजिटल प्लेटफार्म पर तांडव की स्ट्रीमिंग के बाद इसे फिल्म समीक्षकों की कटु आलोचना का सामना करना पड़ा था। आरोप भी लगते रहे हैं कि विवाद जानबूझकर बढ़ाए जाते हैं, ताकि व्यावसायिक फायदा मिले। आज के दौर में, जब एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का स्वरूप व्यापक हो गया है, बड़े बजट के फिल्म या सीरीज के प्रचार-प्रसार के लिए पीआर एजेंसियां कोई हथकंडा अपनाने से नहीं चूकतीं। प्यार और जंग की तरह, फिल्म के प्रमोशन में सब कुछ जायज समझा जाता है। पिछले वर्ष फिल्म छपाक की रिलीज के दौरान जब दीपिका पादुकोण प्रदर्शनकारी जेएनयू छात्रों के बीच पहुंचीं, तो उसे भी पब्लिसिटी स्टंट करार दिया गया।
ऐसे विवाद हालांकि न बॉलीवुड के लिए नए हैं और न ही ओटीटी प्लेटफार्म के लिए। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जब विवाद और विरोध के बीच फिल्मों के टाइटल बदलने पड़े, गानों के शब्द हटाने पड़े, यहां तक कि एक महानगर के पुराने नाम का उपयोग करने पर निर्माता को न सिर्फ स्पष्टीकरण देना पड़ा बल्कि घर के बाहर गुस्साई भीड़ को भी झेलना पड़ा। हिंदी फिल्म के इतिहास में बनी चंद बेहतरीन फिल्मों में एक, देव आनंद की गाइड पर तो धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप पचास वर्ष पहले ही लगा था। विविधता से परिपूर्ण इस देश में लोगों की संवेदनाएं और भावनाएं अलग-अलग कारणों से आहत होती रही हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे विवाद ज्यादा ही हो रहे हैं।
तांडव पर हो रहे बवाल ने फिर ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाए जा रहे कार्यक्रमों के नियमन की मांग को हवा दी है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते और न ही उन्हें रखना चाहिए। दरअसल, आज के दौर में डिजिटल कंटेंट का सेंसरशिप या किसी अन्य तरह के रेगुलेशन की बजाय फिल्मकारों को उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए कि वे क्या दिखाएं और क्या नहीं। यह बात और है कि पिछले कुछ वर्षों में कई वेब सीरीज में सेक्स सहित अनेक ऐसे दृश्य दिखाए गए जो कथानक की मांग के कारण नहीं, सिर्फ सस्ती सनसनी पैदा करने के लिए फिल्माए गए थे।
सेंसरशिप इस समस्या का समाधान नहीं है, और न होना चाहिए। लेकिन, इस माध्यम से जुड़े हर फिल्मकार को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना ही चाहिए। किसी रचनात्मक कार्य पर किसी तरह की बंदिश नहीं होनी चाहिए। उन्हें स्वयं इस बात का इल्म होना चाहिए कि उनकी वजह से किसी की भावनाएं आहत न हो। ओटीटी एक नया और अद्भुत प्लेटफार्म है जो फिल्मकारों को बहुमुखी प्रतिभा दिखने के असीमित अवसर प्रदान करता है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि इस अधिकार का व्यावसायिक, सियासी या किसी और कारण से क्रिएटिव लाइसेंस के नाम पर दुरुपयोग न हो।