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06 October 2019

गांधी आर्थिकी से ही बदलेगी दुनिया

गांधीवादी विचार लोकतंत्र, पर्यावरण सुरक्षा और समता की स्‍थापना के लिए मौजूदा बाजारवादी स्वार्थप्रेरित अर्थव्यवस्‍था का मुकम्मल विकल्प

 दक्षिण अफ्रीका के बदलाव में गांधी के विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गांधी की शिक्षा की मदद से ही रंगभेद पर विजय पाई जा सकी

-नेल्सन मंडेला

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आज की दुनिया में गांधी के विचार ज्यादातर लोगों, खासकर युवाओं के लिए पुराने प्रतीत होते हैं। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि गांधी की प्रासंगिकता अलग समय में थी, जब देश को विदेशी शासन से आजादी की जरूरत थी। यह भी कहा जाता है कि गांधी के समय की तुलना में अब प्रौद्योगिकी का काफी विकास हो गया है, इस वजह से भी उनके विचार अप्रासंगिक हो गए हैं।

गांधी के विचारों के मुख्य पहलुओं में एक था स्वदेशी। गांधी ने इसका इस्तेमाल लोगों की सोच को प्रज्ज्वलित करने के लिए किया, ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें और विदेशी शासन की दासता को उखाड़ फेंकें। लेकिन आज की दुनिया में जहां विदेश व्यापार ही विकास की संचालक शक्ति बन गई हो, समाज में संपन्नता बढ़ाने के लिए यह विचार अतार्किक जान पड़ता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देशों ने तुलनात्मक बढ़त हासिल करने और उत्पादन में बड़े पैमाने पर श्रम के बंटवारे पर फोकस किया है। कोई भी चीज अब पूरी तरह से किसी एक देश में नहीं बनाई जा रही है। सप्लाई चेन अलग-अलग देशों में स्थित हैं, जिनका नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। इन दिनों देशों के बीच व्यापार के नियम विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) तय करता है। इसमें संरक्षणवाद या बहुराष्ट्रीय कंपनियों से घरेलू बाजार को बचाने की गुंजाइश बहुत कम होती है। इसलिए चीन से बड़े पैमाने पर आयात के कारण भारत का लघु उद्योग प्रभावित हुआ है। इसी तरह, विकसित देशों से आयात होने वाले उच्च टेक्नोलॉजी के उत्पादों के सामने भारतीय उत्पाद नहीं टिक पाते हैं।

समाज में गांधीवादी विचारों का प्रभावहीन होना

गांधीवादी विचार सादा जीवन, पर्यावरण सुरक्षा, उपभोक्तावाद के त्याग, मजबूत लोकतंत्र और ऐसी शिक्षा प्रणाली की बात करता है जो व्यक्ति को प्रकृति और समाज से दूर न करे, उसके साथ जोड़े। गांधी कहते थे कि काम से ही व्यक्ति को इज्जत मिलती है। इसलिए ऐसी टेक्नोलॉजी उपयोगी नहीं है, जिससे लोग बेरोजगार होते हों या जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता हो। इस नजरिए से देखें तो गांधी टेक्नोलॉजी विरोधी लगते हैं। अपनी पहली कृति हिंद स्वराज में उन्होंने पश्चिमी आधुनिकता के खिलाफ दलील पेश की और उसे शैतानी सभ्यता बताया। इसलिए, आजादी के बाद जब भारत के कुलीन वर्ग ने पश्चिमी आधुनिकता की नकल की ख्वाहिश जाहिर की और भारत के “आधुनिकीकरण” को अपना लक्ष्य बनाया, तो गांधी अप्रासंगिक और पिछड़े जान पड़ने लगे।

हिंद स्वराज में गांधी ने रेलवे, डॉक्टरों, ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र सबकी तीखी आलोचना की है। गांधी ग्राम स्वराज की बात करते हैं, जबकि आधुनिकतावादी भारतीय गांवों को पिछड़ेपन का ऐसा अंधा कुआं समझते थे जहां से कुछ भी अच्छा नहीं निकल सकता। वे गांवों का शहरीकरण/ आधुनिकीकरण चाहते थे। तो, आधुनिकतावादियों के नजरिए से गांधी पिछड़े प्रतीत होते हैं और यह तर्क दिया गया कि अगर उनके विचारों को भारत के विकास का आधार बनाया गया तो देश हमेशा पिछड़ा ही रह जाएगा।

आधुनिकतावादियों ने गांधीवादी विचारों को जो चुनौती दी, गांधीवादी उसका सामना नहीं कर सके। वे गांधी के कद से ही अभिभूत थे, उनके विचारों को आगे लेकर नहीं गए। उन्होंने आलोचकों को यह बताने की कोशिश नहीं की कि गांधी समाज के लिए अब भी प्रासंगिक हैं- सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पश्चिम में भी, और आधुनिक विचारों की खामियां क्या हैं। वे ऐसे छोटे समूह बन कर रह गए जिसे मुख्यधारा ने मोटे तौर पर नजरअंदाज कर दिया।

यह सच है कि आजादी से पहले की तुलना में दुनिया अब काफी बदल गई है। सो, इस नए सामाजिक परिवेश में गांधीवादी विचारों की प्रासंगिकता दिखाने के लिए चुनौती स्वीकार करने की जरूरत थी। सिद्धांतों को बनाए रखना महत्वपूर्ण है, लेकिन उसके साथ यह बताना भी जरूरी है कि गांधी के बाद तेजी से बदलती परिस्थितियों में वे कैसे लागू होते हैं। गांधी के बाद टेक्नोलॉजी में जो बदलाव हुए, जिस तरह नए उत्पाद सामने आए और उपभोक्तावाद बढ़ा, परिवहन और संचार में जो क्रांति हुई और जिस तरह वैश्विक संस्थानों और पूंजी का दबदबा बढ़ा है, वह अभूतपूर्व है।

कुल मिलाकर लोगों के सोचने के तरीके में बड़ा बदलाव आया है, जिस पर ध्यान देना जरूरी है। आजकल लोग अल्पकालिक सोच वाले हो गए हैं और तत्काल संतुष्टि की कामना करते हैं। टेक्नोलॉजी में तेजी से हो रहे बदलाव के कारण समाज भी अल्पकालिक सोच वाला हो गया है। इसके विपरीत गांधीवादी विचार दीर्घकालिक समाज कल्याण पर आधारित हैं। गांधीवादियों को इस वैचारिक बदलाव पर ध्यान देने की जरूरत है।

बाजारवाद और उसके सिद्धांत

आज की धारणा बाजारवाद से प्रेरित है। इसने व्यक्ति को इतना आत्मकेंद्रित बना दिया है कि वह सिर्फ पैसे को महत्व देता है और अधिकतम लाभ को ध्यान में रखते हुए स्वार्थ साधने में लगा रहता है। इसके विपरीत गांधीवादी विचारधारा में व्यक्ति समाज का हिस्सा होता है। वह आत्मकेंद्रित नहीं होता, बल्कि समाज के हित के लिए काम करता है और इसी के जरिए अपनी उन्नति पाता है।

आज की हकीकत यह है कि वैश्वीकरण, आर्थिक शक्ति का चुनिंदा हाथों में सिमटने, पर्यावरण का तेजी से ह्रास, असहिष्णुता में वृद्धि और निरंकुशता तथा सर्वसत्तावादी सोच से समाज में लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सिकुड़ गई हैं। उत्पादन, पूंजी, टेक्नोलॉजी और व्यापार का नियंत्रण बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में सिमटता जा रहा है। देश के भीतर भी आर्थिक शक्ति चुनिंदा हाथों में सिमटती जा रही है। भारत में राज्यों के बीच और राज्यों के भीतर अंतर बढ़ रहा है। आमदनी और संपत्ति की असमानता देशों के बीच और देश के भीतर, दोनों जगह बढ़ रही है। ऑक्सफैम की पिछली रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सिर्फ नौ लोगों के पास 70 करोड़ भारतीयों से ज्यादा संपत्ति है। इसी तरह, अर्थशास्‍त्र का नोबेल पुरस्कार पाने वाले पॉल क्रुगमैन के अनुसार, अमेरिका में 1920 के दशक में जो असमानता थी, वह अब काफी अधिक हो गई है।

समकालीन आर्थिक दर्शन की वह क्या खासियतें हैं जिनकी वजह से दुनिया में उपरोक्त मुद्दे उभर रहे हैं और स्थिति खराब होने के बावजूद इनका कोई समाधान नहीं निकल पा रहा है? कई बार ऐसा लगता है कि समाज ने ही मरने की इच्छा पाल ली हो। यह अपने सामने पनप रही समस्याओं के सर्वसुलभ समाधान पर भी अमल नहीं करता है। यह अदूरदर्शिता हमारी वैचारिक शून्यता का परिणाम है। तो ये खासियतें क्या हैं?

बाजार हमेशा रहे हैं, लेकिन बाजारीकरण नया है। इसका मतलब है कि हर सामाजिक संस्थान में बाजार की फिलॉसफी प्रवेश कर गई है। बाजारीकरण का पहला सिद्धांत “डॉलर वोट” है। डॉलर वोट का मतलब है कि जिसके पास जितने ज्यादा डॉलर होंगे, बाजार में उसके वोट भी उतने अधिक होंगे। इसलिए अमीर बाजार की दिशा तय करते हैं। यह न सिर्फ “एक व्यक्ति एक वोट” के खिलाफ है, बल्कि यह लोकतंत्र का भी अवमूल्यन है। अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय, हर स्तर पर अमीरों का प्रभुत्व है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि बाजारवाद पर आधारित नीतियों के कारण असमानता तेजी से बढ़ रही है।

दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है “ज्यादा है तो बेहतर है।” इसके मुताबिक, ज्यादा खर्च करना या फिजूलखर्ची व्यक्ति के स्वहित में है। उपभोक्तावाद का यही मूलमंत्र है- यानी सिर्फ खर्च करने के नाम पर खर्च करना। इसलिए हम पानी पीने के बजाय सॉफ्ट ड्रिंक्स पी सकते हैं। जहां जरूरत नहीं, वहां जरूरत पैदा की जाती है। खर्च कम करने को मूर्खता समझा जाता है, क्योंकि इससे “स्वहित को नुकसान” होगा। इसी से जुड़ा एक विचार है कि मनुष्य तार्किक प्राणी है और वह अपनी अधिक से अधिक समृद्धि चाहता है। इसलिए यह बात बेमतलब है कि कोई कैसे कमाई करता है। जब तक व्यक्ति को लाभ हो रहा है, उसकी कमाई का तरीका सही है या गलत, यह मायने नहीं रखता। इस तरह लालच नई ऊंचाई पर पहुंच जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि लालच पहले नहीं था। सबसे अहम बात यह है कि ज्यादा मुनाफे के लिए लागत कम करना जरूरी है। आखिर अपराध बोध भी एक लागत है, इसलिए किसी को अपने कार्यों के प्रति अपराध बोध महसूस नहीं करना चाहिए और अंतरात्मा को इसके आड़े नहीं आने देना चाहिए। इस तरह व्यक्ति पूरी तरह आत्मकेंद्रित हो जाता है।

आज के नव-शास्‍त्रीय विचारों वाली अर्थव्यवस्‍था में समानता सिर्फ कहने की बात है। इसे हासिल करना काफी मुश्किल है, इसलिए समाज को सिर्फ “एलोकेटिव एफिसिएंसी” (इकोनॉमी की वह अवस्था जहां उत्पादन में उपभोक्ता की पसंद को तरजीह दी गई हो) के लिए प्रयत्न करने की जरूरत है। यानी यथास्थिति बनाए रखने की जरूरत है। संसाधनों के वितरण में  “परेटो ऑप्टिमैलिटी” (संसाधनों का इस तरह वितरण करना कि किसी एक व्यक्ति की जरूरतों को नजरअंदाज किए बगैर दूसरे व्यक्ति को संसाधन मुहैया कराना असंभव होता है) को पाना जरूरी है। कोई भी टैक्स या संसाधनों का वितरण ऐसा नहीं रह गया है जो डिस्‍टारशनिष्ट या राज्य के हस्तक्षेप से बाहर न हो। इसलिए पुनर्वितरण को सिर्फ सिद्धांत में ही हासिल किया जा सकता है। जब कोई बाजार नाकाम होता है तो डिस्‍टारशन के कारण सभी बाजार नाकाम होने लगते हैं। इसलिए सर्वश्रेष्ठ को नहीं, बल्कि “दूसरे श्रेष्ठ” को ही हासिल किया जा सकता है। संसाधनों का आवंटन सबसे अच्छे तरीके से हो, इसके लिए सरकार के व्यापक हस्तक्षेप की जरूरत होती है, जबकि इस विचार की अनदेखी कर दी जाती है।

गांधीवादी विचार के आर्थिक पहलू

बाजारीकरण के इन सिद्धांतों के संदर्भ में गांधीवादी विचार कहां ठहरते हैं? बाजारीकरण के सिद्धांत स्पष्ट रूप से गांधीवादी विचारों के प्रतिकूल हैं। गांधीवादी सिद्धांत सिर्फ एक आर्थिक सिद्धांत नहीं, बल्कि संपूर्ण विचार है जिसमें सामाजिक और राजनीतिक पहलू, आर्थिक पहलू के साथ जुड़े हुए हैं। यहां यह बात ध्यान दी जानी चाहिए कि परिस्थितियां बदलने पर गांधी भी अपनी राय बदलते थे। यह गांधी का राजनीतिक पहलू था क्योंकि वह एक राजनीतिक नेता भी थे। लेकिन दर्शन के स्तर पर देखें तो कुछ बिंदु/सिद्धांत ऐसे हैं जिनके जरिए समाज के बारे में उनकी दृष्टि का आकलन किया जा सकता है।

उनका सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत था अंतिम व्यक्ति सबसे पहले। इससे अधिक लोकतांत्रिक और कुछ नहीं हो सकता। गांधी के विचार से कमाई के लिहाज से सबसे अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को लक्ष्य में रखकर नीति बनाई जानी चाहिए, जबकि वास्तव में ज्यादा क्रय क्षमता वाले ही बाजार को तय करते हैं। इन लोगों का देश की राजनीति पर भी नियंत्रण होता है, इसलिए ये राजनीतिक नतीजे को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए मौजूदा परिवेश में संगठित क्षेत्र ही सरकार से रियायत प्राप्त करता है, जबकि समस्या असंगठित क्षेत्र में होती है। असंगठित क्षेत्र को हमेशा “अवशिष्ट” के रूप में देखा जाता है। इसलिए संगठित क्षेत्र की जरूरतें पूरी करने के बाद जो संसाधन बचते हैं, वही उन्हें मिल पाते हैं। विश्व स्तर पर देखें तो वहां भी आइएमएफ और विश्व बैंक जैसे संगठनों पर नियंत्रण के जरिए अमीर देश नीतियों का आकार तय करते हैं।

गांधी का दूसरा सिद्धांत है, “सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन सबके लालच को पूरा करने के लिए नहीं।” यह सिद्धांत भी “ज्यादा है तो बेहतर है” और उपभोक्तावाद के विचारों के प्रतिकूल है। गांधी ने स्वेच्छा से त्याग का सुझाव दिया था, यानी लोग स्वेच्छा से अपनी जरूरतें कम करें, कोई दूसरे को त्याग करने के लिए नहीं कह सकता। इस विचार से देखा जाए तो विज्ञापनों के जरिए जरूरतें सृजित करने पर अंकुश लगना चाहिए। यह पर्यावरण की दृष्टि से भी अच्छा सिद्धांत है। इसमें लालच भी कम होता है।

गांधी आत्मकेंद्रित नहीं बल्कि समग्र व्यक्ति की बात करते थे, जो आधुनिकतावादियों और विज्ञापनदाताओं के हमले का विरोध कर सके। बाजार द्वारा बनाई गई दूरी का मुकाबला व्यक्ति को मजबूत और विवेकी बनाकर किया जा सकता है। गांधी ऐसी शिक्षा प्रणाली की बात करते थे, जो ऐसे मजबूत व्यक्ति तैयार कर सके। वे मानते थे कि औपनिवेशिक ताकतों द्वारा थोपी गई शिक्षा प्रणाली भारतीयों के लिए प्रासंगिक नहीं है। इसलिए उन्होंने “नई तालीम” का सुझाव दिया था, जो व्यक्ति की दूरी को मिटा सके।

गांधी चाहते थे कि लोग अपने विवेक की हत्या करने के बजाय अपने कार्यों के प्रति सामाजिक रूप से जवाबदेह हों। वे अपने लिए नहीं, बल्कि व्यापक हित के लिए काम करें। स्वैच्छिक त्याग के लिए यह विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्वैच्छिक त्याग का मतलब समाज में समानता भी है। लोग चाहे जितना कमाएं, वे एक संयमी व्यक्ति का जीवन बिताएं- यह विचार ट्रस्टीशिप को भी जन्म देता है, जिसके लिए गांधी की आलोचना होती है, क्योंकि इसे पूंजीवाद के बचाव के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह विचार उत्पादन के माध्यमों पर सामूहिक मालिकाना हक की भी बात करता है, जहां पूंजीपति सामाजिक संपत्ति का सिर्फ ट्रस्टी होता है।

अक्सर पूंजीवाद और लोकतंत्र के बीच एक गलत संबंध स्थापित किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से देखें, तो पूंजीवाद का उदय और सामंती अत्याचार के खिलाफ लड़ाई, दोनों एक साथ उभरे। इसलिए दोनों एक दूसरे से जुड़े प्रतीत होते हैं। लेकिन पूंजीवाद असमानता को बढ़ाता है और “डॉलर वोट” का सिद्धांत लोकतंत्र को कमजोर करता है। पहले यह बात छिपी हुई थी, लेकिन अब पूरी तरह स्पष्ट है।

बाजारवाद के खिलाफ है गांधीवादी विचार

गांधीवादी विचार बाजारीकरण के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। उदाहरण के लिए, नव-शास्‍त्रीय अर्थशास्‍त्र के पुरोधाओं के लिए समानता सिर्फ कहने की बात है, जबकि गांधीवादी विचार का यही मूल आधार है। इसे सरकार के हस्तक्षेप से नहीं, बल्कि विवेकी व्यक्तियों द्वारा संसाधनों के पुनर्वितरण से हासिल किया जाना चाहिए। इस तरह गांधीवादी अर्थशास्‍त्र के मानक नए अर्थशा‌िस्‍त्रयों के मानकों से बिलकुल अलग हैं।

गांधीवादी विचारधारा “संसाधनों के अत्यधिक दोहन” के विचार के प्रतिकूल है, जबकि नव-शास्‍त्रीय अर्थशास्‍त्र इसी पर आधारित है। इस अर्थशास्‍त्र में व्यक्ति के कार्य आर्थिक प्रलोभनों से तय होते हैं। इसके विपरीत गांधी मानते थे कि सामाजिक रूप से उचित काम करने के लिए व्यक्ति को ऊंचे आदर्शों से प्रेरित किया जा सकता है। इसलिए अर्थशास्‍त्र में कर चोरी भी इसके फायदों और पकड़े जाने पर होने वाले नुकसान के बीच अत्यधिक दोहन की प्रक्रिया है। इसमें तस्करी को भी यह कहकर उचित बताया गया है कि इसमें वह करने की अनुमति होती है जिसे राज्य तो प्रतिबंधित करता है, लेकिन जो समाज कल्याण को बढ़ाने वाला और अपेक्षित है। गांधीवादी विचारों में व्यक्ति ऐसी गतिविधियों से स्वतः दूर होगा और ऐसी घटनाएं कभी-कभार ही होंगी। इसके विपरीत अर्थशास्‍त्र के सिद्धांत के अनुसार, हर व्यक्ति अवैध कार्यों में शामिल होगा, इसलिए यह सामान्य बात होगी। अतः न्याय-विरुद्ध कार्यों को खत्म करने के बजाय उन्हें सहन किया जाना चाहिए।

नव-शास्‍त्रीय अर्थशास्‍त्र में लोग अधिकतम लाभ वाली मशीन का हिस्सा हैं। वे आंकड़ा-भर रह गए हैं, इसलिए बाजार अनैतिक हो गए हैं। यदि किसी के पास खरीदने की क्षमता है तो वह खाना खरीद सकता है, वरना नहीं। अच्छे-बुरे के आकलन को इससे जोड़ने की जरूरत नहीं। इस विचार से समाज को व्यक्तिपरक होना चाहिए। दूसरी ओर, बाजार को वस्तुपरक होना चाहिए और आज के विचारों पर हावी रहना चाहिए। सामाजिक फैसले व्यक्ति पर अंकुश की तरह हैं, इसलिए वे अवांछित हैं। व्यक्ति अपने लाभ के हिसाब से व्यवहार कर सकते हैं, इसलिए सामाजिक मूल्यों को हस्तक्षेप माना जाता है। बाजारीकरण में “उपभोक्ता की सार्वभौमिकता” निहित होती है। इसलिए समाज को व्यक्ति की पसंद में दखल नहीं देना चाहिए। सरकार समूह का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए इसे बाजार से दूर रहना चाहिए। मुक्त बाजार का यही सिद्धांत है।

बाजारीकरण की फिलॉसफी में श्रम की एक नई अंतरराष्ट्रीय श्रेणी उभरी है। इसमें प्रदूषण फैलाने वाले उत्पादन विकासशील देशों में और स्वच्छ उत्पादन विकसित देशों में बंट गए हैं। तर्क यह दिया जाता है कि अगर विकासशील दुनिया में लोगों की मौत विकसित दुनिया की तुलना में जल्दी होती है, तो यह बाजार के नजरिए से अच्छा है। लेकिन गांधीवादी विचार इसके बिलकुल विपरीत है, क्योंकि हर व्यक्ति और देश अपने कार्यों के लिए स्वयं जवाबदेह है और वह अपने कार्यों के परिणाम को कमजोर पर नहीं थोप सकता है।

गांधी के दर्शन में भौतिकता की तरफ झुकाव रखने वालों की जगह अलग तरह के व्यक्ति की जरूरत है। बाजारीकरण के दर्शन से ओत-प्रोत आज लोग अर्थ-केंद्रित हो गए हैं। यह बदलाव समाजशास्‍त्र में अर्थशास्‍त्र के प्रभुत्व के रूप में स्पष्ट नजर आता है। नागरिकों के जीवन में तात्कालिक अर्थ नीति से जुड़े मुद्दे दूसरे मुद्दों की तुलना में ज्यादा महत्व रखते हैं।

गांधीवादी विचारों की प्रासंगिकता

समाज विकसित होकर विवेकी व्यक्तियों का समूह बने, इसलिए गांधी राज्य का हस्तक्षेप कम करने के पक्ष में थे। उनके स्वराज का मतलब हर स्तर पर स्व-शासन था- व्यक्ति से लेकर गांव और बड़ी संस्थाओं तक। इस अर्थ में देखें, तो गांधी विकेंद्रीकृत शासन और “समाज के निचले स्तर से ऊपर की ओर” के दृष्टिकोण के पक्षधर थे, जबकि आज का ढांचा ऊपर से नीचे के विकास मॉडल पर आधारित है। गांधी दूसरे व्यक्ति, पशु या प्रकृति के साथ अहिंसा के समर्थक थे। इसने उन्हें हृदय से पर्यावरणविद बना दिया और यह बात उनके जीवन से परिलक्षित भी होती है। भले यह कहा जाता है कि गांधी का सादा जीवन भी काफी खर्चीला था, लेकिन यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने ऐसा उदाहरण पेश किया, जिससे उनकी धारणा के विपरीत जाने वाली दुनिया देख सके कि अगर उनके सुझावों पर सभी अमल करें तो क्या संभव है। संक्षेप में कहें, तो गांधीवादी विचार वास्तविक लोकतंत्र, पर्यावरण की सुरक्षा और समानता जैसी बातों से समाज को आज की समस्याओं का सामना करने में एक विकल्प मुहैया कराते हैं। यह दृष्टिकोण टुकड़ों में न होकर संपूर्ण है, जैसा कि बाजारवाद पर आधारित आज के पूंजीवाद से झलकता है। 

(प्रमुख अर्थशास्‍त्री, जेएनयू में रहे और आदिल शेषैया चेयर के प्रोफेसर, अर्थव्यवस्‍था पर कई चर्चित किताबें, 2013 में “इंडियन इकोनॉमी सिंस इंडिपेंडेंसः पर्सिस्टिंग कॉलोनियल डिसरप्शन” भी विशेष)

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TAGS: Gandhi, economic philosophy, economy
OUTLOOK 06 October, 2019
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