प्रथमदृष्टिः गांधी-मुक्त कांग्रेस?
कभी-कभी कांग्रेस की वर्तमान स्थिति का आकलन करने पर विश्वास नहीं होता कि यह वही राष्ट्रीय पार्टी है, जिसके हाथों में छह दशकों तक देश के शासन की बागडोर थी। हाल में संपन्न हुए पांच राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनाव परिणामों से इसकी खस्ता हालत का पता चलता है। उत्तर प्रदेश में तो इसे मात्र दो सीटों पर जीत हासिल हुई और सिर्फ ढाई प्रतिशत वोट मिले। राजनीति में यकीनन कुछ भी स्थायी नहीं होता, लेकिन क्या ये चुनावी आंकड़े यह बतलाने के लिए काफी हैं कि गौरवशाली इतिहास समेटे देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए अब अपने खोए वजूद को फिर से प्राप्त करना नामुमकिन नहीं तो टेढ़ी खीर जरूर है?
इसकी काफी विवेचना हो चुकी है, लेकिन जो सवाल अनुत्तरित है वह नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व को लेकर है। पिछले कुछ वर्षों से विरोधियों की बात तो दूर, पार्टी के भीतर कई वरिष्ठ नेताओं ने इस परिवार की नेतृत्व क्षमता पर तीखे सवाल उठाए हैं। कुछ समय से हर चुनाव में पराजय के बाद यह कहा जाता रहा है कि कांग्रेस की कमान अब गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता को सौंप दिया जाए। लेकिन, क्या कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रव्यापी अस्तित्व बगैर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बरकरार रह सकता है? आज भी ऐसे कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्ताओं की कमी नहीं जिन्हें लगता है कि पार्टी को प्राणवायु गांधी परिवार से ही मिलती है।
इसमें दो मत नहीं कि गांधी परिवार तमाम आलोचनाओं का सामना करने के बावजूद पार्टी की धुरी बना हुआ है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता कांग्रेस को एकजुट रखने में कामयाब होगा। बेशक, पार्टी में अब भी दिग्गज नेताओं की फौज है जिनकी बौद्धिक क्षमता पर शक नहीं किया जा सकता लेकिन उनमें से बिरले ही कोई होगा जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर कार्यकर्ताओं या मतदाताओं के बीच समान रूप से स्वीकार्यता हो। पी. चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं को दशकों का राजनैतिक अनुभव है, लेकिन क्या वे आज की परिस्थिति में पार्टी में फिर से जान फूंक सकने में सक्षम हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ना कठिन नहीं।
गांधी परिवार पर भले ही कांग्रेस पर वंशवाद थोपने का आरोप लगता रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि पार्टी के पास उसका विकल्प नहीं दिखता। देवकांत बरुआ ने कभी “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” जैसा नारा दिया था। आज यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि गांधी परिवार और कांग्रेस का अन्योन्याश्रय संबंध है। दोनों को एक दूसरे से जुदा करके नहीं देखा जा सकता। यही कारण है कि हर चुनाव में जीत का श्रेय या हार की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ इसी परिवार की समझी जाती है। खेल की तरह सियासत में भी ताली और गाली दोनों के हकदार कप्तान ही होते हैं।
उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम आने के बाद प्रश्न यह भी उठ रहा है कि क्या गांधी परिवार की युवा पीढ़ी पार्टी को सबल नेतृत्व प्रदान करने से चूक गई है? राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी कई वर्षों तक राजनीति से दूर रहीं लेकिन बाद में उन्होंने कांग्रेस को बखूबी चलाया। 2004 से 2014 तक उन्होंने न सिर्फ अपनी पार्टी को बल्कि यूपीए गठबंधन को भी नेतृत्व प्रदान किया। लेकिन, राहुल गांधी और हाल के वर्षों में प्रियंका इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस संसद में 10 प्रतिशत सांसद भेजने में भी असफल रही। 2018 के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में मिली जीत से पार्टी को उम्मीद की नई किरण जरूर दिखी थी लेकिन एक वर्ष बाद के संसदीय चुनाव में उसे फिर निराशा हाथ लगी।
कई राजनीतिक टिप्पणीकार मानते हैं कि राहुल को 2009 में मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री बनाना चाहिए था। उस वर्ष यूपीए की सत्ता में शानदार वापसी हुई थी और राहुल के लिए वह अपने आप को साबित करने का मौका हो सकता था। लेकिन, राहुल ने ऐसा करने से परहेज किया। यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल विवादों और घोटालों के आरोपों से जूझता रहा, जिसकी परिणति केंद्र में भाजपा की वापसी से हुई। भाजपा उसके बाद से निरंतर मजबूत होती गई है। कांग्रेस के कई बड़े नेता दबी जुबान में राहुल पर नेतृत्व की जिम्मेदारी लेने से बचने का आरोप लगाते हैं। कारण जो भी हो, कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को आज भी गांधी परिवार से ही नेतृत्व की अपेक्षा है। गांधी परिवार की नई पीढ़ी की सबसे बड़ी चुनौती नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से टक्कर लेने की है। उसे देश भर में भाजपा विरोधी शक्तियों को यह विश्वास दिलाने की भी आवश्यकता है कि पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व प्रदान करने में अब भी सक्षम है। देश में मतदाताओं की कई नई पीढ़ियां आ गई हैं, जिन्हें आज के दौर में सिर्फ कांग्रेस की विरासत के बल पर नहीं रिझाया जा सकता है। पार्टी को नए सिरे से पुनर्निर्माण करना होगा। लेकिन क्या राहुल और प्रियंका इस चुनौती के लिए तैयार हैं या किसी ऐसे नेता को सामने आना होगा जिसका उपनाम गांधी न हो? हमारी आवरण कथा इसी यक्ष-प्रश्न की पड़ताल करती है।