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17 November 2020

बिहार: जीत की विडंबना और आगे के संदेश

संक्षिप्त आलेख में किसी चुनाव का विश्लेषण करते समय दुविधा होती है कि किस पक्ष पर ज्यादा जोर दिया जाए- पार्टियों पर, मुद्दों पर, मतदाताओं के निर्णयों पर या फिर चुनावी दांवपेच पर। हाल के समय में, खास कर पॉपुलिस्ट (लोकलुभावन) राजनीति के उत्थान के बाद, चुनावी दांवपेच के अध्ययन को महत्व दिया जाने लगा है। मैं चुनावी दांवपेच- चुनाव के टूल, तकनीक, आर्ट और क्राफ्ट (जिसे मैं इलेक्शन टेक्नोलॉजी कहना पसंद करूंगा) पर ध्यान केंद्रित करूंगा। इलेक्शन टेक्नोलॉजी में– रणनीतिक गठजोड़ बनाना, सामाजिक संरचना के मुताबिक उम्मीदवारों और स्टार प्रचारकों का चयन, नारों और संदेशों की रचना, भाव-भंगिमा, सामाजिक इंजीनियरिंग, समाज में मौजूद विभेदों का उपयोग, काडर की भर्ती, चुनावी शोध, हवा बनाना, अफवाह उड़ाना और मीडिया खासकर सार्वजनिक माध्यमों का उपयोग तथा डिजिटल तकनीक के जरिए भय-उन्माद आदि पैदा कर या सब्ज-बाग दिखा कर लोगों के मूड तथा निर्णय को प्रभावित करना शामिल है। तत्क्षण फीडबैक की प्रणाली, रणनीति में बदलाव का लचीलापन और सूक्ष्म स्तर तक, बूथ स्तर तक प्रबंधन भी इलेक्शन टेक्नोलॉजी का हिस्सा है। अब कोई पार्टी इलेक्शन टेक्नोलॉजी की भूमिका की अनदेखी करती है, तो इसका घाटा उसे उठाना पड़ेगा। कहीं से भी अब यह चुनाव का मामूली पक्ष नहीं रह गया है। आज के चुनावों में इस टेक्नोलॉजी पर पकड़ रखने वाले रणनीतिकारों और ‘चाणक्य’ सरीखे नेताओं का कद ऊंचा हो गया है क्योंकि उन्होंने बार-बार यह साबित कर दिखाया है कि किसी पार्टी के बारे में जनता की राय को कैसे बेअसर किया जा सकता है ताकि उसका, पार्टी के चुनाव परिणामों पर कोई असर न हो। उन्होंने जनता के क्षोभ, असंतोष या आकांक्षाओं को चालाकी से उलट-पुलट देने की संभावनाओं को सच कर दिखाया है। यह अकारण नहीं है कि आज के चुनाव को अतीत की बातों की ओर मोड़ दिया जाता है, मानो जनता की स्मृति ही लुप्त हो गई हो। इधर कुछ जानकारों ने इस ओर भी इशारा किया है कि किस प्रकार इलेक्शन टेक्नोलॉजी का विस्तार इस हद तक पहुंच गया हो सकता है कि बहुत ही परिमार्जित, किसी हद तक गुप्त तरीके से चुनाव की प्रणाली के साथ छेड़खानी की जा सके।

बिहार में महागठबंधन पर एनडीए की जीत इलेक्शन टेक्नोलॉजी का उत्कृष्ट उदाहरण है। इलेक्शन टेक्नोलॉजी की अहमियत को समझने के लिए सबसे पहले इस चुनाव की तात्कालिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालते हैं। पहला, कोरोना महामारी की निरंतरता, जिसने न केवल लगभग सवा दो लाख लोगों को संक्रमित किया है बल्कि 1,000 से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। कोरोना प्रभावित लोगों को स्वास्थ्य सेवा देने में राज्य सरकार अक्षम साबित हुई है। दूसरे, महामारी से पहले ही देश में बेरोजगारी की दर पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा थी। महामारी और लॉकडाउन के बाद बेरोजगार बढ़ गए। तीसरे, लॉकडाउन के बाद 20 लाख से ज्यादा बिहारी प्रवासियों को लौटना पड़ा। उन्हें जोखिम भरी यात्रा तो करनी ही पड़ी, भीषण आर्थिक तंगी का सामना भी करना पड़ा। केंद्र और राज्य सरकार उनके प्रति संवेदनशील होतीं, तो उनकी स्थिति बेहतर हो सकती थी। सरकार की मामूली सहायता के प्रति लोगों का गुस्सा साफ दिख रहा था। चौथे, राज्य के एक हिस्से को बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ा लेकिन सरकार की राहत सहायता तुच्छ साबित हुई, जिससे लोगों में रोष था। पूरे राज्य में तीन बार से सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा शासन के प्रति विरोध स्पष्ट था। चुनाव जनता की इच्छा का इजहार भर होता तो सत्तारूढ़ गठबंधन के दोनों दलों को न केवल सीटों का नुकसान होता बल्कि वे सत्ताच्युत हो जाते। लेकिन ऐसा क्या था कि एनडीए गठबंधन जीत गया, ऊपर से गठबंधन के एक दल की सीटें बढ़ गईं तो दूसरे की सिमट गईं?

इस सवाल के जवाब का सूत्र हमें भाजपा द्वारा जटिल किस्म के गठबंधन के प्रयोग में मिल सकता है, जिसने एनडीए की आतंरिक बनावट को बदल डाला। उसने लोक जनशक्ति पार्टी के साथ गुपचुप समझदारी बना ली, जिसके तहत लोजपा ने जदयू के खिलाफ सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे और तीसेक सीटों पर जदयू की जीत की संभावनाओं पर पानी फेर दिया। वैसे लोजपा को एनडीए से इतर स्वतंत्र रूप से मैदान में उतारने का मूल मकसद तो राजद, कांग्रेस और वाम दलों के पाले में दलित वोटों के संपूर्ण ध्रुवीकरण को रोकना था। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और विकासशील इंसान पार्टी जैसी स्पष्ट जातिगत पहचान वाली पार्टियों को एनडीए में शामिल करने का मकसद भी यही था। उच्च जातियों, पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों के साथ एनडीए के भीतर और बाहर संशय के पीछे भाजपा का दोहरा मकसद पूरा हुआ– जदयू का कद छोटा करना और महागठबंधन को नुकसान पहुंचाना। नीतीश कुमार के खिलाफ लोजपा के निरंतर विषवमन ने सत्तारूढ़ गठबंधन के विरुद्ध गुस्से को मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी के खिलाफ मोड़ दिया। भाजपा ने ऐसी भाव-भंगिमा बना ली थी, ताकि मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी के साथ उसका तादात्म्य कम से कम परिलक्षित हो। सुविचारित यह रणनीति जोखिम भरी तो थी लेकिन इसने काम कर दिया। जहां सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए को जीत मिली वहीं जदयू हाशिये पर पहुंचा दी गई। इसका भविष्य में राज्य की राजनीति पर गंभीर असर होगा।

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चुनाव अभियान के दौरान असली लड़ाई परसेप्शन की बन जाती है। एक ओर तेजस्वी यादव के ऊर्जावान नेतृत्व में राजद और जोशखरोश से भरे वाम दलों ने जनता के जीवन से जुड़े सवालों– पढ़ाई, दवाई, सिंचाई और खासकर कमाई को उठाया। दूसरी ओर प्रधानमंत्री समेत एनडीए नेतृत्व ने राम मंदिर, अनुच्छेद 370, जय श्रीराम, मुस्लिम घुसपैठिये और लालू-राबड़ी शासन के 15 साल के ‘जंगल राज’ को तरजीह दी।

महागठबंधन के मुद्दे सबको जोड़ने वाले और बिहारियों के ‘सच्चे’ विकास का विश्वास दिलाने वाले थे। एनडीए के मुद्दे पक्षपाती और 15 से 30 साल पुरानी बातों को उभारने वाले और इस दावे पर आधारित थे कि राज्य का विकास तो हो चुका है, इसलिए विकास की मांग का कोई औचित्य ही नहीं। सवाल है, आम जनता ने इन मुद्दों को कैसे ग्रहण किया– कौन से मुद्दे ‘असली’ थे और कौन से गढ़े गए? असली मुद्दों को काटने के लिए नियंत्रित मीडिया, स्थानीय यूट्यूब चैनल और बाकी माध्यमों से संदेशों की बमबारी की भूमिका महत्वपूर्ण रही। कोई आश्चर्य नहीं कि फील्ड से रिपोर्ट करने वाले लिख रहे थे कि केंद्र के खिलाफ लोगों में कोई गुस्सा नहीं है, बावजूद इसके कि बेरोजगारी चरम पर थी, कोरोना महामारी से निपटने में सरकार अस्त-व्यस्त थी, प्रवासियों को भीषण संकट का सामना करना पड़ा था, बाढ़ राहत के नाम पर कुछ हुआ नहीं और पेट्रोलियम पदार्थों समेत आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही थीं। यूरोप और अमेरिका में इस विषय पर, जिसे पोपुलिज्म कहा जाता है, अध्ययन सामग्रियों की प्रचुरता है। लेकिन भारत में पोपुलिज्म की खास चारित्रिक विशेषताओं के बारे में अभी कम अध्ययन हुआ है। चुनावी राजनीति में मध्यमार्गी और वाम दलों को सफल होना है, तो उन्हें इलेक्शन टेक्नोलॉजी पर ध्यान देना होगा, उसका अपने तरीके से, अपनी विचारधारा के अनुरूप उपयोग करना होगा।

बिहार के चुनावी परिणाम भविष्य के बारे में बुरे संकेत दे रहे हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन में जदयू के कमजोर होने से भाजपा को अपने हिंदुत्व एजेंडे को खुलकर खेलने का मौका मिल गया है। इस चुनाव में तीन चिंताजनक रुझान दिखे- भाजपा का स्पष्ट मुद्दे के साथ उभार; ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का उभार जिसने खुलकर इस्लामिक भावनाओं को हवा दी और मुख्य रूप से महागठबंधन की मध्य-वाम राजनीति को अपने निशाने पर रखा; और जाति-धर्म आधारित बसपा, रालोसपा, एआइएमआइएम के गठबंधन तथा जन अधिकार पार्टी और भीम आर्मी के एक और जाति आधारित गठबंधन के जरिये संकीर्ण गोलबंदी के प्रयास। एआइएमआइएम ने मुसलमानों को यादवों के खिलाफ भिड़ाकर राजद के मुस्लिम-यादव जोड़ी तोड़ने की कोशिश की। दलित राजनीति की पार्टियों ने दलितों को यादवों के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश की। इन दलों और उनके गठबंधनों ने कोसी क्षेत्र में न केवल महागठबंधन के वोट बैंक में निर्णायक सेंध लगाई बल्कि गरीब अवाम के बीच जाति और धर्म से परे की संभावनाओं को भी कमजोर किया है। एआइएमआइएम के उभार से भाजपा के मंसूबों को बल मिलेगा साथ ही बिहार के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में मुस्लिम आबादी वाले जिलों में हिंदू-मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ेगा। सत्तारूढ़ गठबंधन में भाजपा के दबदबे के कारण उसकी विभाजनकारी नीतियां राजनीति का केंद्र-बिंदु बन सकती हैं। भविष्य में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और मुस्लिम घुसपैठिये के इर्द-गिर्द राजनीति की गोलबंदी बढ़ेगी। बिहार चुनाव में धर्म और जाति की राजनीति करने वाली ताकतों का उभार बढ़ा है, तो दूसरी ओर वाम शक्तियों का भी उभार हुआ है। बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि वाम दलों की तरह महागठबंधन के बाकी घटक, राजद और कांग्रेस चुनावी सक्रियता से आगे बिहार में प्रगति, शांति और विकास के लिए जनसंघर्षों में हिस्सेदार बनेंगे।

(लेखक टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, पटना में प्रोफेसर और चेयरपर्सन हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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TAGS: बिहार, जीत की विडंबना, आगे के संदेश, Magazine Story, irony of victory, message ahead
OUTLOOK 17 November, 2020
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