गौमाता की फिक्र के दौर में मातृभाषाओं की उपेक्षा
- अक्षय दुबे ‘साथी’
गाय की तरह मातृभाषाओं को राजनैतिक हथियार तो अक्सर बनाया गया, लेकिन दुर्दशा से उबारने के गंभीर प्रयास नजर नहीं आए। जैसे गाय का भूख से रंभाना, आंसू बहाना, दर-दर भटकना आम बात है, वैसे ही भारतीय भाषाएं सरकार और समाज की बेरूखी से तड़प रही हैं, दम तोड़ रही हैं।
अगर गाय के स्वास्थ्यप्रद दूध या अन्य गुणों के कारण भारतीय जनमानस ने उसे मां की संज्ञा दी है, तो मातृभाषा के लिए कहा जाता है कि मां के दूध के आस्वादन के साथ हमारे कान में भाषा की मिश्री घुलती है, तब हम कुछ बोलने में समर्थ हो पाते हैं। इसीलिए उस भाषा को हम मातृभाषा कहते हैं।
भाषाओं पर बनी इंटरेक्टिव एटलस में भाषाओं की विलुप्त होने के संबंध में तथ्य देखें तो इस सूची में भारत अव्वल नंबर पर है। इसके मुताबिक भारत की 196 भाषाएं अंतिम सांस ले रही है। यह तो सिर्फ एक आंकड़ा है, जमीनी सच्चाई तो इससे भी अधिक भयावह है। हमारा देश भाषाओं के लिए मरघट बन रहा है।
अपनी भाषाओं को लेकर हमारी उदासीनता इतनी ज्यादा है कि इनसे जुड़े कोई अच्छी पहल भी हमारा ध्यान खींचने में कामयाब नहीं हो पाती है। मिसाल के तौर पर, गत 7 अप्रेल को राज्यसभा के सांसद बीके हरिप्रसाद, छाया वर्मा, ऑस्कर फर्नांडिस, नारायण लाल, शिव प्रताप शुक्ल, बासवाराज पाटिल द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए एक निजी विधेयक लाया गया। इसमें छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, कोड़वा थुड़ु, मारवाड़ी जैसी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल कर इन्हें बढ़ावा देने की बात कही गई है। इस मुद्दे पर लगभग सभी सांसद सहमत दिख रहे हैं। बरसों से उपेक्षा का शिकार रही इन भाषाओं और इन्हें बचाने में जुटे लोगों के लिए यह एक अच्छी खबर है। अगर यह कोशिश कामयाब हो जाती है कि तो देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में मिलने लगेगी।
राष्ट्रपति महात्मा गांधी मातृभाषाओं को लेकर कहते थे कि ‘राष्ट्र के बालक अपनी मातृभाषा में नहीं, अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है।‘ ऐसे में हमारी सरकारे कहीं ना कहीं इन अधिकारों का हनन करती दिखाई दे रही हैं।
छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए आंदोलन कर रहे नंद किशोर शुक्ला का मानना है कि ‘’जिस भाषा में पढ़ाई-लिखाई नहीं होती, वह कुछ समय बाद स्वमेव समाप्त हो जाती है। ऐसे में हमारी मातृभाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करना ही एकमात्र उपाय है।’’
एक भाषा का समाप्त होना केवल उसका समाप्त होना नहीं बल्कि एक संस्कृति, सभ्यता, समुदाय का समाप्त होना होता है। एक भाषा के पीछे सदियों का अनुभव, सदियों की मेहनत, खून, पसीना, आंसू, जीवन, मृत्यु, संघर्ष सब होता है। क्या हम अपनी भाषाओँ को मरते हुए देख सकते हैं? लेकिन हमारी सरकार लंबे समय से हमारी भाषाओँ को मरते हुए देख रही है। इस मामले में शहरों की गलियों में भटकती गौमाता और इन मातृभाषाओं की स्थिति लगभग एक जैसी ही है।
वर्तमान भाजपानीत सरकारें गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाती है, गौ रक्षा के नाम पर उपकर लेने का फैसला करती हैं। स्वदेशी, भारतीय संस्कृति, स्वभाषा को लेकर गौरव-गुमान की बातें करती हैं। लेकिन भारतीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन के नाम पर उनके एजेंडे में चुप्पी से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है।