प्रथम दृष्टि : वोटकटवा का वजूद
हाल के वर्षों में हर चुनावी दंगल में वोटकटवा का जिक्र होता रहा है। मुकाबला भले ही दो दलों या दो गठबंधनों के बीच सीधा दिखता हो, कोई न कोई छोटी पार्टी किसी न किसी रूप में अपनी दमदार उपस्थिति जरूर दर्ज कराती है। उनसे कोई बड़ा उलटफेर करने की उम्मीद नहीं होती, लेकिन रंग में भंग डालने की उनकी काबिलियत से बड़े दल हमेशा सशंकित रहते हैं। वोटकटवा वैसी पार्टियां कहलाती हैं, जिनका किसी बड़े गठबंधन से तालमेल नहीं हो पाता है। लेकिन, उनके अंदर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता छिपी रहती है।
वोटकटवा बोलचाल की भाषा में प्रयोग में आने वाला ऐसा शब्द है, जिसका तात्पर्य वैसी पार्टी या उम्मीदवारों से होता है, जो अपनी जीत से ज्यादा दूसरों की पराजय तय करने के लिए चुनावी मैदान में उतरते हैं। वोटकटवा शब्द की व्युत्पत्ति वैसे तो बिहार में हुई, लेकिन इसका मतलब इतना सटीक है कि इसे देश के अन्य प्रांतों में, यहां तक कि गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी अपना लिया गया। इसका पर्याय अन्यत्र मिलता भी नहीं। अंग्रेजी के ‘वोट-कटर’ या ‘वोट स्पॉयलर’ में वो बात कहां!
चुनावों में उनकी भूमिका पर अभी तक बहुत शोध नहीं हुआ है, वरना पता चलता कि अब तक कितनी सरकारों को बनाने और बिगाड़ने में इनका हाथ रहा है। इसका कारण यह है कि इन्हें बहुत गंभीरता से कभी नहीं लिया गया। विरोधी इन्हें लोकतंत्र के महापर्व में खलल डालने वाला समझकर उपहास उड़ाते हैं और विश्लेषक इन्हें चुनाव में महज एक ‘नेसेसरी ईविल’ के रूप में देखते हैं। कुछ का तो मानना है कि उनकी वजह से कभी-कभी जनमत के खिलाफ अप्रत्याशित परिणाम भी आ जाते हैं, जो लोकशाही में निहित बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है। जो भी हो, बहुदलीय चुनाव प्रणाली वाले इस देश में किसी व्यक्ति, दल या गठबंधन को चुनाव लड़ने की मौलिक स्वतंत्रता तो है ही।
हाल में संपन्न हुए बिहार चुनाव के परिणामों का देखें तो प्रजातंत्र में ‘वोटकटवा’ के वजूद को दरकिनार नहीं किया जा सकता, भले ही बड़ी पार्टियां इसे स्वीकारें या नहीं। इस चुनाव में कई ऐसे छोटे दल या गठबंधन थे जिन्हें जाति समीकरण या किसी अन्य कारण से वोटकटवा की संज्ञा दी गई। चुनाव में शामिल होने वाले दोनों प्रमुख गठबंधन– नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एनडीए और तेजस्वी प्रसाद यादव के महागठबंधन को यह शिकायत रही कि वोटकटवा पार्टियों के कारण उन्हें अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं मिले। जद-यू नेताओं का तो मानना है कि चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के एनडीए के खिलाफ चुनाव लड़ने से उन्हें कम से कम 30 से 35 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और उनकी पार्टी सिर्फ 43 सीटों पर सिमट गई। बहुमत से मात्र 12 सीट पीछे रहे महागठबंधन को भी यह अफसोस है कि असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम के सीमांचल में चुनाव लड़ने से वे सत्ता में आने से चूक गए।
हमारे इस अंक के आवरण पर ओवैसी ही हैं, जिनकी पार्टी ने वोटकटवा कहे जाने के बावजूद इस चुनाव में सीमांचल के पांच विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल कर अपनी मौजूदगी का जोरदार एहसास कराया। यह वही मुस्लिम बहुल इलाका है, जहां राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस को बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। लेकिन ओवैसी की पार्टी ने उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। बड़ा सवाल यह है कि क्या एआइएमआइएम जैसी पार्टी को सिर्फ वोटकटवा के रूप में ही मत प्राप्त हुआ है या इसे जमीनी स्तर पर लोगों का समर्थन भी है? इस चुनाव के परिणामों के विस्तृत आकलन से यह स्पष्ट हो पाएगा। बड़ी पार्टियां अक्सर यह दावा करती हैं कि आज के मतदाता अपना कीमती वोट जाया नहीं करते और अंतिम समय में वे दो सबसे मजबूत दलों के उम्मीदवारों में से ही एक को चुनते हैं। पिछले कुछ चुनावों में छोटे दलों या निर्दलीय उम्मीदवारों की लगातार घटती संख्या उनके इस दावे को पुख्ता करती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि छोटे दल सिर्फ वोटकटवा की भूमिका अदा करते हैं। उनमें से कुछ का अपना जनाधार भी होता है।
लोक जनशक्ति पार्टी को भले इस चुनाव में मात्र एक सीट मिली, लेकिन 5.66 फीसदी वोट पाकर उसने अपना जनाधार बरकरार रखा है। फिर, ओवैसी की पार्टी को मिली जीत मतों के ध्रुवीकरण से ज्यादा बिहार में सीमांचल की वर्षों से की गई उपेक्षा के कारण लगती है। पिछले कुछ वर्षों में ओवैसी की पार्टी ने उस क्षेत्र में अपनी पैठ बनाकर एक नया विकल्प पेश किया। यह अप्रत्याशित बिलकुल नहीं था। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की जीत में भी एक वजह यही थी। एआइएमआइएम ने इस बार बिहार में 1.24 फीसदी मत के साथ भले ही पांच सीटें ही जीती हों, लेकिन बड़े दलों और गठबंधनों को यह सबक लेने की जरूरत है कि वे मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरंगे तो छोटी पार्टियों के आगे बढ़ने का रास्ता खुलता रहेगा, भले ही उन्हें वोटकटवा समझा जाता रहे।