प्रथम दृष्टि: टाइगर जिंदा नहीं है!
“कोई बाघ इंसानी बस्तियों में रहने का आदी हो गया है या इंसानों ने अपने स्वार्थ के लिए उसकी बस्ती का अतिक्रमण कर लिया, इस पर फिर से मंथन करने की आवश्यकता है ताकि विकास का एजेंडा जानवर-इंसान के टकराव को बढ़ावा न दे”
बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में पिछले दिनों एक बाघ की मौत हो गई। मौत स्वाभाविक नहीं थी, लेकिन न तो वह किसी बीमारी की वजह से मरा, न ही किसी शिकारी के हत्थे चढ़ा। उस टाइगर की मौत अधिकारियों के ‘शूट-ऐट-साइट’ आदेश जारी करने से हुई। मीडिया की जुबां में कहें तो उस बाघ पर आरोप था कि उसने उस इलाके में कम से कम नौ लोगों की हत्या की थी। लगभग एक महीने तक उसे पकड़ने की तमाम असफल कोशिशों के बाद उसे देखते ही मार देने का आदेश दिया गया। अगले ही दिन उसे ढूंढ निकाला गया और वह एक सधे निशानेबाज की गोली का शिकार हुआ। वह टाइगर अब जिंदा नहीं है, लेकिन जैसे इंसानों और वन्यजीवों के बीच टकराव की खबरें देश के विभिन्न प्रांतों से निरंतर आती रहती हैं उससे लगता है कि ऐसी घटनाओं के कई सीक्वल सामने आते रहेंगे।
पशु अधिकारों के लिए लड़ रहे लोग बाघ की मौत के बाद वन विभाग की कार्य-प्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं। पूछा जा रहा है कि क्या उस बाघ को जिंदा नहीं पकड़ा जा सकता था? यह भी कहा जा रहा है कि विभाग ने उस पर गोली चलवाने के बजाय उसे बेसुध करने वाली बंदूक की मदद से पकड़ने की कवायद क्यों नहीं की, ताकि उसे किसी चिड़ियाघर या अन्य सुरक्षित स्थान पर रखा जा सकता? बाघ आखिरकार हमारा राष्ट्रीय जानवर है, जिसकी घटती संख्या हमें पिछले कुछ दशकों से उद्वेलित करती रही है। विडंबना यह है कि जिस क्षेत्र में यह घटना हुई वहां वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व है, जहां कुछ ही महीने पूर्व बाघों की संख्या में बढ़ोतरी होने से वन विभाग में जश्न का माहौल था। कहा गया कि वहां बाघों की संख्या 43 हो गई है, जिसे 2006 में मात्र दस और तेरह के बीच बताया गया था।
इस बार जश्न का माहौल वहां के ग्रामीणों के बीच था, जो पिछले एक महीने से डर के साये में जी रहे थे। कहा जा रहा है कि जीवन के अंतिम तीन दिनों में उस बाघ ने पांच लोगों को अपना शिकार बनाया था। अधिकारियों का कहना है कि उस नरभक्षी बाघ को इंसानी बस्तियों में रहने की आदत-सी पड़ चुकी थी जिसके कारण वहां के लोगों की जान खतरे में थी। इसलिए विभाग को नियमानुसार उसे मारने का आदेश देना पड़ा। इंसानी जान की कीमत पर किसी एक जानवर की जान बचाने की सलाह किसी सभ्य समाज में विवेकपूर्ण हो न हो, लेकिन इतना पूछना तो स्वाभाविक है कि क्या बाघ को मार देने के पूर्व अन्य विकल्पों पर संजीदगी से विचार किया गया?
लगभग एक दशक पहले वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व से ही भटक कर एक बाघ ने एक महीने तक बिहार के छह जिलों में आतंक मचा रखा था। उस बाघ ने सारण जिले के तत्कालीन डीएफओ पर हमला भी किया था, जब वे उसे बेसुध करने की कोशिश कर रहे थे। भाग्यवश, कुछ हफ्तों के बाद वह अपने आप टाइगर रिजर्व में लौट गया। इस बार निस्संदेह हालात अलग थे। ग्रामीण उस ‘नरभक्षी’ बाघ से इस कदर खौफजदा थे कि वे तब तक उसके मरने की खबर को सच मानने को तैयार न थे जब तक उन्हें उसका मृत शरीर नहीं दिखाया गया। ग्रामीणों का मानना है कि बाघ के आदमखोर हो जाने के बाद भी उसे जिंदा पकड़ने की वकालत करने वाले शहरी लोगों को उस खौफनाक वातावरण में कुछ दिन रहना चाहिए था जिसमें वे सब उसकी मौत के पूर्व रह रहे थे।
जो भी हो, इस घटना ने मानव और पशु के संघर्ष का मुद्दा फिर से हमारे समक्ष खड़ा कर दिया है। हाल ही में असम में एक तेज रफ्तार ट्रक से एक गैंडे के सड़क पार करते समय टकराने का वीडियो वायरल होने के बाद जंगलों की अंधाधुंध कटाई और वन्यजीवों की बहुतायत वाले क्षेत्रों में वाहनों और ट्रेनों के असीमित परिचालन पर रोक या सख्त नियंत्रण की मांग जोरों से उठी है। मसला पुराना है लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है। आए दिन जंगली हाथियों द्वारा इंसानी बस्तियों में किए गए उपद्रव की खबरें आती हैं, जिसमें कई बार लोग हताहत होते हैं। कभी बाघ, कभी तेंदुआ, तो कभी लकड़बग्घे भी रिहायशी इलाकों में देखे जाते हैं। कई बार तो बाघों से लेकर हाथियों तक के रेलवे ट्रैक पर कटने की घटनाएं हुई हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर तक इस समस्या से निजात पाने की कई पहल हुई है। यह भी सुझाव दिया गया है कि पशुओं की सुरक्षा के लिए जंगली इलाकों में हाइवे के बजाय फ्लाइओवर या अंडरपास बनाए जाएं या सड़कों के किनारे बाड़ लगाई जाए, लेकिन तथाकथित विकास की होड़ में यह सब कभी हुक्मरानों के एजेंडे पर नहीं रहा है। इसकी चिंता उन्हें या हमें तभी सताती है जब मैन वर्सेज ऐनिमल की मुठभेड़ के दुष्परिणामों का कोई वायरल वीडियो हमें विचलित करता है। कोई बाघ इंसानी बस्तियों में रहने का आदी हो गया है या इंसानों ने अपने स्वार्थ के लिए उसकी बस्ती का अतिक्रमण कर लिया, इस पर फिर से मंथन करने की आवश्यकता है।