नजरिया: रॉयल्टी बजरिये बाजार
अट्ठाईस वर्ष पूर्व (1997) प्रकशित विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी को एक नए प्रकाशक द्वारा प्रकशित किए जाने के बाद बिक्री और रॉयल्टी के चौकाने वाले आंकड़ों ने हिंदी के लेखन और प्रकाशन जगत में एक नई बहस और सनसनी को जन्म दिया है। खबर है कि मात्र छह माह में इस उपन्यास की लगभग नब्बे हजार प्रतियां बेचकर प्रकाशक ने विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपये की राशि का भुगतान किया है। एक गंभीर साहित्यिक कृति के निमित्त यह पहली बार संभव हुआ है। इसके पूर्व लुगदी साहित्य के लेखक और प्रकाशक ही ऐसी सही-गलत दावेदारी करते देखे सुने जाते थे। विनोद कुमार शुक्ल अपनी किताबों की बिक्री को लेकर पिछले दिनों अपने प्रकाशकों से असंतुष्ट रहे हैं, इसकी उन्होंने सार्वजानिक अभिव्यक्ति भी की है। अब नए प्रकाशक द्वारा इस बड़ी धनराशि का भुगतान कई सवालों को जन्म देने वाला है। क्या पूर्व प्रकाशकों द्वारा पुस्तकें बड़ी संख्या में बेची जाने के बावजूद लेखक को तयशुदा रॉयल्टी का भुगतान नहीं किया जाता था या कि पुस्तकों का प्रचार प्रसार न कर प्रकाशक उपलबध पाठकों के ही भरोसे अपने व्यावसायिक हित के सोपान चढ़ता रहता था और बदले में लेखकों की हकमारी करता था?
दीवार में एक खिड़की रहती थी के सहसा इस नए पाठक समुदाय के उदय का रहस्य क्या है? कहा जा रहा है कि यह बीस से चालीस वर्ष के बीच का वह युवा समुदाय है, जो स्वयं को मोबाइल से डिटॉक्स करने की चाहत में ऑनलाइन और मॉल की खरीद के जरिए किताबों की ओर उन्मुख हुआ सा लगता है। किताबों तक उसकी पहुंच रील्स, शॉर्ट्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया के जरिये बनी है। हिंदी में यह चेतन भगत परिघटना के आमद की दस्तक भी है। युवा पाठकों के लिए, युवा लेखकों द्वारा एक युवा प्रकाशक का यह नया व्यावसायिक उद्यम है, जिसने चेतन भगत की ही तर्ज पर हिंदी में दिव्य प्रकाश दुबे सरीखा कल्ट लेखक पैदा किया है, जो इन युवा पाठकों का चहेता लेखक है। इस कल्ट के प्रतिलोम होने के बावजूद विनोद कुमार शुक्ल के इस तंत्र में प्रवेश के पीछे रॉयल्टी को लेकर उनकी अपने प्रकाशकों से निराशा और ज्ञानपीठ सम्मान से मंडित उनका प्रभामंडल शामिल है। नए युवा प्रकाशक को जहां एक स्थापित लेखक की छांव मिल रही थी, वहीं विनोद कुमार शुक्ल को वांछित रॉयल्टी मिलने की उम्मीद। दीवार में एक खिड़की रहती थी के प्रकाशन अधिकार के साथ प्रकाशक ने अपने प्रचार तंत्र के जरिये इस उपन्यास को नया जीवन प्रदान किया।
(लेखक प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक हैं।)