मुश्किल भरी राह पर पहला कदम
क्या अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को भारत से जोड़ने वाला पुल था, या यह ऐसी खाई थी जो जम्मू-कश्मीर को भारत से पूरी तरह जोड़ने में बाधक थी? आने वाले दिनों में इस सवाल पर बहस होगी, लेकिन इस बात पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि विशेष दर्जा हटाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने के फैसले का ज्यादातर भारतीयों ने स्वागत किया है। यह कहा जा रहा है कि इस फैसले से जम्मू-कश्मीर में विकास होगा, और गृह मंत्री अमित शाह के शब्दों में, कश्मीर में दशकों पुराने खून-खराबे का अंत होगा।
सरकार ने निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है, लेकिन लंबी और मुश्किल भरी राह में उठाया गया यह पहला कदम ही है। आरोप लगते रहे हैं कि पिछली सरकारों ने जम्मू-कश्मीर की समस्या को सिर्फ सुरक्षा के नजरिए से देखा, राजनीतिक पहलू और स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं की अनदेखी की गई। कुछ आरोप सही हो सकते हैं, लेकिन आज शायद जम्मू-कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए राजनीति और सुरक्षा, दोनों को मिलाकर व्यापक नजरिया अपनाने का मौका है। जम्मू-कश्मीर के लिए अपनाई जाने वाली किसी भी रणनीति में भीतरी और बाहरी, दोनों कारकों को शामिल करना जरूरी है।
हम जम्मू-कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला कह सकते हैं, लेकिन इसके अंतरराष्ट्रीय पहलुओं की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। भारत की सबसे बड़ी चुनौती पाकिस्तान और आतंकवादी गतिविधियों को उसका लगातार समर्थन है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने हाल ही एक बयान में युद्ध की चेतावनी दे डाली। इससे स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान के नेतृत्व और वहां की सेना पर “कश्मीर की आजादी” के साथ एकजुटता दिखाने के लिए कितना दबाव है। भारत को राजनीतिक, राजनयिक और सैनिक दबाव का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को ऐसा कोई भी कदम उठाने से रोकने के इरादे पर दृढ़ रहना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय प्रभाव, आर्थिक शक्ति और सैन्य क्षमता में भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर काफी ज्यादा है। इसलिए पाकिस्तान की किसी भी जवाबी कार्रवाई को कुंद करने के लिए भारत के पास पर्याप्त गुंजाइश है। चीन ने लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने पर आपत्ति जताई है। लेकिन संभावना है कि बयान देने के अलावा वह और कुछ नहीं करेगा। चीन हांगकांग, तिब्बत और शिनचियांग (चीन के हेनान प्रांत का शहर) में अपने कदमों को आंतरिक मामला बताकर सही ठहराता रहा है। इसने जम्मू-कश्मीर में भारत के कदमों की शायद ही आलोचना की हो। जब तक स्थानीय लोगों के साथ सुरक्षाबलों का रवैया खराब नहीं होता, तब तक बाकी दुनिया के लिए कश्मीर महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है।
कश्मीर की आंतरिक समस्याओं से निपटना ज्यादा जटिल चुनौती है। जो कश्मीरी पहले से खुद को अलग-थलग महसूस करते थे, राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित करने से उनमें यह दूरी और बढ़ेगी। यह भी स्पष्ट है कि राज्य में हमेशा कर्फ्यू लागू नहीं रह सकता और न ही इंटरनेट सेवाएं हमेशा के लिए बंद रहेंगी। जब भी ढील होगी, प्रदर्शनकारी सड़कों पर निकलेंगे। उन प्रदर्शनकारियों के साथ किस तरह निपटा जाता है, वह सरकार की रणनीति की पहली परीक्षा होगी।
2016 में कश्मीर में हुए प्रदर्शन के बाद चोटिल चेहरे और पथराई आंखों वाली तसवीरें खूब दिखाई गईं। सुरक्षाकर्मी वहां जो चुनौतियां झेलते हैं, उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। प्रदर्शनकारियों के साथ झड़प में करीब चार हजार सुरक्षाकर्मी जख्मी हुए थे। इस बार सरकार ज्यादा तैयारी के साथ दिखी। लेकिन सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि आम लोग भी कम से कम ही जख्मी हों या मारे जाएं। मैं जानता हूं कि यह कहना बहुत आसान है, लेकिन कश्मीर में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस बलों ने संयम की नीति अपनाई है। सरकार के बयानों से यह साफ है कि वह जम्मू-कश्मीर में आर्थिक विकास पर फोकस करना चाहती है।
ऐसे राज्य में जहां बेरोजगारी का स्तर काफी ऊंचा है, यह कदम स्वागत योग्य है। लेकिन इस बात को भी समझना होगा कि सिर्फ विकास के जरिए लोगों की भावनात्मक दूरी और उनकी आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया जा सकता है।
कॉन्फ्लिक्टः ह्यूमन नीड्स थ्योरी किताब के लेखक जॉन बर्टन के अनुसार, “समाज में अपनी पहचान तलाश रहे युवाओं को बेरोजगारी से जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई किसी खैरात से नहीं की जा सकती है। इसी तरह, किसी भी देश में अल्पसंख्यकों की नस्ली पहचान खोने की भरपाई वोट देने के अधिकार से नहीं हो सकती है। वहां अलग होने की मांग हमेशा बरकरार रहती है।” यह जरूरी है कि सरकार लोगों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाए और उनकी आशंकाएं दूर करने के लिए
कदम उठाए। इसका असर सिर्फ कश्मीर में नहीं बल्कि देश के बाकी हिस्सों में रहने वाले अल्पसंख्यकों पर भी होगा। रिचर्ड के. बेट्स ने अपने शोध-पत्र इज स्ट्रैटजी ऐन इल्यूजन में लिखा है, “रणनीति एक तरह का मायाजाल है, क्योंकि पहले से यह अनुमान लगा लेना व्यावहारिक नहीं कि किस रणनीति में जोखिम ज्यादा है और किसमें कम। किसी भी रणनीति पर सवाल उठाए जा सकते हैं।” इन चुनौतियों के बावजूद सरकार को ऐसी रणनीति बनानी चाहिए जिससे कश्मीर के बेहतर भविष्य का निर्माण किया जा सके।
(लेखक भारतीय सेना में उत्तरी कमान के प्रमुख रह चुके हैं)