सिर्फ रम्या नहीं हैं सोशल मीडिया में कांग्रेस की आक्रामकता का राज
हाल के वर्षों में संवाद और प्रचार के मोर्चे पर कांग्रेस की कमजोरी खूब उजागर हुई है। 2014 के लोकसभा में मिली करारी हार के बाद बिहार को छोड़कर जिन राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हुए सत्ता कांग्रेस के हाथ से फिसलती गई। इन नाकामियों में एक बात समान थी कि कांग्रेस का प्रचार अभियान कमजोर रहा। सोशल मीडिया के मामले में यह कमी कुछ ज्यादा ही खली। लेकिन पिछले दो महीने में स्थिति तेजी से बदली है। खासतौर पर सोशल मीडिया में कांग्रेस का दबदबा बढ़ा है। तेवर भी तीखे हुए हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी सोशल मीडिया पर ज्यादा आक्रामक और प्रभावी दिख रहे हैं। हाल के महीनों में आया यह बदलाव साफ नजर आ रहा है।
सोशल मीडिया में कांग्रेस के इस उभार का श्रेय कांग्रेस की नई डिजिटल टीम और उसकी प्रभारी दिव्या स्पंदना उर्फ रम्या को दिया जा रहा है। वे सिनेमा से राजनीति में आई हैं और पांच साल के भीतर लोकसभा चुनाव में जीत और हार दोनों का स्वाद ले चुकी हैं। गत मई में दीपेंद्र सिंह हुड्डा को हटाकर रम्या को कांग्रेस के सोशल मीडिया और डिजिटल कम्युनिकेशन का जिम्मा दिया गया था। तब से कांग्रेस की सोशल मीडिया रणनीति और टीम में कई बदलाव हुए हैं, जिसका असर यह हुआ कि ट्विटर पर दो महीने के भीतर राहुल गांधी के फॉलोअर्स 10 लाख बढ़ गए। कांग्रेस की बातों को कम से कम सोशल मीडिया पर सुना जाने लगा है।
नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी और किसानों के मुद्दों पर आज कांग्रेस मोदी सरकार को घेरने में पहले से कहीं ज्यादा मुस्तैद दिखाई दे रही है। बेशक, इसका कुछ श्रेय रम्या के नेतृत्व वाली कांग्रेस की डिजिटल और सोशल मीडिया टीम को जाएगा। लेकिन उनके अलावा कांग्रेस को और भी कई चीजों का लाभ मिल रहा है। इसमें किसी एक व्यक्ति के बजाय फेक न्यूज पर हमले, तुरंत पलटवार और व्यंग्य के जरिए भाजपा पर निशाना साधने की रणनीति ज्यादा कारगर साबित हो रही है।
आर्थिक हालात ने बदला माहौल, वाम दल भी सक्रिय
नोटबंदी और जीडीपी से जुड़े आंकड़े सामने आने के बाद मोदी सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। भाजपा विरोधी नैरेटिव बनने लगा है। इसका लाभ भी कांग्रेस को मिल रहा है। वैसे, सियासी मोर्चे पर भाजपा के घिरने का सिलसिला गोरखपुर में बच्चों की मौत से शुरू हो गया था, जिसमें जीएसटी के झंझटों और आर्थिक सुस्ती के तौर पर विपक्ष को नए हथियार मिल गए हैं। इसे मोदी सरकार का "सेल्फ गोल" कहा जा सकता है। भाजपा और संघ के नेतृत्व को इस खतरे से बेखबर नहीं हैं। इसलिए वे नुकसान की भरपाई और पलटवार करने में जुट गए हैं। जीएसटी में भूल-सुधार की कोशिशें भी शुरू हो चुकी हैं। हालांकि, आर्थिक मोर्चे पर हालात कहीं ज्यादा चुनौतिपूर्ण हैं।
इस बीच, एक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि वामपंथी पार्टियों खासकर सीपीएम ने सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है। अपने काडर और समर्थकों के साथ वामपंथी पार्टियां अब सोशल मीडिया पर पहले से कहीं ज्यादा मुखर हैं। इसका लाभ सरकार और भाजपा को घेरने में कांग्रेस को भी मिल रहा है। लेकिन सबसे बड़ी बात आर्थिक सुस्ती का मौजूदा माहौल है जिसने तीज-त्यौहारों की रौनक भी फीकी कर दी। फिर जीएसटी की चुभन को आम आदमी भी महसूस करने लगा है।
जहां तक राहुल गांधी के सोशल मीडिया कैंपेन के पीछे रम्या का हाथ होने की बात है, उसमें ज्यादा दम नहीं है। कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी का डिजिटल कैंपेन चलाने वाली टीमें अलग-अलग हैं। हालांकि, इनके बीच तालमेल रहता है। लेकिन कई बार तालमेल की कमी भी दिखती है। चीन के राजदूत से राहुल गांधी की मुलाकात के मामले में हुई गफलत इसी का नतीजा है। इसलिए यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि राहुल गांधी के बदले तेवर के पीछे सिर्फ रम्या का हाथ है। बेशक, उन्होंने कांग्रेस के डिजिटल कम्युनिकेशन को नई धार दी है लेकिन उन्हें बदली परिस्थितियों का फायदा भी मिल रहा है। जैसे, जब बुलेट ट्रेन की योजना का शिलान्यास होना था तब देश में कई रेल हादसे हुए। ऐसे विरोधाभासों को उजागर करने में कांग्रेस आजकल पहले से ज्यादा मुस्तैद दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस के लिहाज से यह बड़ी बात है।
चुनौतियां अभी कम नहीं
कांग्रेस से जुड़े सूत्रों की मानें तो बेंगलूरू से दिल्ली आकर सोशल मीडिया की जिम्मेदारी संभालने वाली रम्या के सामने अब भी चुनौतियां कम नहीं हैं। खासकर कांग्रेस के विभिन्न मोर्चों, संगठनों और नेताओं की कम्युनिकेशन टीम के साथ तालमेल बैठाना आसान नहीं है। लेकिन उन्हें मौजूदा राजनैतिक स्थितियों का फायदा मिल रहा है। रम्या के नेतृत्व में पहले से काफी बड़ी टीम कांग्रेस का सोशल मीडिया संभाल रही है। इसके लिए बाकायदा विज्ञापन देकर पेशेवर विशेषज्ञों की नियुक्ति की गई है, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं। इससे पहले दीपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में अपेक्षाकृत छोटी टीम यह जिम्मा संभालती थी। कई पूर्व मीडियाकर्मियों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। पार्टी के भीतर सोशल मीडिया को लेकर जागरूकता पैदा करने, संगठन में ऊपर से नीचे तक सोशल मीडिया सेल बनवाने और फेसबुक-ट्विटर पर कांग्रेस के विस्तार का श्रेय इस पुरानी टीम को भी दिया जाना चाहिए। फिर पूनावाला बंधु सरीखे कांग्रेस से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोग भी कांग्रेस के पक्ष में मुहीम चलने का काम करते रहे हैं।
राजीव गौड़ा के नेतृत्व में कांग्रेस का रिसर्च डिपार्टमेंट भी काफी मशक्कत कर रहा है। केंद्र की योजनाओं पर निशाना साधने के लिए यह टीम पार्टी को तथ्य और आंकड़े मुहैया कराती है। इन सब कवायदों के बावजूद भाजपा और संघ के प्रचार तंत्र के आगे कांग्रेस और विपक्ष के प्रयास अपनी पहुंच और प्रभाव के मामले में कमतर ही हैं। फिर भी कांग्रेस के लिए तसल्ली की बात है कि पिछले एक महीने में दो-तीन मौके ऐसे आए जब राहुल गांधी के आत्मविश्वास को लोगों ने नोटिस किया है। बर्कले यूनिवर्सिटी में उनके भाषण का जवाब देने के लिए केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारा गया। इसी तरह राहुल के गुजरात दौरे के बाद अमित शाह और योगी आदित्यनाथ को अमेठी की राह पकड़नी पड़ी। अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस की आलोचना को भी अब ज्यादा गंभीरता से लिया जा रहा है। राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना भी अब लगभग तय है। इससे भी पार्टी में नेतृत्व को लेकर चल रही ऊहापोह थमेगी। “विपक्ष कहीं है ही नहीं” सरीखे आरोपों के बीच यह सब भी चल रहा है जो आने वाले समय में कुछ न कुछ असर जरूर दिखाएगा।
पुराने दिग्गज भी सक्रिय
कांग्रेस के बदले तेवर के पीछे पुराने दिग्गज नेताओं की सक्रियता को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा सरीखे नेता मुस्तैदी दिखाते हुए चुनाव आयोग का दरवाजा न खटखटाते तो अहमद पटेल की राज्यसभा सीट खतरे में पड़ चुकी थी। सही मायने में उस जीत ने पार्टी को भाजपा से जूझने का आत्मविश्वास दिया। इध्ार नोटबंदी पर आरबीआइ की रिपोर्ट आने के बाद पी. चिदंबरम सोशल मीडिया पर जिस तरह सक्रिय हुए, उससे भी विपक्ष को सरकार को घेरने के तर्क मिले। इसी तरह अमित शाह के पुत्र जय शाह की कंपनी के कारोबार में कथित इजाफे के मुद्दे पर कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा और मोदी सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बाकी कसर सोशल मीडिया पर कांग्रेस के प्रचारकों ने पूरी कर दी।
फिर भी सोशल मीडिया पर कांग्रेस के उभार का पूरा श्रेय टीम रम्या को देना इसलिए भी उचित नहीं है कि विपक्ष की आवाज को इंटरनेट पर बुलंद रखने में ऐसे लोगों की भी भूमिका है जो पार्टी से नहीं जुड़े हैं। खासतौर पर Truth of Gujarat और altnews जैसे पोर्टल काफी दिनों से भाजपा के प्रचार अभियान की पोल खोलने का काम कर रहे हैं। इसका फायदा भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विपक्ष को मिला है। वैसे, एक बात साफ है कि अब साइबर स्पेस में भाजपा का वैसा दबदबा नहीं रहा, जैसा 2014 से पहले हुआ करता था। तब उसे सबसे पहले सोशल मीडिया के इस्तेमाल का लाभ मिला था। लेकिन अब भाजपा का यह हथियार उसी के लिए चुनौती साबित हो रहा है।