'पद्मावत' की अजीब दास्तान
- अदिति कुंडू
‘पद्मावत’ से सम्बंधित वाद विवाद आश्चर्यचकित कर देता है। ऐसा नहीं है की इस देश में कभी विरोध नहीं हुए या फिर कभी दंगे नहीं हुए लेकिन ‘पद्मावत’ का विरोध कुछ अपने में ही विडंबना युक्त है। हैरानी की बात यह है कि ‘पद्मावत’ को लेकर, जहां एक ओर करनी सेना (यानी कि राइट विंग) इस बात को लेकर हंगामा कर रही थी कि फिल्म द्वारा भंसाली ने राजपूती आन, बान, शान एवं हिन्दू धर्म की मान्यताओं को ठेस पहुंचाई है, वहीं देश के बुद्धिजीवी (यानी कि लेफ्ट विंग) इस बात से परेशान थे कि करनी सेना एवं उनके सहयोगी, कलाकारों के रचनात्मक स्वतंत्रता पर अंकुश लगा रही है। उनका यह कहना है कि सरकार को इस प्रकार के प्रतिगामी विचार धारा को पनपने नहीं देना चाहिए। वहीं करनी सेना का यह मानना है कि ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ के नाम पर भंसाली ने उनके परंपरा एवं संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया है।
हालांकि यह सच है की किसी भी प्रकार की हिंसात्मक भावना या प्रतिक्रिया का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु भारत जैसे विविधतापूर्ण देश की एकता अवं अखंडता बनाये रखने के लिए यह भी जरूरी है कि धार्मिक भावनाओं का सम्मान हो। खैर, यह सब बातें तो तब की हैं, जब तक फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। अब जबकि एक लम्बे अरसे के इंतजार के बाद ‘पद्मावत’ देश के कई मुख्य शहरों के थिएटरों में दिखाई जा रही है तो सभी की बोलती बंद हो गई है।
जहां एक ओर करनी सेना को अब यह बात स्पष्ट हो गई है कि इस फिल्म में ऐसा कुछ भी दर्शाया नहीं गया है, जिस पर उन्हें आप्पति हो, वहीं बुद्धिजीवी अब यह कह रहे हैं कि यह फिल्म न सिर्फ हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भेदभाव की भावना को प्रबल करती है बल्कि सती तथा जौहर जैसी कुरीतियों का गुणगान भी करती है। पर "पद्मावत" जौहर प्रथा पर आधारित है, यह कोई रहस्य तो नहीं। तो जब यह फिल्म बन रही थी उस वक्त इन लोगों ने भंसाली का विरोध न करके उसका समर्थन क्यों किया?
आजकल देश में जो ‘राष्ट्रवाद’ का माहौल है, उसे मद्देनजर रखते हुए यह फिल्म हर प्रकार से परिपूर्ण है। इस फिल्म में काल्पनिक तथा ऐतिहासिक उल्लेखों के मेल जोल से एक ऐसी कहानी प्रस्तुत की गई है, जो खिलजी तथा उनके सभी साथियों को धूर्त और विश्वासघाती दिखाती है। वहीं राजपूत मर्यादापूर्ण एवं सिद्धांतवादी बताए गए हैं। इस प्रकार यह प्रस्तुति भारत में पनप रहे सांप्रदायिक विभाजन की भावनाओं को प्रोत्साहित करती है। खिलजी को इतना क्रूर दिखाया गया है की यह बात उसके खान-पान से लेकर रहन-सहन के तौर तरीकों में भी झलकता है।
भंसाली भी तो न जाने कब से यही कहना चाह रहे थे कि इस फिल्म में राजपूतों के मर्यादा का पूरा सम्मान किया गया है। दरअसल, उन्होंने शायद यह फिल्म बनाई ही करनी सेना तथा उनके समर्थकों के लिए है। भंसाली ने एक चित्रकार की भांति रंग बिरंगे सेट, चमक-धमक और संगीत के माध्यम से एक काल्पनिक घटना को फिल्म का रूप दे दिया है। पर फिल्म में कहानी का भी महत्व सर्वाधिक होता है और उस कहानी का वास्तवविकता से जोड़ होना चाहिए। और यही इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी है। अगर यह फिल्म इतनी चर्चाओं के घेरे में न आती तो शायद यह भंसाली के असफल फिल्मों में इसकी गणना होती।
लेकिन इस फिल्म ने एक बात तो स्पष्ट कर दिया है। चाहे लेफ्ट विंग हो या राइट विंग, दोनों ने केवल एक दूसरे को गलत साबित करना ही अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। सच क्या है, वह अभी भी इन दोनों से अछूता है।
(अदिति कुंडू आर्किटेक्ट हैं और स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर, दिल्ली से जुड़ी हैं)