चुनावों में कैसे रुके मीडिया का दुरुपयोग
इस बार की चुनाव प्रक्रिया पहले से अधिक बड़ी है। बेशक, दुनिया में यह सबसे बड़ी चुनाव प्रक्रिया है। इसमें 90 करोड़ मतदाता, 10 लाख मतदान केंद्र, 23.3 लाख बैलेट यूनिट, 16.3 लाख कंट्रोल यूनिट और 17.4 लाख वीवीपीएटी होंगे! लगभग 1.1 करोड़ मतदान कर्मचारी तैनात किए जाएंगे। आवाजाही के लिए तीन हजार कोच की 10 दर्जन से अधिक ट्रेनें, दो लाख बसें और कार, नाव, हाथी और ऊंटों का इस्तेमाल किया जाएगा। इस सबका मकसद समयबद्ध तरीके से बिना किसी खामी के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना है। लेकिन स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती मीडिया खासकर, टीवी और सोशल मीडिया की मतदाताओं को बरगलाने की कोशिशों पर अंकुश लगाना बनता जा रहा है।
यह काफी हद तक सच है कि कई चरणों वाले चुनावों के मद्देनजर कई महत्वपूर्ण मुद्दे ऐसे हैं जिनका अभी हल नहीं तलाशा जा सका है। अमूमन दो चरणों के बीच अफवाहें तेजी से फैलनी लगती हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण कई चरणों में चुनाव होने से आदर्श आचार संहिता प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाती है। मसलन, एक क्षेत्र में प्रचार बंद हो जाता है, तो उससे सटे इलाके में पार्टियों का प्रचार पूरे शबाब पर होता है। अमूमन नेता इसका भरपूर लाभ उठाते हैं और मतदान वाले क्षेत्र को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।
एक बड़ा मुद्दा पेड न्यूज का है। बेहद चिंताजनक स्थिति यह है कि न केवल पार्टियां और नेता, बल्कि मीडिया जगत भी इसमें शामिल है। इसकी वजह मीडिया का बिजनेस मॉडल है। अनुभवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई की 2013 की बात को उद्धृत करें, तो “हमारे राजस्व मॉडल का 95 फीसदी आधार विज्ञापन है और पाठकों या दर्शकों का राजस्व महज पांच फीसदी है।” इस गुप्त सौदेबाजी में नेता और पत्रकारों की मिलीभगत होती है। एक और खतरा यह है कि चैनल ओपिनियन और एग्जिट पोल के लिए अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में शामिल रहते हैं। पेड न्यूज के दौर में इनकी निष्ठा बेहद संदिग्ध है। इसके अलावा क्या आप जानते हैं कि एग्जिट पोल अवैध हैं? जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत एग्जिट पोल ‘करने’ और उसके ‘प्रसार’ दोनों पर पाबंदी है।
दुनिया भर के लोकतंत्रों में चुनावों की पवित्रता के प्रति बढ़ते खतरे को लेकर सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है। ऑनलाइन डेटा पोर्टल स्टेटिस्टा का अनुमान है कि 2019 तक सोशल नेटवर्क उपयोगकर्ता की संख्या लगभग 25.82 करोड़ हो जाएगी, जो 2016 में 16.81 करोड़ थी। फेसबुक के ही 2021 तक 31.9 करोड़ भारतीय यूजर्स हो जाने का अनुमान है। भारत में 2022 तक 50 करोड़ मोबाइल फोन इंटरनेट यूजर हो जाएंगे। ऑनलाइन आबादी का तीन चौथाई 35 साल से कम उम्र का है। उन्हें ऑनलाइन लक्षित करने से आसानी से तीन-चार फीसदी वोटों का स्विंग हो सकता है, जो निर्णायक अंतर पैदा कर सकता है। वरिष्ठ पत्रकार मंदिरा मोदी बताती हैं कि अंतरंग जानकारियों के व्यापक विश्लेषण से वैचारिक प्राथमिकताओं सहित मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल का पता चल सकता है। इससे सियासी नतीजों को प्रभावित करने के लिए अभियान प्रबंधकों को मदद मिल सकती है। यही कारण है कि 21वीं सदी में बिग डाटा नया ईंधन है।
फिलहाल, भारत में डाटा की सुरक्षा के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 है। इस अधिनियम के तहत सिर्फ पासवर्ड, वित्तीय जानकारी-मसलन, बैंकों के विवरण, किसी व्यक्ति की शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्थितियों, सेक्सुअल ओरिएंटेशन, चिकित्सा रिकॉर्ड और बायोमेट्रिक्स से संबंधित जानकारी को ‘संवेदनशील निजी डाटा’ माना जाता है। ऐसे डाटा को संभालने वाली संस्थाओं को ‘उचित सुरक्षा अभ्यास और प्रक्रियाओं’ की जरूरत होती है। इसका मतलब यह है कि संवेदनशील डाटा की सुरक्षा के लिए इकाइयां अलग-अलग सुरक्षा प्रक्रिया चुन सकती हैं। यह 21वीं सदी की चुनौतियों के लिए शायद ही पर्याप्त है। यहां यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि आइपीसी की धारा 171सी “चुनावों में अनुचित प्रभाव” से संबंधित है।
वर्षों से, सोशल मीडिया कंपनियों ने मतदाता पंजीकरण और शिक्षा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए चुनाव आयोग के साथ सहयोग किया है। इसने बड़ी संख्या में मतदाताओं, खासकर युवाओं तक पहुंचने में मदद की है। इसलिए यह भारतीय लोकतंत्र के लिए सकारात्मक रहा है। आगामी चुनावों के लिए चुनाव आयोग की तरफ से पहले ही कई सराहनीय पहल की घोषणा की जा चुकी है। सभी उम्मीदवारों को नामांकन के हिस्से के रूप में अपने सोशल मीडिया अकाउंट की जानकारी देनी होगी। चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक और रेडियो विज्ञापनों की तरह ही फोन और बड़ी संख्या में एसएमएस/वॉयस संदेश को चुनावों से पहले उसकी मंजूरी लेने यानी प्रमाणीकरण के दायरे में लाने का भी फैसला किया है। गूगल, वाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक औऱ वीचैट सिर्फ पूर्व प्रमाणित विज्ञापनों को ही स्वीकार करेंगे।
मतदान से 48 घंटे पहले प्रचार अभियान थमने की अवधि सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। जिला और राज्य स्तरीय मीडिया प्रमाणन और निगरानी समितियां आचार संहिता की अवधि के दौरान सभी इलेक्ट्रॉनिक और रेडियो विज्ञापनों पर नजर रखती हैं। अब उनके साथ एक सोशल मीडिया विशेषज्ञ भी होगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी अभियान सामग्री जांच से बाहर न हो। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया उम्मीदवारों के साथ-साथ सोशल मीडिया कंपनियों के लिए भी एक व्यापक आचार संहिता तैयार कर रहा है।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के बारे में बुनियादी सवालों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। चुनावी प्रतियोगिता में जीतना और विरोधियों को हराना एक सामान्य लोकतांत्रिक गतिविधि है। लेकिन संदेश की सामग्री नैतिक और वैध होनी चाहिए।
(लेखक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं और ‘द अनडॉक्यूमेंटेड वंडर- द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन’ के लेखक हैं)