श्रमिकों को गांव भेजने से कम होगा कोरोना संक्रमण का खतरा
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 20 अप्रैल 2020 से हॉटस्पॉट क्षेत्रों को छोड़कर बाकी इलाकों में कुछ आर्थिक गतिवधियां शुरू करने की अनुमति देते समय प्रवासी श्रमिकों के अंतरराज्यीय आवागमन पर प्रतिबंध लगाने की एडवायजरी जारी की थी। कर्नाटक सरकार ने पांच मई को श्रमिकों के लिए स्पेशल ट्रेन चलाने का अनुरोध वापस ले लिया। दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक और अन्य राज्यों की झुग्गी बस्तियों और राहत शिविरों में रह रहे इन बेरोजगार श्रमिकों को कुछ सुविधाएं दी गई थीं। लेकिन ये सुविधाएं नाकाफी साबित होने लगीं। तमाम तरह के कार्यों के लिए उनकी कुशलता पता लगाने के लिए स्थानीय अधिकारियों के समक्ष उनके पंजीकरण की अनिवार्यता स्वागत योग्य कदम है। लेकिन अधिकांश श्रमिकों के लिए कोरोना की आशंका के बीच रहना कष्टकारी है जबकि बचकर गांव जाना सुविधाजनक और सुरक्षित है।
दुर्भाग्यवश कोरोना वायरस के बारे में जागरूकता सोशल मीडिया के शोर के बीच बहुत कम है। किसी कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति को पढ़े-लिखे लोग भी कुष्ठ रोगी की तरह देखते हैं, ऐसे में किसी से मदद की कोई उम्मीद नहीं हो सकती है। इन स्थितियों में अंतरराज्यीय आवागमन के लिए सुरक्षित और व्यावहारिक व्यवस्था बनाना जरूरी है क्योंकि बड़ी संख्या में श्रमिक कम से कम कुछ महीनों के लिए अपने खेतों की देखरेख करने और इस खतरनाक बीमारी से बचकर स्वास्थ्य लाभ पाने के लिए जाना चाहते हैं।
देश में जब कोरोना मरीजों और मरने वाली की संख्या लगातार बढ़ रही है, ऐसे में तमाम क्षेत्रों और जिलों के लिए एक्जिट प्लान और कंटेनमेंट स्ट्रैटजी तैयार करना चुनौतीपूर्ण काम है। लॉकडाउन के पहले और दूसरे दौर में प्रतिबंध खासतौर पर संक्रमण के शिकार देशों से आने वाले लोगों से वायरस फैलने से रोकने के लिए लगाए गए थे। इस रणनीति की सफलता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अनेक शहरों के उच्च और मध्यम वर्ग की कॉलोनियों में कोरोना मरीजों की संख्या बहुत कम है और 300 से ज्यादा जिलों में पूरे एक महीने से कोई नया केस सामने नहीं आया।
ज्यादा शहरी आबादी वाले छह राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में दूसरे राज्यों के 60 फीसदी से ज्यादा प्रवासी मजदूर है। इन राज्यों में ही देश के 53 फीसदी कोरोना केस हुए हैं। इन राज्यों की 25 से 40 फीदी शहरी आबादी अपने राजधानी क्षेत्रों में रहती है। इन शहरों के तमाम हिस्से हॉटस्पॉट घोषित किए गए और वहां संक्रमण रोकने के उपाय तेज करने पड़े। यह समझना मुश्किल नहीं है कि इन शहरों में संक्रमण की रफ्तार खासकर लॉकडाउन के दौरान तेज क्यों रही। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में शहरी आबादी करीब 30 फीसदी है। वहां 40 फीसदी परिवार एक कमरे के घर में रहते हैं। उनके प्रमुख शहरों में इसका अनुपात और ज्यादा है। ग्रेटर मुंबई और कोलकाता में क्रमशः 40 फीसदी और 30 फीसदी लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 17 फीसदी है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में घर में पेयजल और टॉयलेट की सुविधा से वंचित परिवारों का अनुपात राष्ट्रीय औसत से 10 फीसदी ज्यादा है। मुंबई और बेंगलुरु नगर निगमों ने कम से कम पांच फीसदी परिवारों को रिकॉर्ड किया है जिनमें कम से कम एक जोड़े (पति-पत्नी) के पास अपना अलग कमरा नहीं है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर इसका अनुपात दो फीसदी है। गुजरात और दिल्ली के साथ महाराष्ट्र में दूसरे राज्यों के 40 फीसदी प्रवासी मजदूर रहते हैं। इन ग्लोबलाइज्ड शहरों के निकटवर्ती क्षेत्रों में दयनीय स्थिति में रहने वाली आबादी बहुत ज्यादा है। वहां थोड़े समय के लिए आने वाले प्रवासी मजदूरों की भी बड़ी आबादी है।
शहरों में इन परिस्थितियों के बीच सोशल डिस्टेंसिंग का अनुपालन करना असंभव होना लाजिमी है। जबकि वहां 40 फीसदी श्रमिक अपनी आजीविका गवां चुके हैं या फिर गंवाने का खतरा बना हुआ है। उन्हें सरकारी मदद पाने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है। इस पर भी 35 फीसदी परिवारों को एक कमरे में गुजारा करना पड़ता है और इतने ही परिवार पेयजल और टॉयलेट के लिए सार्वजनिक सुविधाओं पर निर्भर हैं। अपने घरों या बस्ती से बाहर जाने पर इन लोगों पर किसी तरह की पाबंदी से उनके बीच सामाजिक निकटता ही बढ़ेगी। उन्हें लाइनों में खड़े रहना होगा या फिर एक साथ बैठना और रहना होगा। इन स्थितियाें में झुग्गी बस्तियों में संक्रमण फैलने की आशंका और बढ़ जाएगी। आज इन शहरों के अधिकांश हॉटस्पॉट इन्हीं बस्तियों में हैं। पिछले कुछ हफ्तों में अधिकांश केस इन्हीं बस्तियों से आ रहे हैं।
दुर्भाग्य से हमारे यहां अभी संकट का सबसे बुरा दौर नहीं बीता है। हम महामारी या फिर आर्थिक संकट से जिंदगियां बचाने के सवाल से जूझ रहे हैं। स्थायी आर्थिक विकास के मुद्दे इस समय बेमानी हो गए हैं। जन कल्याण खासकर सरकारों की स्वास्थ्य सेवाएं सुचारु रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, क्योंकि राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ रही है और राजस्व संग्रह घट रहा है।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि गांवों में प्रवासियों की वापसी खतरनाक हो सकती है। यात्रा के दौरान वे संक्रमित हो सकते हैं और समुचित चिकित्सा नहीं मिली तो वे वायरस को गांव में ले जा सकते हैं। सवाल है कि वर्तमान स्थितियों में उन्हें घनी बस्तियों और अनियोजित तरीके से बनी इमारतों में रखना जोखिम भरा है या फिर भरण-पोषण के लिए आर्थिक मदद इस तरह दी जाए कि भीड़ कम हो। इन परिस्थितियों में केद्र सरकार को प्रवासी मजदूरों के वर्तमान स्थानों से सुरक्षित तरीके से निकालने के लिए उनके गृह राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, ओडिशा वगैरह में उन्हें पहुंचाने के लिए ट्रांसशिप प्वाइंट बनाएं। वहां से राज्य सरकारें उन्हें जिला मुख्यालय पर पहुंचाने की जिम्मेदारी लें, जहां चिकित्सा जांच के बाद उन्हें कुछ समय के लिए क्वारेंटाइन किया जाए। एक मोबाइल एप्लीकेशन विकसित की जा सकती है जिसमें श्रमिक अपने स्थान, ठहरने की अवधि, व्यावसायिक कुशलता और राज्य के भीतर या बाहर रोजगार की संभावना जैसी सूचनाएं दर्ज कर सकते हैं। बाद में उन्हें इसी के जरिये ई-परमिट जारी किया जा सकता है। सभी राज्यों में गतिविधियां शुरू करने के लिए जिले के भीतर आवागमन शुरू करना होगा ताकि कंस्ट्रक्शन गतिविधियों, मंडियों और गांव-शहरों में उद्योगों में लोडिंग-अनलोडिंग के लिए श्रमिकों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। यह उम्मीद करना बेकार है कि कोई व्यक्ति संक्रमित नहीं होगा, लेकिन इससे कम लोग संक्रमित होंगे, इसकी तुलना में गंदगी और भीड़-भाड़ वाले शहरी इलाकों में रहने के लिए बाध्य श्रमिक ज्यादा संक्रमित हो रहे हैं।
(लेखक जवाहर लाल नेहरू यूनीवर्सिटी के प्रोफसर रहे हैं।)