आर्थिक मोर्चे पर सावधान!
अक्टूबर, 1992 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के कैंपेन में बिल क्लिंटन ने दो शब्दों के मुहावरे से अपने प्रतिद्वंद्वी जॉर्ज डब्लू बुश पर हमला किया था। वह था ‘द इकोनॉमी स्टुपिड।’ इसके जरिए उन्होंने अमेरिकी मध्यवर्ग के हितों को सर्वोपरि रखते हुए आर्थिक स्थिति में सुधार का वादा किया था। यानी अर्थव्यवस्था के अपने नियम हैं और हमेशा वही सही साबित भी होते हैं। कुछ ऐसा ही अब हमारे देश में हो रहा है। कुछ महीने पहले तक नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार और उनकी लोकप्रिय छवि को लेकर कहा जा रहा था कि देश में कोई विपक्ष नहीं बचा है। लेकिन इधर कुछ ऐसे मुद्दे लगातार सामने आए जो उनकी भारतीय जनता पार्टी और सरकार दोनों को बेचैन कर रहे हैं। इसकी वजह इन मुद्दों का सीधे उस मध्य वर्ग पर प्रतिकूल असर पड़ना है जिनके बीच लोकप्रियता के चलते भाजपा को राजनैतिक मोर्चे पर लगातार सफलताएं मिलती आ रही हैं।
यहां एक खास बात यह है कि इंदिरा गांधी के बाद नरेन्द्र मोदी देश के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री माने जा रहे हैं और उनकी लोकप्रियता काफी अधिक है। लेकिन भारतीय मतदाता की खासियत रही है कि वह नेताओं को नतीजे देने के लिए काफी लंबा समय देता है। यह बात इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ भी चली और नरेन्द्र मोदी के मामले में भी सही साबित हुई है। यही वजह है कि फरवरी-मार्च में जब कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए तो मतदाताओं ने नोटबंदी का समर्थन किया। मोदी ने भी कहा कि नोटबंदी के आलोचक हार्वर्ड के विद्वानों के मुकाबले हार्ड वर्क करने वाला सही साबित हुआ है।
लेकिन इधर काफी कुछ बदल गया है। नोटबंदी के नतीजे वैसे नहीं आए, जैसी लोगों ने उम्मीद लगाई थी। इसका सबूत खुद रिजर्व बैंक के आंकड़ों ने दे दिया। इकोनॉमी की रफ्तार सुस्त हो गई और उसके आंकड़े खुद सरकार ने जारी किए हैं। वहीं कर सुधारों के ऐतिहासिक स्वरूप वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के बाद पैदा हुई दिक्कतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इस सबका असर रोजगार और कारोबार पर दिखने लगा है। यही वजह है कि राजनैतिक मुद्दे गौण होने लगे हैं और वे हफ्ते भर भी नहीं टिक पाते। मुद्दा तीन तलाक का हो या रोहिंग्या मुसलमानों का या फिर कोई दूसरा राजनैतिक मामला, इन पर ज्यादा बात नहीं हो रही है। बात हो रही है आर्थिक मुद्दों की।
जिस तरह से बर्कले स्थित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर हमला किया और बेरोजगारी तथा खराब आर्थिक हालात का जिक्र किया, वह भाजपा को गहरे तक चुभ गया। यही वजह थी कि फौरन बाद जवाब देने के लिए आधा दर्जन मंत्रियों और पार्टी प्रवक्ताओं की पूरी फौज लगा दी गई।
इसके अलावा दूसरा घटनाक्रम रहा है छात्रसंघ चुनावों में भाजपा से जुड़े छात्र संगठन एबीवीपी की हार। दिल्ली यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, पंजाब, राजस्थान और गुवाहाटी में जिस तरह एबीवीपी की हार हुई है, वह इस बात का संकेत है कि देश में युवाओं का आकर्षण मोदी और भाजपा के प्रति कम हो रहा है। यही वह वर्ग रहा है जो मोदी का सबसे बड़ा समर्थक रहा है लेकिन रोजगार के मोर्चे पर नाकाम होती सरकार को इस वर्ग का समर्थन कम होता जा रहा है।
इसके साथ ही यह अब लगभग तय है कि कांग्रेस अक्टूबर में राहुल गांधी को आंतरिक चुनावों के जरिए अध्यक्ष की जिम्मेदारी दे देगी। वह लगातार अपने भाषणों में सरकार की इकोनॉमी और रोजगार के मोर्चे पर नाकामियों को गिना रहे हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा दोनों के लिए आर्थिक मुद्दों और रोजगार के संकट को हल करने की चुनौती कहीं अधिक है। हो सकता है कि कुछ राजनैतिक मुद्दों पर उनको मजबूती मिले लेकिन आर्थिक मुद्दे जैसे जोर पकड़ते जा रहे हैं, उनसे पिंड छुड़ाना आसान नहीं होगा। हाल के दिनों में पेट्रोल-डीजल की कीमतों और महंगाई दर में बढ़ोतरी को लेकर सरकार बचाव की मुद्रा में दिखी। ऐसे मुद्दे आने वाले दिनों में ज्यादा हावी होंगे।
इसलिए बात कमजोर विपक्ष की नहीं है, बात लोगों के बीच कमजोर होते भरोसे की है। इसमें भी सबसे अधिक जोर बेरोजगारी के मुद्दे पर रहेगा। सभी को याद है कि युवा वर्ग की आकांक्षाओं को पूरा करने और डेमोग्राफिक डिविडेंड जैसे नारों ने मोदी को बहुत ताकत दी थी। एक सच्चाई यह भी है कि एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने जब ‘इंडिया शाइनिंग’ के नाम से एक बहुत महंगा कैंपेन चलाया था तो 2004 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बेरोजगारी के मुद्दे को सबसे अधिक प्रमुखता दी थी। अगले लोकसभा चुनावों में भी यह सबसे अहम मुद्दा बनकर सामने आएगा। यही वजह है कि एक बार फिर आर्थिक मुद्दे केंद्रीय मुद्दे बनते जा रहे हैं और ज्यादा मुखर मध्य वर्ग पर सबसे ज्यादा असर इनका ही पड़ता है। ऐसे में नरेन्द्र मोदी और भाजपा को इसी के इर्द-गिर्द रणनीति बनानी होगी।