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12 September 2016

एएमयू के स्वरूप को लेकर तकरार

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विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक समूहों के भिन्न मत इसे चर्चा का ज्वलंत विषय बनाये हुए है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस समेत अन्य कई राजनैतिक दलों का रूख स्पष्ट है कि एएमयू अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित संस्थान है और सरकार द्वारा पूर्व में ही इसके अल्पसंख्यक स्वरूप  की पुष्टि हेतु संशोधन किये जा चुके हैं। इसके ठीक विपरीत, केंद्र सरकार एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप को सिरे से खारिज कर रही है। इसकी ओर से मिल रहे संकेत विश्वविद्याालय प्रशासन और अल्पसंख्यक समुदाय दोनों के लिए चिंता के विषय बने हुए हैं। अपनी उत्पत्ति, इतिहास और अल्पसंख्यक मान्यता को लेकर यह विश्वविद्यालय पूर्व में भी विवादों का केंद्र रहा है।

‘मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज' नाम से 8 जनवरी 1877 को अलीगढ़ में स्थापित यह शिक्षण संस्थान वर्ष 1884 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध रहा। दिसम्बर 1920 में इस संस्थान को पदोन्नत कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में तब्दील किया गया। इस मुस्लिम विश्वविद्याालय की शुरूआती खाका तैयार करने का श्रेय सर सैयद अहमद खां को जाता है। पश्चिमी और अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित अहमद खां का इस विश्वविद्याालय की परिकलपना को मूल रूप प्रदान करने में अहम योगदान रहा है।

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भारतीय मुसलमानों के बीच बेहतर शिक्षा के प्रसार हेतु उनके द्वारा 26 दिसम्बर 1870 को बनारस में एक कमेटी गठित की गई। अन्य समुदायों की तुलना में सरकारी विद्याालयों व कालेजों में मुस्लिम समुदाय के छात्रों की संख्या अत्यधिक कम होना, सरकारी नौकरियों में इस समुदाय के लोगों की भागीदारी नाम मात्र होना तथा आधुनिक शिक्षा को लेकर इनके बीच जागरूकता न के बराबर होना आदि कमेटी की चिंता के मुख्य बिंदु रहे। ‘इंडियन लेजीसलेटिव काउंसिल‘ द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय विधेयक-1920 पारित हो जाने के बाद इसे 14 सितम्बर 1920 को गवर्नर जनरल की भी सहमति प्राप्त हो गई जिसके बाद से संस्थान को भारत सरकार की ओर से एक लाख रूपये प्रतिवर्ष की अनुदान राशि भी प्राप्त होने लगी।

आजादी के बाद वर्ष 1951 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्याालय विधेयक में संशोधन किया गया। इसी दौरान बनारस हिन्दू विश्वविद्याालय विधेयक में भी संशोधन लाया गया था। संशोधन के पश्चात विश्वविद्यालय की अल्पसंख्यक स्वरूप को समाप्त कर इसे अन्य समुदाय के लोगों के लिए भी उपलब्ध कराया गया। वर्ष 1965 में इसकी स्वायत्ता को चुनौती देने वाला एक अध्यादेश जो 1965 का संशोधन विधेयक भी बना, का मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा काफी विरोध किया गया जिसके बाद से विश्वविद्याालय की स्वायत्ता तथा अल्पसंख्यक दर्जे की मांग और तेज हो गई। साल 1968 में भारत के सर्वोच्य न्यायालय ने मुस्लिम समुदाय के इस दावे को खारिज कर दिया कि एएमयू मुसलमानों द्वारा स्थापित संस्थान है और वे उसका संचालन कर सकते हैं।

सर्वोच्य न्यायालय के अनुसार एएमयू की स्थापना भारत सरकार के 1920 के एक विधेयक के तहत की गई है और इस वजह से यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का भी पुरजोर विरोध हुआ। विषय पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की मजबूत राय रही है कि विश्वविद्यालय की स्थापना एक समुदाय विशेष द्वारा की गई है और इसके संचालन का संवैधानिक अधिकार उन्हें प्राप्त है। नये संशोधन के साथ वर्ष 1972 का विधेयक भी एएमयू की स्वायत्ता की वकालत नहीं करता है। लम्बे समय से एएमयू की स्वायत्ता की मांग कर रहे लोगों को इंदिरा गांधी के शासन काल में पारित ‘एएमयू विधेयक-1981‘ से काफी राहत मिली। इसकी स्वयत्ता को लेकर लंबे संधर्ष में उत्तर प्रदेश मुस्लिम मजलिस के संस्थापक डॉ. अब्दुल जलील फरीदी का भी अहम योगदान रहा है। 1981 के  विधेयक के तहत स्पष्ट किया गया कि एएमयू भारतीय मुसलमानों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान है तथा संविधान के अनुच्छेद-30 के तहत इसे अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त होगा।

विशेषाधिकार के तहत अल्पसंख्यकों को 50 फीसदी आरक्षण का प्रावधान भी किया गया। नये विधेयक से भारतीय मुस्लिमों को विशेष शैक्षणिक व सांस्कृतिक प्रसार का अधिकार प्राप्त हुआ। महत्वपूर्ण है कि भारतीय संसद द्वारा सिर्फ इसी संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त रहा है। वर्ष 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक बेंच द्वारा एएमयू की स्वायत्ता को चुनौती देने वाले आदेश ने दोबारा इस विवाद को जन्म देने का काम किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस वर्ष की गई टिप्पणी तथा केन्द्र सरकार द्वारा इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय व अल्पसंख्यक दोनों तरह का दर्जा प्रदान किये जाने की स्थिति पर उठाये गये सवाल से अल्पसंख्यकों के बीच असंतोष व्याप्त है।

वर्तमान में मामला सर्वोच्य न्यायालय में लंबित है। ऐसे में प्रश्न स्वभाविक है कि इंदिरा सरकार द्वारा पारित विधेयक को न्यायालय में घसीटकर वर्तमान सरकार किस मंशा को परिलक्षित कर रही है? मसले पर यूपीए सरकार द्वारा सर्वोच्य न्यायालय को दिये हलफनामे को वर्तमान सरकार रद्द कर एमएमयू की स्वयत्ता समाप्त करने के प्रयास में है। दलगत राजनीति की मंशावश विधायिका द्वारा बनाये गये कानूनों को न्यायालय में चुनौती प्रदान करना संवैधानिक व्यवस्था समेत राष्‍ट्रीय विकास के लिए भी प्रतिकूल साबित हो सकता है। ऐसे प्रयासों से न सिर्फ संवैधानिक कानूनों को चुनौती मिलती है बल्कि संसदीय मर्यादा को भी ठेस पहुंचती है।

अल्पसंख्यक तथा दलितों का पिछड़ापन हमेशा से सामाजिक चिंता का विषय रहा है। इस दिशा में आजादी के पश्चात गठित सच्चर व रंगनाथ कमेटी की रिपोर्ट अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति को उजागर करता है। रिपोर्ट में स्पष्ट है कि प्रत्येक मापदंडों पर मुसलमानों की स्थिति दलितों से ज्यादा खराब है। ऐसी सूरत में अटॉर्नी जनरल मुकुल रहतोगी द्वारा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र् में अल्पसंख्यक संस्थानों को मंजूरी न दिये जाने की वकालत उनुच्देद 30-1, जो धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान स्थापित और संचालन करने का अधिकार प्रदान करता है, का हनन करने का प्रयास भी है। वर्ष 1977 तथा 1979 के आम चुनावों के दौरान जनता पार्टी एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिये जाने के मुद्दे को अपनी चुनावी घोषणा बना चुकी है।

आश्चर्य है कि मुद्दे पर अब भाजपा अपना सुर बदल चुकी है। दलगत राजनीति और सामयिक विवाद की वजह से किसी वर्ग विशेष की भावना को ठेस पहुंचाना धर्मनिरपेक्ष भारत की अस्मिता पर भी प्रहार है। ‘सबका साथ और सबका विकास‘ के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है कि समाज के सभी वर्गों को समावेशी विकास का लाभ प्राप्त हो। चूकि सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों की भारी संख्या पहले से अविकसित और लाचार है, यह सुनिश्चित करना सरकार का कर्तव्य बनता है कि वे ज्यादती के शिकार न हो जायें। पिछले वर्ष जारी सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना में पिछड़े व अल्पसंख्यकों की दयनीय स्थिति सबके सामने आ चुकी है।

अन्य समुदायों की तुलना में मुसलमानों की साक्षरता दर सबसे कम है। राष्‍ट्रीय साक्षरता दर तथा इस वर्ग की साक्षरता दर में पहले से ही बड़ी खाई बनी हुई है। ऐसे में इनसे जुड़े शैक्षणिक अधिकारों के साथ छेड़-छाड़ देश के सामाजिक सद्भाव को कमजोर कर सकता है।

लेखक जदयू के प्रधान महासचिव व राष्‍ट्रीय प्रवक्ता हैं।

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OUTLOOK 12 September, 2016
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