फिर कश्मीर बीच बहस में
छब्बीस फरवरी को भारत के हवाई हमलों से जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसे हालात बन गए तो ब्रिटिश अखबार गार्जियन के डिप्लोमेटिक एडिटर पैट्रिक विंटोर ने लिखा, “इस बार भारत और पाकिस्तान को युद्ध टालने के लिए कौन मनाएगा?”
अतीत में अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने अपने निजी कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर दोनों देशों को युद्ध टालने के लिए मना लिया था। करगिल युद्ध के दौरान 1999 में बिल क्लिंटन ने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फटकार लगाई थी। दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने ऐसा ही किया। दिसंबर 2008 में मुंबई आतंकी हमलों के बाद तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने भारत को जवाबी कार्रवाई से रोका और जांच में सहयोग के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाया।
कश्मीर विवाद को द्विपक्षीय मुद्दा बताते हुए भारत तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से इनकार करता रहा है। लेकिन, संघर्ष की स्थिति में वह अंतरराष्ट्रीय दबाव (इस पर निर्भर करता है कि उस वक्त भारत का राजनीतिक झुकाव किस तरफ है) में आ जाता है। ताशकंद समझौते और 1971 की लड़ाई खत्म करने को तत्कालीन सोवियत संघ का दबाव था।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके विदेश मंत्री माइक पोंपियो अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही दक्षिण एशिया में हस्तक्षेप कर पाएंगे, इसको लेकर विंटोर ने संदेह जताया। अब जबकि दुनिया पहले की तरह दो खेमों में नहीं बंटी है, पुतिन, टेरीजा मे, इमैन्यूएल मैक्रां या एंजेला मर्केल से भी दखल दे पाने को लेकर संदेह है। पाकिस्तान के “घनिष्ठ मित्र” चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत को स्वीकार्य नहीं हैं। फिर भी, उत्तर कोरियाई नेता के साथ महत्वपूर्ण बैठक में व्यस्त ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान संघर्ष में हस्तक्षेप किया।
ट्रंप ने किन कारणों से दखल दिया, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। नरेंद्र मोदी और भारत से अमेरिका की करीबी है। साथ ही चीन की ओर झुक रहे पाकिस्तान में भी उसका प्रभाव है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) पर भी अमेरिका का नियंत्रण है, जबकि पाकिस्तान को उससे बेलआउट की सख्त जरूरत है। पाकिस्तान को अपनी तरफ रखना ट्रंप की मजबूरी भी है। अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को बाहर निकालने के लिए उन्हें पाकिस्तानी जमीन और संसाधानों की दरकार है। इसके लिए ट्रंप ने 2020 की तीसरी तिमाही तक अपने “जवानों के घर लौटने” की मियाद तय की है ताकि वे अमेरिकी मतदाताओं को यह कामयाबी दिखाकर दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए वोट मांग सकें।
ट्रंप के अफगान-अमेरिकी विशेष दूत जालमे खलीलजाद फिलहाल तालिबान के साथ अहम वार्ता में लगे हैं, जिसे इस्लामाबाद नियंत्रित करता है। “आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई” में मदद नहीं करने पर ‘सजा’ के तौर पर पाकिस्तान को फंड जारी न करने वाले ट्रंप ने ही सऊदी अरब और यूएई से उसे मदद मिलना सुनिश्चित किया है। भारत और पाकिस्तान से अपने अधिकारियों की बातचीत के बाद ट्रंप ने “बहुत अच्छी खबर” आने की बात कही थी। इसके कुछ घंटों बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारतीय वायु सेना के पायलट अभिनंदन वर्धमान को रिहा करने की घोषणा की।
चीन-पाक आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में अपने भारी-भरकम निवेश को बचाने के लिए चीन ने भी पाकिस्तान पर दबाव बनाया। भारत के साथ परमाणु युद्ध न सही, पारंपरिक युद्ध भी पाकिस्तान को घुटनों पर लाकर वहां शासन में बदलाव ला सकता है, जैसा करगिल के बाद हुआ था। पाकिस्तान की सर्वशक्तिशाली सेना इमरान खान को नाकाम नेता बताकर वैसे ही हटा सकती है, जैसे मुशर्रफ ने किया था। ऐसा होने पर चीन की उलझनें बढ़ सकती हैं। सीपीईसी और हिंद महासागर में दबदबा बढ़ाकर चीन ग्लोबल सुपर पावर बनने की महात्वाकांक्षा रखता है। दरअसल, दक्षिण एशिया सबके लिए अंत्यत महत्वपूर्ण हो गया है। वैसे भी, वैश्विक ताकतें यथास्थिति में बदलाव नहीं चाहतीं, भले ही हालात कितने भी असहज क्यों न हों। भारत या पाकिस्तान की राष्ट्रवादी भावनाओं को संतुष्ट करने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
चुनावी फायदे के लिए मोदी के नाटकीय अंदाज पर काफी कुछ कहा जा चुका है। आम चुनाव बमुश्किल सात हफ्ते दूर हैं, इसलिए निर्णायक कार्रवाई को लेकर दावों में और तेजी आएगी। लेकिन, इस संघर्ष ने कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ दिया है। लंबे समय तक संघर्ष मोदी को चुनाव जीतने में मदद करता। तीन दिनों में संघर्ष खत्म होने से फायदा सीमित हो सकता है। इससे दाल-रोटी के मुद्दे फिर से बहस में आएंगे और पाकिस्तान पर फोकस कम होगा। सीमा पर पाकिस्तान की ओर से तनाव भारत के लिए ‘सामान्य’ है। विश्व समुदाय के सिर्फ मौखिक समर्थन के बावजूद उसे आतंकवाद से खुद लड़ना होगा। अंतरराष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्टों और टिप्पणियों में 26 फरवरी के हवाई हमले के फायदे पर भारत के दावों को लेकर सवाल उठे हैं। इस पर विश्वसनीयता बहाल करनी होगी। पाकिस्तान ने कुटिलता दिखाते हुए पुलवामा हमले में जैश या उसके मुखिया की संलिप्तता के “सबूत” मांगे। अपने ‘स्थायी’ दुश्मन को लेकर पाक के दृष्टिकोण और रवैए में किसी बदलाव की उम्मीद नहीं है। उसने बेहद चतुराई से जैश के मामले को दबाने के लिए आतंकवाद से खुद को पीड़ित के तौर पर पेश किया है। घरेलू दबावों के बावजूद इमरान सरकार कश्मीर पर बातचीत का राग अलापती रही। उसने दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि चुनाव तक भारत इसके लिए तैयार नहीं होगा और मोदी सरकार चुनावी फायदे के लिए आक्रामक दिख रही है।
ऐसे में भारत के लिए कश्मीर पर राजनयिक अभियान महत्वपूर्ण हो गया है। अपने बढ़ते आर्थिक दबदबे से हाल के वर्षों में भारत विश्व समुदाय में कश्मीर मुद्दे को भोथरा करने में कामयाब रहा था। लेकिन पुलवामा और हवाई संघर्ष के बाद न केवल आतंकियों और अलगाववादियों, बल्कि नागरिकों पर भी बल प्रयोग की रणनीति ने फिर से इस मुद्दे को दुनिया के सामने ला दिया है?
(लेखक मलेशियाई अखबार द न्यू स्ट्रेट्स टाइम्स के स्तंभकार हैं और विदेश मामलों पर लिखते हैं)