नजरिया: यह राउंड तो नीतीश का
“भाजपा के जोड़-तोड़ ऑपरेशन के जवाब में जदयू नेता ने राजद के रिजर्व पावर से गोटियां बिछाईं”
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों दो बड़े राजनैतिक फैसले किए हैं, अपने पुराने प्रिय लेकिन इधर आंख दिखा रहे सहयोगी केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह का राज्यसभा का टिकट काटना और राज्य में जातिवार जनगणना कराना। ये दोनों फैसले सरकार में सहयोगी और अब सीनियर पार्टनर भाजपा की मर्जी के खिलाफ लिए गए। आरसीपी के नाम से चर्चित रामचंद्र बाबू के सवाल पर तो भाजपा ने कुछ घोषित रूप से नहीं कहा, लेकिन जातिवार जनगणना पर उसका विरोध जगजाहिर है। फिर भी न भाजपा ने आरसीपी को अपने कोटे से राज्यसभा दी, न उन्हें आगे केंद्रीय मंत्रिपरिषद में रखने का संकेत दिया है। जातिवार जनगणना के मामले में तो उसने अपनी पोजीशन बदलकर पहले सर्वदलीय बैठक मंे हिस्सा लिया और बाद में हुए फैसले से भी सहमति जताई।
सामान्य स्थिति में इन कदमों और फैसलों को नीतीश कुमार की मजबूती और भाजपा के कमजोर पड़ने के रूप में देखा जाता लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। संभव है यह भाजपा-जदयू के संबंधों के बिगाड़ का एक निर्णायक मोड़ साबित हो जाए, जिसके परिणाम राष्ट्रपति चुनाव बीतने के बाद दिख सकते हैं। यह सही है कि केंद्र में मंत्री बनने से लेकर अब तक आरसीपी अगर नीतीश कुमार से दूर होते गए और उनकी मर्जी के विपरीत चलने लगे थे तो यह बिना भाजपा के इशारे के संभव न था। नीतीश कुमार के कई सहयोगी केंद्र में मंत्री बनने के लिए शेरवानी पजामा सिलवा चुके थे, लेकिन भाजपा ने सांसदों के अनुपात में मंत्री बनाने की जगह एनडीए के हर सहयोगी दल से सिर्फ एक मंत्री बनाने का फैसला किया तो आरसीपी भर को जगह मिली। अपने प्रशासनिक सेवा वाले दिनों में नीतीश कुमार के विश्वस्त और सबसे निकट सहयोगी आरसीपी तब तक दूर जाना शुरू कर चुके थे। नीतीश कुमार शायद तब भी ललन सिंह को मंत्री बनवाना चाहते थे लेकिन उनका भूमिहार होना और आरसीपी का कुर्मी होना बाधक बना।
असल में, नीतीश इस मसले में अपनी पार्टी की दरार सार्वजनिक नहीं करना चाहते थे, जो पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में भाजपा से काफी पीछे हो चुकी थी। विधानसभा चुनाव के नतीजों के वक्त कुछ ऐसी ही मजबूरी भाजपा की भी थी, जिसका केंद्रीय नेतृत्व बिहार के पुराने सारे नेताओं को कूड़ेदान में डालने और नए नेतृत्व को उभारने का फैसला कर चुका था। ऐसे में नीतीश से भी पंगा लेना भारी पड़ता क्योंकि बहुमत बहुत ही विकट समीकरणों पर बनता था और उसे साधना नीतीश कुमार के लिए ही संभव था। लेकिन तबसे भाजपा या कहें संघ परिवार और नीतीश कुमार के रिश्ते बहुत सामान्य नहीं रह गए। सुशील मोदी के न होने से निजी स्तर पर भी बढ़िया समीकरण की कमी साफ दिखने लगी। कोरोना से लेकर शराबबंदी तक पर भाजपा और संघ परिवार के दूसरे नेता कई तरह से सवाल उठाते रहे और नीतीश सरकार को घेरने की कोशिश करते रहे। लेकिन यह भी तथ्य है कि राज्य सरकार में भाजपा के मंत्रियों का प्रदर्शन अपेक्षाकृत खराब रहा और दोनों उप-मुख्यमंत्री इस सूची में काफी ऊपर रहे हैं। उनके बयानों ने भी सरकार और भाजपा, दोनों की उलझन बढ़ाई।
भाजपा और जदयू के प्रवक्ता अक्सर उलझते दिखे तो भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को कई बार दखल देना पड़ा। केंद्रीय नेतृत्व खुद भी जदयू में ही नहीं, बिहार के अन्य दलों में फूट डालने और अपना आधार फैलाने में लगा रहा। ऐसा अनेक दूसरे राज्यों में हुआ है और बिहार को लेकर भी जब-तब चर्चा चलती रही है। इसमें कांग्रेस के टूटने की चर्चा भी शामिल है, जिसके उम्मीदवार मुख्यत: राजद के गठबंधन के चलते जीते हैं। जीतनराम मांझी की पार्टी और मुकेश सहनी के वीआइपी दल की चर्चा लगातार रही और अंतत: भाजपा ने वीआइपी को निगल ही लिया। जदयू के अंदर भी भाजपा अपने लिए गुंजाइश बनाने में लगी रही और अगर आरसीपी ने केंद्रीय मंत्री तक की कुर्सी दांव पर लगा दी तो जाहिर है भाजपा का अंदरूनी ऑपरेशन काफी दूर तक प्रभावी रहा है। जो आरसीपी नीतीश कुमार के सामने कुर्सी पर बैठने से बचते थे, जो उनके लिए सबसे विश्वस्त थे, वे किस आधार पर बागी होंगे, यह अभी भी सोचना मुश्किल है क्योंकि उनका न कोई राजनैतिक आधार है और न स्वजातीय वोटरों पर कोई ऐसा असर कि वे उन्हें नीतीश कुमार से दूर ले जा सकें। हालांकि अभी भले ही नीतीश कुमार ने उनके राजनैतिक करियर का अपनी ओर से अंत कर दिया हो, उनका यह अड़ियलपना कहां तक जाएगा कहना मुश्किल है। निश्चित रूप से वे लोग उनके साथ होंगे ही जिनके चलते वे बागी बनने तक आए हैं।
नीतीश और भाजपा के बीच खटर-पटर के मामले काफी सारे हैं। भाजपा के मंत्रियों से ही नहीं, विधानसभा अध्यक्ष से भी नीतीश कुमार की परेशानी इतनी बढ़ी कि अपनी नरम छवि के विपरीत नीतीश विधानसभा में ही उबल पड़े। फिर सबने नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के आगे लगभग दंडवत की मुद्रा में नमस्कार करते भी देखा। यह ‘कभी हां, कभी ना’ वाली रणनीति चुनावी जोर आजमाइश में भी बदली। उत्तर प्रदेश चुनाव के समय भी जदयू ने वहां कुछ सीटें पाने का प्रयास किया लेकिन भाजपा नीतीश का उत्तर प्रदेश के कुर्मियों पर प्रभाव मानने को तैयार न थी। लेकिन जब भाजपा वीआइपी पार्टी के विधायकों को निगलने लगी (तब जदयू या नीतीश ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी) तो मुजफ्फरपुर के कुढनी में उपचुनाव हुआ तो जदयू ने भाजपा का खुला विरोध किया। भाजपा के लाख जोर लगाने के बावजूद वह सीट राजद ने आराम से जीत ली। वह सीट पहले वीआइपी पार्टी की थी इसलिए एनडीए की तरफ से ही उसका दावा बनता था।
अब इस जीत में राजद को जदयू के लोगों का साथ मिला हो या नहीं, लेकिन नीतीश कुमार का सीधे-सीधे दो इतने बड़े मामलों में भाजपा नेतृत्व से लोहा लेना और उसकी मर्जी के खिलाफ लिए फैसले मनवा लेने की ताकत के पीछे राजद की शक्ति भी है, जो बार-बार अलग-अलग तरह के प्रेम और दुश्मनी में दिखाई देती है। राजद-जदयू सरकार बने, न बने लेकिन उसकी संभावना सदा बनी हुई है, क्योंकि दोनों को सीधे-सीधे मंडलवादी माना जाता है और दोनों का सामाजिक आधार एक जैसा है। दोनों अब मंडल की राजनीति का विस्तार भी चाहते हैं-प्रशासनिक कुशलता और अगड़ों को साथ लेना भी उनकी प्राथमिकता है। मोदी के चलते या ओबीसी समाज में ठीक-ठाक घुसपैठ कर लेने के बावजूद भाजपा को अब भी ‘पराया’ माना जाता है। अब जाति जनगणना हो या इफ्तार पार्टियों में दिखा मेल-मिलाप या फिर जब-तब तेज प्रताप जैसे हल्के लोगों का जदयू-राजद सरकार की बात करना, यह गठजोड़ असंभव नहीं है। खासकर तब जब नीतीश कुमार खुद को अपमानित महसूस करें और रचनात्मक राजनीति की जगह बर्बादी वाली राजनीति शुरू कर दें। इसलिए भाजपा का डर असली है।
लेकिन उसकी तरफ से भी नीतीश कुमार के दिल्ली की राजनीति में जाने, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ने या फिर प्रदेश में दलबदल और जोड़-तोड़ के जरिए भाजपा सरकार बनाने जैसी चर्चाएं छेड़ने का मतलब सरकार की घेराबंदी भी है। स्कूलों की पाठ्यचर्या में संघ का एजेंडा लाने से लेकर संगठित रूप से भाजपा कार्यकर्ताओं को सरकारी ठेके वगैरह का लाभ देने जैसे काम भी खूब हो रहे हैं। हालांकि भाजपा की दिक्कत नीतीश कुमार के मुकाबले का पिछड़ा तो क्या अगड़ा चेहरा भी न होना है। बिहार भाजपा का कोई भी सांसद आज अपने दम पर अपनी सीट निकालने में सक्षम नहीं लगता। लेकिन इस मामले में नीतीश कुमार भी कमजोर पड़े हैं। संगठन का अभाव उनको पंगु बना रहा है लेकिन अपने मंत्रियों और साथियों के अच्छे कामकाज के साथ राजद का ‘रिजर्व पावर’ उनके लिए संजीवनी का काम कर रहा है। देखना यह है कि उधार की संजीवनी से उनका काम कब तक चलता है क्योंकि भले ही उन्होंने दनादन बमबारी शुरू कर दी हो, भाजपा नेतृत्व ने अपना खुला ऑपरेशन अभी शुरू नहीं किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)