50वां न्यायाधीश और 75 साल का भारत
संगीत में कुछ है ऐसा रहस्य कि जब आप शिखर पर पहुंचते हैं तो वह वहां आपकी बांह थामने को खड़ा मिलता है। वहां पहुंच कर ही संगीत का असली मतलब समझ में आता है- संग चलने वाला गीत! हमारा भौतिक जीवन भी दूसरा कुछ नहीं, संगीत का ही एक तेज आलाप है। इसलिए इसमें हैरान होने जैसा कुछ भी नहीं है कि हमारी सभ्यता ने जिन लोगों के कंधों पर बैठ कर अपने कई सोपान चढ़े हैं, वे सब कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी तरह संगीत से आप्लावित रहे हैं- फिर चाहे आइंस्टाइन रहे हों कि रोमैं रोलां कि रवींद्रनाथ कि अलबर्ट स्वाइत्जर कि गांधी! यह बात कम ही उभरी है कि अहमदाबाद में बंद पड़ गए संगीत विद्यालय को फिर से शुरू करवाने की जद्दोजहद में गांधी ऐसे लगे थे मानो आजाद भारत का संगीत ही कहीं खो गया हो! वे भातखंडे तक दौड़े थे और हमें बता गए: “हम संगीत का ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सधे हुए कंठ से, शुद्ध स्वर में, ताल के साथ गाने-बजाने का अभ्यासमात्र है। जीवन में एकरागता और एकतानता होने पर ही सच्चा संगीत प्रकट होता है। जब तक वह संगीत प्रकट नहीं हुआ है, तब तक देश में अराजकता या कुराजकता रहने ही वाली है और गुलामी से हमारा छुटकारा संभव नहीं है।”
सर्वोच्च न्यायालय के हमारे 50वें मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का संगीत-प्रेम भी किसी से छुपा नहीं है। वे जिस महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को एक अत्यंत नाजुक घड़ी में अंगीकार करने जा रहे हैं, उस जगह कभी उनके पिताश्री यशवंत वी.चंद्रचूड़ विराजते थे। पिता यशवंत प्रशिक्षित शास्रीय संगीतज्ञ थे। धनंजय चंद्रचूड़ ने कानून की बारहखड़ी जब भी पढ़ी हो, घर में संगीत की बारहखड़ी बचपन से ही सुनी-पढ़ी है। उनकी मां को शास्रीय गायन सिखाने उनके घर, दूसरा कोई नहीं, किशोरी अमोनकर आती थीं। संगीत, वह भी किशोरी अमोनकर से, यशवंत चंद्रचूड़ में जैसे घुट्टी में मिला है। उन्होंने ही बताया है हमें कि जब एक बार उन्होंने किशोरी अमोनकर से ऑटोग्राफ मांगा तो किशोरी अमोनकर ने लिखा : “संगीत हमें संगीतमय करता हुआ मौन तक पहुंचाता है : म्यूजिक म्यूजिकली लीड्स अस टू साइलेंस !” न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से यह देश और इसकी लोकतांत्रिक आत्मा आज बस एक ही मांग करती है कि वह संगीतमय न्याय की नजरों से हमें देखे और संगीतमय मौन की भाषा में अपना फैसला सुनाए। यह देश आज जितना बेसुरा हुआ है उतना पहले कभी नहीं था। पहले भी यह संगीत विशारद तो नहीं था लेकिन रियाज में लगा हुआ था। आज तो बेसुरे को ही तानसेन साबित करने व मनवाने की हवा बहाई जा रही है। जब विधायिका बेसुरा गाने लगती है तो कार्यपालिका फटे बांस-सा राग अलापती है। यही वह नाजुक व घातक घड़ी है अाज जब न्यायपालिका सारे संसदीय तंत्र को राग बदलने पर, संवैधानिक आलाप लेने पर तरीके से मजबूर करे।
हमारे संविधान से लोकतंत्र का दो चेहरा उभरता है: एक, संसदीय लोकतंत्र है, दूसरा संवैधानिक लोकतंत्र है। संसदीय लोकतंत्र एक ढांचा है, आवरण है जिसके भीतर संसद चलती है, कानून बनते हैं, अदालतें चलती हैं, झंडा लहराता है, लाल किले से अभिभाषण होते हैं, फौजी परेड आदि होती है। यह सब पहले भी इसी तरह होता था - 1947 से पहले भी ! तब भी यह सब था लेकिन जो नहीं थी वह थी आजादी ! आजादी के बिना यह सारा तामझाम व्यर्थ था। उस एक आजादी को पाने में इतने सारे बलिदान हुए और तब कहीं जा कर यह संभावना पैदा हुई कि हम संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा आत्मवान बना सकें। इस संभावना की सिद्धि के लिए संविधान सामने आया। हमने नियति से वादा किया कि हम भारत के लोग संविधान के रास्ते चल कर, अपने संसदीय लोकतंत्र को संवैधानिक लोकतंत्र से जोड़ेंगे। हम मानते थे कि इस साझेदारी में से वह आजादी जन्म लेगी व संपुष्ट होती चलेगी जिसके बिना संसदीय लोकतंत्र एक औपचारिकता बन कर रह जाता है। संवैधानिक लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र को रास्ता भी बताता है और भटकने से भी रोकता है। पूछा तब भी गया था, आज भी पूछा जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र भटके तो? इसकी संभावना नगण्य है क्योंकि इसकी नकेल संविधान के खूंटे से बंधी होती है। संविधान लिखित है, खुला हुआ है, सबके देखने-जांचने के लिए वह 24X7 उपलब्ध है; और संसदीय लोकतंत्र यदि समर्थ व सावधान है तो उसकी नकेल भी काम करती ही है। हमारे संविधान की ऐसी कुशल संरचना है कि इसका कोई भी शक्ति-तंत्र अपने में स्वयंभू नहीं है। सभी परस्परावलंबी हैं। लेकिन संसदीय तंत्र अपनी संख्या व अपने तंत्र के बल पर हमेशा स्वंयभू बनने की कोशिश में रहता है।
यही असली संकट है। संसदीय तंत्र तख्त, तिजोरी व तलवार के गर्हित त्रिकोण में घिर गया है। कल तक जिन बाहुबलियों के बल पर सत्ता पाई जाती थी, उन्होंने दूसरों के लिए काम करना बंद कर, वहां खुद की जगह बना ली है। जो कुछ दूसरे बचे-खुचे सांसद हैं, वे भी उन्हीं की क्षत्रछाया में जीना पसंद करते हैं। हर दूसरे दिन वह आंकड़ा प्रकाशित होता है कि इस लोकसभा में कितने सांसद ऐसे हैं जिन पर आपराधिक आरोप दर्ज हैं। आंकड़े तो आते हैं लेकिन एक उदाहरण भी ऐसा नहीं है कि जब किसी पार्टी ने अपने अपराधी सांसद से इस आधार पर छुट्टी पाई हो। ऐसा ही विधायकों के साथ भी है। अब तो राज्यसभा आदि में जो मनोनयन हो रहे हैं उनमें भी ऐसे लोगों की मौजूदगी आम है। जिसे अंग्रेजी में ‘हेट स्पीच’ कह कर थोड़ा सौम्य बनाने का प्रयास होता है और उसकी आड़ में यह बहस भी खड़ी की जाती है कि आप कैसे फैसला करेंगे कि किसे ‘हेट स्पीच’ कहेंगे, किसे नहीं, वह सीधे तौर पर संविधान से घृणा की घोषणा है। हम संविधान का वह सब कुछ हजम कर जाते हैं जो हमारे अनुकूल पड़ता है; उन सबकी धज्जियां उड़ाते हैं जो हमारी मनमानी में राई भर भी बाधा खड़ी करता है। यही वह जगह है जहां संवैधानिक लोकतंत्र को अपनी मजबूत उपस्थिति बनानी व बतानी चाहिए। लेकिन वह ऐसी जिम्मेवारी के निर्वाह में विफल हो जाता है।
लच्छेदार भाषणों तथा कातर बयानों की आड़ में आप इस विफलता को छिपा नहीं सकते हैं बल्कि ऐसा रवैया संविधान के संदर्भ में अपराध है। अदालतों में, सर्वोच्च अदालत में भी, ऐसा होता रहता है। यह वह बेसुरा राग है जिसमें से अशांति व अविश्वास पैदा होता है। अदालत का काम समाधान बताना नहीं, संविधान की कसौटी पर सही या गलत बताना है। समाधान बताने का गलत रास्ता पकड़ने के कारण अदालतों ने अपनी प्रतिष्ठा व अपनी सामयिकता खोई है। अदालतें जब कभी ऐसी टिप्पणी करती हैं कि पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में ‘इन्हें’ रिहा किया जाता है, तो दरअसल वे अपराध या अपराधी की नहीं, अपने कर्तव्यच्युत होने की घोषणा करती हैं। अदालत की सार्थकता ही यह है कि वह तथ्यों की तह तक जाए और फिर संविधान की तुला पर उसे तौल कर, सही व गलत का फैसला दे। यदि वह तथ्यों तक पहुंची ही नहीं है तो उसे फैसला सुनाने की जल्दीबाजी क्यों है ? वह उन अधिकारियों, पुलिस, मंत्रियों आदि के खिलाफ कोई कदम क्यों नहीं उठाती है जिनके कारण तथ्यों तक पहुंचने में वह समर्थ नहीं हुई और न्याय की पड़ताल में वह विफल रही ?
अदालत सही-गलत का निर्णय देने से पहले किसी का मुंह जोहे; मुंहदेखी बात कहे, क्या कहने से क्या प्रतिफल मिलेगा इसका हिसाब करे, तो वह न्यायालय नहीं, बाजार है। बाजार में हर जिंस की कीमत होती है, तो आपके निर्णय की भी कीमत लगाई जाती है, और अदा भी की जाती है। इस तरह अदालत फरमाइशी गीतों का कार्यक्रम बन जाती है। हम यह भी देखते हैं कि अदालतें सामाजिक सवालों पर कभी-कभार सत्ता की मान्य धारा से भिन्न कोई रुख ले भी लें, लेकिन राजनीतिक सवालों पर निरपवाद रूप से सत्ता के साथ जाती हैं। इससे न्यायपालिका का पूरा चरित्र विदूषक-सा बन जाता है और समाज गहरे हतोत्साहित हो जाता है।
ऐसे मुकाम पर 75 साल का यह महान देश अपने 50वें न्यायाधीश से संगीत की वह तान सुनना चाहता है जो लोकतंत्र की आत्मा को छुए तथा उसके पांव मजबूत करे।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं और यह इनके निजी विचार हैं।)