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23 October 2025

नजरिया: रॉयल्टी बजरिये बाजार

अट्ठाईस वर्ष पूर्व (1997) प्रकशित विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी को एक नए प्रकाशक द्वारा प्रकशित किए जाने के बाद बिक्री और रॉयल्टी के चौकाने वाले आंकड़ों ने हिंदी के लेखन और प्रकाशन जगत में एक नई बहस और सनसनी को जन्म दिया है। खबर है कि मात्र छह माह में इस उपन्यास की लगभग नब्बे हजार प्रतियां बेचकर प्रकाशक ने विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपये की राशि का भुगतान किया है। एक गंभीर साहित्यिक कृति के निमित्त यह पहली बार संभव हुआ है। इसके पूर्व लुगदी साहित्य के लेखक और प्रकाशक ही ऐसी सही-गलत दावेदारी करते देखे सुने जाते थे। विनोद कुमार शुक्ल अपनी किताबों की बिक्री को लेकर पिछले दिनों अपने प्रकाशकों से असंतुष्ट रहे हैं, इसकी उन्होंने सार्वजानिक अभिव्यक्ति भी की है। अब नए प्रकाशक द्वारा इस बड़ी धनराशि का भुगतान कई सवालों को जन्म देने वाला है। क्या पूर्व प्रकाशकों द्वारा पुस्तकें बड़ी संख्या में बेची जाने के बावजूद लेखक को तयशुदा रॉयल्टी का भुगतान नहीं किया जाता था या कि पुस्तकों का प्रचार प्रसार न कर प्रकाशक उपलबध पाठकों के ही भरोसे अपने व्यावसायिक हित के सोपान चढ़ता रहता था और बदले में लेखकों की हकमारी करता था? 

दीवार में एक खिड़की रहती थी के सहसा इस नए पाठक समुदाय के उदय का रहस्य क्या है? कहा जा रहा है कि यह बीस से चालीस वर्ष के बीच का वह युवा समुदाय है, जो स्वयं को मोबाइल से डिटॉक्स करने की चाहत में ऑनलाइन और मॉल की खरीद के जरिए किताबों की ओर उन्मुख हुआ सा लगता है। किताबों तक उसकी पहुंच रील्स, शॉर्ट्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया के जरिये बनी है। हिंदी में यह चेतन भगत परिघटना के आमद की दस्तक भी है। युवा पाठकों के लिए, युवा लेखकों द्वारा एक युवा प्रकाशक का यह नया व्यावसायिक उद्यम है, जिसने चेतन भगत की ही तर्ज पर हिंदी में दिव्य प्रकाश दुबे सरीखा कल्ट लेखक पैदा किया है, जो इन युवा पाठकों का चहेता लेखक है। इस कल्ट के प्रतिलोम होने के बावजूद विनोद कुमार शुक्ल के इस तंत्र में प्रवेश के पीछे रॉयल्टी को लेकर उनकी अपने प्रकाशकों से निराशा और ज्ञानपीठ सम्मान से मंडित उनका प्रभामंडल शामिल है। नए युवा प्रकाशक को जहां एक स्थापित लेखक की छांव मिल रही थी, वहीं विनोद कुमार शुक्ल को वांछित रॉयल्टी मिलने की उम्मीद। दीवार में एक खिड़की रहती थी के प्रकाशन अधिकार के साथ प्रकाशक ने अपने प्रचार तंत्र के जरिये इस उपन्यास को नया जीवन प्रदान किया।

विचारणीय यह है कि विनोद कुमार शुक्ल के दो अन्य उपन्यास नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगें इस चर्चा से बाहर क्यों हैं, क्या इसलिए कि ये उपन्यास अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकशित हैं? दरअसल इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हिंदी प्रकाशन में आ रही चेतन भगत की प्रवृत्ति को डिकोड करने की जरूरत है। जिस तरह चेतन भगत ने पापुलर और पल्प के अंतर को मिटाकर अंग्रेजी के उन पाठकों को आकर्षित किया था जो अमिताभ घोष, अरुंधति रॉय, झुम्पा लाहिड़ी और किरन देसाई सरीखे गंभीर लेखकों के पाठक न होकर अंग्रेजी में लिखे जा रहे तुरंता साहित्य के उपभोक्ता थे। उसी तर्ज पर हिंदी में प्रकाशन और लेखन का एक ऐसा तंत्र उपस्थित हुआ है, जो युवा पीढ़ी के रोजमर्रा के जीवन, प्रेम, लिव-इन, भावनात्मक लगाव-विलगाव, करियर, रिश्तों आदि को उन्हीं की भाषा, मुहावरे और सोच के स्तर पर उपलब्ध कराता है। इसमें चेतन भगत की ही तर्ज पर समय, समाज और राजनीति से संवाद न होकर युवाओं के जीवन और सुख-दुख का स्वायत्त संसार है। जिस तरह लुगदी साहित्य का न कोई स्थाई महत्व है और न शेल्फ लाइफ, उसी तरह हिंदी में चेतन भगत मार्का इस लेखन का न कोई साहित्यिक महत्व है न ही कोई दीर्घ जीवन। यह वैचारिकता और सामाजिक प्रतिबद्धता से मुक्त एक ऐसा तुरंता लेखन है, जो ‘पढ़ो और भूल जाओ’ को चरितार्थ करता है। राजनीति से दूरी बनाए रखते हुए यह सत्तातंत्र से निरपेक्ष रहता है। विनोद कुमार शुक्ल का औपन्यासिक लेखन भी राजनीति से दूरी और सत्ता निरपेक्षता के मूल्यों में रचा बसा है। लेकिन एक गंभीर रचनाकार होने के चलते दीवार में एक खिड़की रहती थी सरीखा उपन्यास लिखकर वह एक रहस्यलोक सृजित करते हैं, जो जेन जी संवर्ग के पाठकों के लिए जादुई यथार्थ के माध्यम से वैचारिक पलायनस्थली सरीखा है। यद्यपि रिकॉर्ड बिक्री के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि युवा पीढ़ी की यह पहली पसंद है।
कहना न होगा कि नए माध्यमों की डोर पर सवार साहित्य के इस बाजार को न रोका जा सकता है और न उसकी जरूरत है। लेकिन जो स्थायी महत्व का दीर्घजीवी साहित्य है उसकी पहुंच गंभीर पाठकों तक बनाने और नए माध्यमों द्वारा उसके प्रचार-प्रसार का दायित्व उन पर जरूर है, जो इसके प्रकाशक हैं। दीवार में एक खिड़की रहती थी की रिकॉर्ड बिक्री हिंदी के श्रेष्ठतम उपन्यास का मानक क्यों होना चाहिए, मैला आंचल, झूठा सच, आधा गांव और तमस क्यों नहीं?

(लेखक प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक हैं।)

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OUTLOOK 23 October, 2025
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