दिल्ली दंगा: क्या दिल्ली पुलिस जांच को 'विशेष दिशा’ में ले जाना चाहती है?
चीन के विपरीत भारत की सफल सरकारें बहुत कुछ पाने में सफल रही हैं। 1984 के दिल्ली दंगों और गुजरात में 2002 की सामूहिक जनसंहार से लेकर समय-समय पर सांप्रदायिक हिंसा और जम्मू-कश्मीर में दमन जैसी घटनाएं हुई। फिर भी भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा कटघरे में खड़ा होने से बच गया क्योंकि इसे लोकतंत्र के रूप में देखा जाता है।
इन सभी मामलों में यह माना गया कि कानून का शासन और एक स्वतंत्र न्यायपालिका यह सुनिश्चित करेगी कि न्याय कायम है।यह धारणा एक बार फिर सवालों के घेरे में है, क्योंकि इसी साल 23 से 25 फरवरी के बीच दिल्ली के उत्तर-पूर्व इलाके में दंगें हुए। इस दौरान 53 से अधिक लोग मारे गए। इसमें दिल्ली पुलिस की भूमिका सवालों में हैं, क्योंकि मारे गए अधिकांश मुसलमान थे और जांच में भी मुसलमान को ही पकड़ा गया है। दिल्ली पुलिस राज्य सरकार के अधीन नहीं आती है। ये केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय (एमएचए) के अधीन आती है। दिल्ली पुलिस और एमएचए दोनों अक्सर दिल्ली सरकार के विपरीत रहे हैं, जैसा कि वे वर्तमान में हैं।
दिल्ली में 23 फरवरी को हुआ ये सांप्रदायिक दंगा 1984 में सिख दंगे के बाद का पहला बड़े पैमाने पर दंगा था। इसने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं, क्योंकि इसी दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत की अपनी पहली यात्रा पर थे। ट्रम्प की टीम के साथ-साथ उनकी इस यात्रा को कवर करने वाले अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने तीन दिनों तक होने वाले इस सांप्रदायिक दंगे की एकतरफा मामले को समझा। इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया खास तौर से यूएस की मीडिया इस दंगा में मारे गए लोगों की हत्या और अभियोजन की जांच को कवर कर रहा है।
दिल्ली पुलिस एक उत्कृष्ट और हाई-प्रोफाइल पुलिस के रूप में देखी जाती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश या हरियाणा पुलिस की तुलना में जांच अधिक बारीकी से करेगी। ऐसी स्थिति में समान रूप से, विशेष रूप से भारत में देखा जाता है कि क्या एक स्वतंत्र और निष्पक्ष प्राधिकरण के रूप में न्यायपालिका की भूमिका कार्यकारी अथवा सत्ता के दबाव के बिना रहती है?
ये दंगा जांच ऐसी स्थिति में है जहां चीजें स्पष्ट नहीं हैं, क्योंकि पब्लिक डोमेन से बहुत कुछ रोका गया है और दिल्ली पुलिस को जांच को "प्रबंधित" करने और कोर्ट में जाने पर केस से संबंधित सभी पहलुओ को निर्धारित करने के लिए कुछ भी करने के लिए माना जाता है।
लेकिन, अब ऐसी खबरें सामने आई हैं कि दिल्ली पुलिस अपराधियों का पीछा करने की बजाय पीड़ितों का पीछा कर रही है। इसने दंगों को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन से जोड़ा है और कई युवाओं, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं और प्रमुख कार्यकर्ताओं को जांच में शामिल किया है। ये दंगा मुस्लिम पीड़ितों के खिलाफ एक कथित पूर्वाग्रह है। किसी भी राजनेता को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है, जिन्होंने भीड़ को उकसाया। जैसा कि ये सभी पर्याप्त पक्षपाती नहीं हैं, क्योंकि हिंदुत्व संगठन हिंदुओं के खिलाफ "झूठे मामलों" के आरोपों के साथ हस्तक्षेप कर रहा है, इस प्रकार पुलिस और अधिक पक्षपातपूर्ण लग रही है।
दिल्ली पुलिस दंगा मामलों और उपराज्यपाल के लिए सरकारी वकील चाहती है, क्योंकि केंद्र भी इसपर जोर दे रही हैं। जिस तरह से दिल्ली पुलिस दंगे की जांच कर रही है और दिल्ली सरकार ने एमएचए और पुलिस को लेकर कोई विरोध नहीं किया है, लेकिन अब वकील की नियुक्त करने के लिए अपने विशेषाधिकार पर जोर दे रही हैं।
केंद्र के चाहने वाले अपने ही वकीलों ने ये सवाल उठाया है कि क्या ये दिल्ली पुलिस और इसके चुने हुए अभियोजकों की सहायता से किसी विशेष दिशा में जांच को ले जाने की मंशा है। यह जांच बल और अभियोजकों को एक-दूसरे से स्वतंत्र रखने के नियमों का उल्लंघन है।
द टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र और दिल्ली पुलिस के खिलाफ इस मुद्दे पर तंज कसा। केंद्र, दिल्ली पुलिस और एलजी से वकीलों की पसंद के बारे में पूछे जाने के पीछे के मकसद के बारे में पूछे जाने पर केजरीवाल ने कहा, “इरादे में कुछ खोट है। पिछले दो मामलों में कोर्ट ने कहा कि पुलिस जांच को एक विशेष दिशा में ले जाना चाहती है। अगर कोर्ट ने पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल उठाए है, तो यह अधिक महत्वपूर्ण है कि वकीलों को पुलिस से स्वतंत्र होना चाहिए।” अगर दिल्ली पुलिस बिना किसी भय या पक्षपात के अपनी जांच की है, तो वह अपना अभियोजक क्यों चाहती है?
यह पूर्व-लिखित स्क्रिप्ट के साथ एक विशेष दिशा में जांच और अभियोजन चलाने के लिए न्याय की प्रक्रिया पर एक आघात होगा। यह न्याय प्रणाली में विश्वास को कम करेगा। वैश्विक निवेशक, विशेष रूप से जो भारत को चीन के विकल्प के रूप में देख रहे हैं, वे ऐसे देश में निवेश के लिए उत्सुक नहीं हो सकते हैं जहां कानून और न्यायपालिका सवालों में हो और सत्ता का दबाव अधिक हो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 जुलाई को भारत-विचार शिखर सम्मेलन में अपने मुख्य भाषण में जोर देकर कहा गया था कि वो भारत में अमेरिकी कंपनियों का निवेश करने के लिए आमंत्रित करना चाहते हैं। मार्केट और अर्थव्यवस्था को लेकर कई प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने देखा है कि ये स्वतंत्र न्याय प्रणाली द्वारा सामंजस्यपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अभाव में सफल नहीं हो सकता है।
(लेखक वीऑन टीवी के संपादकीय सलाहकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)