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17 February 2025

कर्पूरी ठाकुर : अदृश्य समुदायों का भारत रत्न जननायक

कर्पूरी ठाकुर को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न, से सम्मानित किए जाने के बाद, वह देश की मुख्यधारा मीडिया में ‘समाजवादी आइकन’ के रूप में चर्चा का विषय बन गए हैं। यह सम्मान प्राप्त करने वाले वे बिहार के चौथे व्यक्ति हो गए हैं। उनसे पहले यह सम्मान बिहार से डॉ. राजेंद्र प्रसाद (प्रथम राष्ट्रपति), लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को दिया जा चुका है। कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के राजनीतिक इतिहास में उल्लेखनीय योगदान दिया और वे राज्य के द्वितीय उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री वह अविजेय विधायक रहे।

जननायक, भीड़ का आदमी, बिहार का गांधी, झोपड़ी का लाल, शोषित-वंचितों का मसीहा और न जाने कितने अन्य नामों से याद किए जाने वाले कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के घर पितौंझिया गांव में एक फूस के घर में साधारण परिवार में हुआ। बाद में उनकी स्मृति में इस गांव का नाम बदलकर ‘कर्पूरीग्राम’ कर दिया गया। उनके बचपन का नाम कपूरी था, जिसे पंडित रामनंदन मिश्र ने बदलकर कर्पूरी ठाकुर कर दिया। हालांकि, उनका कपूरी नाम 1952 के चुनाव तक प्रचलित रहा। उन्होंने महात्मा गांधी के अंत्योदय से सर्वोदय और लोहिया के विशेष अवसर के सिद्धांत को जमीन पर उतारने का कार्य किया। उनकी सादगी, कर्मठता और कार्यों ने समाज की वंचित जातियों को प्रेरणा दी, जिसके कारण देश उनका जन्मदिवस समता और स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाता है। देशभर के लोग उनके प्रति अपनी श्रद्धा और उनके कार्यों के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं। यह उस महान व्यक्तित्व की राजनीतिक सादगी है, जिसने अपना संपूर्ण जीवन समाज के वंचित वर्गों और दलितों के सामाजिक व राजनीतिक उत्थान और सशक्तिकरण के लिए समर्पित कर दिया। इसी कारण, सामाजिक संरचना की वंचित जातियों के लोगों ने उन्हें जननायक के नाम से संबोधित किया।  

पहली बार 23 अक्टूबर 1943 को जेल गए, जहाँ उन्होंने समाजवाद का पाठ सीखा। उसी दौरान उन्होंने कई आमरण अनशन किए, जिनके कारण वे एक नेता के रूप में स्थापित हो गए। 1945 से 1947 तक कर्पूरी ठाकुर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की दरभंगा जिला इकाई के मंत्री रहे। 1947 में वे बिहार प्रादेशिक किसान सभा के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। कर्पूरी ठाकुर की बढ़ती लोकप्रियता और उनके नेतृत्व कौशल को देखते हुए ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से उन्हें उम्मीदवार बनाया गया, जिसमें उन्होंने राजा कामाख्या नारायण सिंह की पत्नी और कांग्रेस उम्मीदवार रामसुकुमारी देवी को 2,431 मतों से हराकर जीत हासिल की। कर्पूरी ठाकुर की यह चुनावी जीत केवल एक व्यक्ति की सफलता नहीं थी, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संदेश का प्रतीक बन गई। जब पूरे देश में समाजवादियों को हार का सामना करना पड़ रहा था और कांग्रेस का दबदबा बढ़ रहा था, तब कर्पूरी ठाकुर ने अपनी संघर्षशीलता और जनता के प्रति प्रतिबद्धता के माध्यम से राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत की और यह जीत का सिलसिला जीवन भर चलता रहा।

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वर्ष 1967 भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब समाजवादी विचारधारा का उदय हुआ और महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में सरकार बनी, जिसमें कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने। कर्पूरी ठाकुर चौथी बार चुनाव जीतकर आए, जहां उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार बी. एन. सिंह को 16,462 मतों के बड़े अंतर से हराया।

हालांकि, डॉ. राम मनोहर लोहिया कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे, लेकिन उच्च जाति के नेताओं का एक वर्ग इसके खिलाफ था। इसके अलावा, महामाया प्रसाद सिन्हा ने पटना पश्चिम से तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय को हराया था, और इस आधार पर यह तर्क दिया जा रहा था कि जिसने मुख्यमंत्री को हराया है, उसे ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। अंततः, महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर सहमति बनी और उनके नेतृत्व में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी संयुक्त मोर्चा सरकार का गठन हुआ, जिसमें कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री बनाया गया।

महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी संयुक्त विधायक दल की सरकार में 5 कैबिनेट और 5 राज्य मंत्री पिछड़ी जातियों से थे, जिनमें कर्पूरी ठाकुर, रामदेव महतो, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, भोला प्रसाद सिंह और प्रेमलता राय शामिल थे। यह पहली बार था जब बिहार सरकार में पिछड़ी जातियों के इतने प्रतिनिधि मंत्री बने। सरकार को 164 विधायकों का समर्थन था, जो सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का संकेत था। हालांकि, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के मंत्री बनने को लेकर विवाद था, और डॉ. लोहिया इसका विरोध करते थे। 25 अगस्त 1967 को मंडल ने असंतुष्ट विधायकों को मंत्रिपद का लालच देकर शोषित दल का गठन किया। 25 जनवरी 1968 को अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 163 और सरकार के पक्ष में 150 मत पड़े, जिसके परिणामस्वरूप महामाया सरकार गिर गई। इस तरह, महामाया-कर्पूरी ठाकुर की सरकार सिर्फ 10 महीने चल सकी।

वर्ष 1970 में कर्पूरी ठाकुर ने अपने गृह क्षेत्र ताजपुर से लगातार पाँचवीं बार चुनाव जीतकर राजेंद्र महतो को 13,485 मतों से पराजित किया और 22 दिसंबर 1970 को बिहार के मुख्यमंत्री बने। इस कार्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए, हालांकि 1970-71 में उनका मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल छह महीने से भी कम समय का था, जो उनके लिए खुद को और अन्य लोगों को साबित करने के लिए बहुत कम था। इस दौरान, उन्हें उच्च जाति के राजपूत नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा के विरोध का सामना करना पड़ा।

24 जून 1977 को पटना के गांधी मैदान में भारी भीड़ के सामने कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। जनता पार्टी के जनांदोलन के माध्यम से सत्ता में आने के कारण गांधी मैदान का चयन उपयुक्त था, और इस अवसर पर कर्पूरी ठाकुर ने अपने दूसरे आगमन की घोषणा की। उनके मंत्रिमंडल में दस कैबिनेट मंत्री शामिल थे, और इस सरकार में पहली बार ओबीसी (42 प्रतिशत) के मंत्रियों की संख्या उच्च जाति (29 प्रतिशत) के मंत्रियों से अधिक थी, विशेष रूप से यादवों को प्रमुख स्थान मिला।

3 नवंबर 1978 को पटना के गांधी मैदान में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने आरक्षण के खिलाफ टिप्पणी की, जिस पर भीड़ का एक हिस्सा ताली बजाया और बड़ा हिस्सा नाराज हुआ। इस रैली में कर्पूरी ठाकुर भी मौजूद थे, जो प्रधानमंत्री के भाषण से असहज महसूस कर रहे थे क्योंकि उन्होंने "कोटा के भीतर कोटा" लागू करने का वादा किया था। रैली के बाद, कर्पूरी ठाकुर ने प्रधानमंत्री को हवाई अड्डे तक विदा किया और फिर सचिवालय लौटकर रात 8:30 बजे पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी। कर्पूरी ठाकुर के इस फैसले से उन्हें कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, और उनके सहयोगी दलों, विशेष रूप से भारतीय जनसंघ, ने विरोध किया। उधर, ओबीसी की मजबूत जातियाँ नाराज थीं क्योंकि उन्होंने ओबीसी आरक्षण को दो भागों में बांट दिया था, जिसे वे एकता को खंडित करने के रूप में देखते थे। इस प्रकार, वह दो स्तर पर घिर गए थे, जिसके कारण कर्पूरी ठाकुर ने अपनी नीति में संशोधन किया और 20 प्रतिशत आरक्षण के फैसले को बदलते हुए 3 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं और गरीबों के लिए भी देने का निर्णय लिया। 10 नवम्बर 1978 को तीन अलग-अलग प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें 20 प्रतिशत आरक्षण, 3 प्रतिशत महिलाओं के लिए, और 3 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर उच्च जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस प्रकार, कुल आरक्षण 26 प्रतिशत हो गया। 

भारत रत्न जननायक कर्पूरी ठाकुर को बिहार ही नहीं संपूर्ण भारत की सियासत में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाला नेता माना जाता है इसी कारण बिहार की जनता ने उन्हें भीड़ का आदमी, बिहार का गांधी, झोपड़ी का लाल, घर का आदमी, शोषितों-वंचितों का मसीहा के सम्मान से नवाज़ा। कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने की दिशा में उनके सफल प्रयासों के अलावा, विधायी व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप काफी प्रभावशाली व सराहनीय रहा है। वर्ष 2003 में बिहार सरकार ने दो खण्डों में उनके विधायी हस्तक्षेपों और बहसों को प्रकाशित किया था ताकि देश उनके संसदीय जीवन से सीख ले सकें। आज के दौर में जननायक कर्पूरी ठाकुर के जीवन और उनके राजनीतिक उतार चढ़ाव से लोगों को अवश्य सीख लेना चाहिए।

लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं। विचार निजी हैं।

 

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TAGS: Karpoori Thakur death anniversary article, karpoori Thakur, bihar politics
OUTLOOK 17 February, 2025
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