पैकेज पर मूल्यांकन
पिछले दिनों जब यह खबर आई कि आइआइटी-बॉम्बे के एक छात्र को सालाना चार लाख रुपये का पैकेज मिला है, तो कई लोगों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्हें यह भी पता चला कि इस प्रतिष्ठित संस्थान के दस छात्रों ने वार्षिक चार से छह लाख रुपये वाली नौकरियों का ऑफर स्वीकार कर लिया। मुंबई स्थित आइआइटी की गणना पिछले कुछ दशकों से देश के सबसे बेहतर शिक्षण संस्थानों में होती रही है और आइआइटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करने वाले अभ्यर्थियों के लिए यह पहली पसंद है। आम तौर पर यहां के छात्रों को एकाध करोड़ रुपये का सालाना पैकेज मिलना सामान्य समझा जाता है। इसलिए इस वर्ष वहां के किसी छात्र को मासिक 30-35 हजार रुपये की नौकरी का ऑफर मिलना लोगों को अविश्वसनीय लगा।
वैसे तो जिस देश में बेरोजगारी की समस्या हर समय सुरसा-सा मुंह बाए खड़ी रहती है, वहां 35 हजार रुपये की नौकरी किसी नेमत से कम नहीं है। हर साल देश के हजारों छोटे-बड़े इंजीनियरिंग कॉलेजों से पास करने वाले युवाओं को ऐसी नौकरी भी मयस्सर नहीं होती। बी-टेक की डिग्री जेब में होने के बावजूद वह एक अदद नौकरी की तलाश में सड़कों की खाक छानने को मजबूर होते हैं, लेकिन आइआइटी-बॉम्बे के छात्रों के बारे में आम धारणा यही रही है कि अगर किसी के पास वहां की डिग्री है तो उसे मोटी पगार वाली नौकरी मिलना तय है, लेकिन हाल की एक रिपोर्ट ने यह मिथक तोड़ डाला है, जिसके बारे में विस्तार से इस बार की आवरण कथा में पढ़ेंगे।
गौरतलब है, इसी संस्थान के 22 छात्रों को इस वर्ष एक करोड़ रुपये से अधिक का भी पैकेज मिला और 558 छात्र ऐसे भी थे जिन्हें 20 लाख रुपये से ऊपर की नौकरियां मिलीं। इसके बावजूद इन तमाम ‘उपलब्धियों’ पर चार लाख रुपये के पैकेज का साया मंडराता रहा। तो, क्या बॉम्बे-आइआइटी जैसे संस्थानों की चमक वाकई धूमिल हो रही है, जैसा इसके आलोचक दावा करते हैं? यह भी सवाल उठ रहा है कि अगर आइआइटी-बॉम्बे में भी पढ़कर 30-35 हजार रुपये की पगार वाली नौकरी मिलती है, तो उसमें और हर छोटे-बड़े शहर में कुकुरमुत्ते से पनप आये साधारण दर्जे के उन निजी संस्थानों में क्या अंतर है? लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी संस्थान का मूल्यांकन सिर्फ उसके छात्रों को मिलने वाले पैकेज पर करना सही है?
यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा और मेडिकल प्रवेश इम्तिहान के साथ आइआइटी प्रवेश परीक्षा को देश की तीन शीर्षस्थ परीक्षाओं में शुमार किया जाता है, जहां सफलता पाने के लिए साल दर साल संघर्ष करना पड़ता है। इन परीक्षाओं की तैयारी करवाने के लिए देश भर में हजारों कोचिंग संस्थान खुल गए हैं। राजस्थान के कोटा जैसे शहर की अर्थव्यवस्था ही ऐसे छात्रों पर टिकी है जो हर साल वहां इंजीनियरिंग-मेडिकल परीक्षाओं की तैयारी करने जाते हैं। यही हाल दिल्ली का है जिसे सिविल सेवा परीक्षाओं के सपने देखने वाले युवाओं का मक्का समझा जाता है। इन सभी युवाओं को लक्ष्य इन परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर अच्छी नौकरी प्राप्त करना होता है।
आइआइटी का लोहा पूरी दुनिया मानती है। इसके छात्रों ने वैश्विक स्तर पर अपनी मेधा का परचम लहराया है। आज भी दुनिया भर में गूगल सहित कई मल्टिनेशनल कंपनियां हैं जिनके आला अधिकारी आइआइटी के पूर्व छात्र हैं। किसी संस्थान के सिर्फ एक-दो साल के प्लेसमेंट के रिकॉर्ड के आधार पर उसकी उत्कृष्टता पर सवालिया निशान नहीं लगाए जा सकते, लेकिन इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आइआइटी की गुणवत्ता पर असर पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में कई नए आइआइटी की स्थापना की गई, लेकिन शिक्षा और शोध की गुणवत्ता के पैमाने पर वे पुराने आइआइटी से कोसों पीछे हैं। कहीं योग्य शिक्षकों की कमी है तो कहीं आधारभूत संरचना की। इन संस्थानों में ऐसे छात्रों की भी कमी नहीं है जो अपना सेमेस्टर ‘क्लियर’ नहीं कर पाते हैं। कई आइआइटी छात्रों को तो तीस हजार रुपये की नौकरी भी नहीं मिलती है। इसके क्या कारण हैं, इसकी तह तक जाने की जरूरत है, ताकि इस बढ़ती समस्या का निदान किया जा सके। यह भी सोचने वाली बात है कि इन विश्व प्रसिद्ध संस्थानों द्वारा छात्रों को रिसर्च के लिए प्रेरित करने के लिए क्या उतने ठोस कदम उठाये जाए हैं जितना अपने-अपने प्लेसमेंट रिकॉर्ड सुधारने के लिए?
आज के दौर में छात्रों को ऑफ-कैंपस मिलने वाली नौकरियों की कमी नहीं है। गूगल जैसी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कथित छोटे संस्थानों के कई छात्रों को शानदार पैकेज की पेशकश की है क्योंकि वे उनके मापदंडों पर खरे उतरे। जाहिर है, उनके लिए यह जरूरी नहीं कि छात्र किस संस्थान से आते हैं। नौकरी के मामले में मेधा ने इस खाई को पाट दिया है।