दीवार पर लिखी इबारत
तस्वीर बहुत कुछ साफ होती जा रही है, जरूरत है तो बस वास्तविकता को स्वीकारने की। अगर इसे स्वीकार ही नहीं करेंगे तो आगे बढ़ने के रास्ते तलाशने पर काम ही नहीं हो पाएगा। जिस संकट की बात देश और दुनिया के बड़े इकोनॉमिस्ट और दबे स्वर में कारोबारी कर रहे थे, उसे 30 और 31 अगस्त को जारी सरकारी आंकड़ों ने सच साबित कर दिया। इकोनॉमी तीन साल के निचले स्तर पर चली गई है। इसकी सबसे बड़ी वजह सरकार का आठ नवंबर, 2016 का वह फैसला रहा, जिससे देश में चलन में रही करेंसी के 86 फीसदी को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। पांच सौ और एक हजार रुपये के नोट के रूप में यह करेंसी बाहर कर दी गई थी।
यह कदम ऐसे समय उठाया गया था, जब देश की इकोनॉमी को रफ्तार देने की दरकार थी। लेकिन इससे रफ्तार घट गई। दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर मौजूदा साल की पहली तिमाही में घटकर 5.7 फीसदी हो गई, जो साल भर पहले 7.9 फीसदी थी। तीन साल पहले मोदी सरकार इस उम्मीद में सत्ता में पहुंची थी कि वह यूपीए सरकार की ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ से निजात दिलाकर अर्थव्यवस्था को तेज विकास की राह पर ले जाएगी। लेकिन घरेलू और वैश्विक परिस्थितियों के चलते हम तीन साल पीछे चले गए हैं। यह देश के लिए घातक है, क्योंकि रोजगार के लिए हर साल करीब सवा करोड़ नए लोग जुड़ जाते हैं पर रोजगार सृजन की गति कई साल के सबसे बुरे दौर में है।
आर्थिक गतिविधियों के धीमी होने से ही निजी निवेश नहीं बढ़ रहा है। नई क्षमता स्थापित नहीं हो रही है क्योंकि मांग कम है। इसका सबसे बड़ा कारण नोटबंदी के फैसले को बताया जा रहा है। आठ नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के जो मकसद बताये थे, वे 30 अगस्त, 2017 की रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में खारिज होते दिखते हैं। इसके मुताबिक गैर-कानूनी घोषित की गई करेंसी के करीब 99 फीसदी नोट वापस आ गए हैं। नोटबंदी के शुरुआती दिनों में ये कयास लगाए गए थे कि करीब चार लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएंगे क्योंकि वह काला धन है। इससे रिजर्व बैंक की देनदारी कम होगी और वह सरकार को स्पेशल डिविडेंड के रूप में पैसा देगा, जिसका उपयोग सरकार लोक कल्याणकारी योजनाओं में करेगी ताकि गरीबों की स्थिति सुधरे। रिजर्व बैंक अधिनियम के तहत यह संभव है या नहीं, इस पर काफी बहस भी हुई। कुछ अतिउत्साही लोगों ने तो यह तक कह दिया था कि जरूरत पड़ी तो रिजर्व बैंक एक्ट में संशोधन कर दिया जाएगा।
लेकिन हकीकत इसके उलट रही है, जिसे बताने में रिजर्व बैंक को दस महीने लग गए। यही नहीं, रिजर्व बैंक का खर्च बढ़ने से सरकार को मिलने वाला डिविडेंड पहले से कम हो गया। दूसरे, तमाम आर्थिक गतिविधियों में भारी गिरावट और लोगों को हुई असुविधा के चलते हो रही आलोचनाओं के बीच सरकार नोटबंदी के मकसद ही बदलती चली गई। कालाधन पर अंकुश की बात पिछड़ने लगी तो डिजिटल कैश ट्रांजेक्शन को इसका मकसद बताया गया। कई बार लोगों द्वारा बैंकों में जमा कराई गई करेंसी को कालाधन भी बता दिया गया। फिर, रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री के भाषणों के आंकड़ों में भारी अंतर पाया गया।
यह मुद्दा अभी बहस में रहेगा लेकिन यह सच है कि देश की करीब 45 फीसदी जीडीपी हिस्सेदारी वाले असंगठित क्षेत्र को नोटबंदी से सबसे ज्यादा झटका लगा है और उसमें रोजगार के अवसरों में भारी कमी आई है। यही नहीं, सरकार ने जो सबसे बड़ा कर सुधार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के रूप में लागू किया, वह इस क्षेत्र के लिए दूसरा झटका लेकर आया। इस कदम से अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का संगठित क्षेत्र के रूप में तब्दील होना तय है। यही वजह है कि यहां स्थिति अभी संभली नहीं है। 31 अगस्त को जीडीपी विकास दर के जो आंकड़े आए हैं, वे चिंतित करने वाले हैं। निजी निवेश में ठहराव, कॉरपोरेट मुनाफे में कमी, क्रेडिट उठाव की दर का करीब पांच दशक नीचे जाना बेहतर संकेत नहीं है। गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के चिंताजनक स्तर से सरकारी बैंकों की कर्ज देने की क्षमता कम होने से दिक्कतें बढ़ी हैं।
इस स्थिति में भी अगर सरकार वास्तविकता को स्वीकार किए बिना अपने तर्क देती रही तो ‘अच्छे दिन’ की ओर बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि रोजगार और विकास दर के मोर्चे पर बदलाव के प्रधानमंत्री ने कुछ संकेत दिए हैं। अपनी कैबिनेट के ताजा फेरबदल में कौशल विकास और औद्योगिक विकास पर जोर देने के लिए उन्होंने नए लोगों को जिम्मा दिया है। वित्त मंत्री का बोझ भी कुछ कम किया गया है, ताकि वे वित्त मंत्रालय पर ज्यादा ध्यान दे सकें। इसलिए मोदी सरकार के मौजूदा कार्यकाल के बाकी करीब डेढ़ साल में ‘अच्छे दिन’ आने की उम्मीद कायम रखनी चाहिए लेकिन वह तभी संभव है जब सरकार दीवार पर लिखी इबारत को स्वीकार कर फैसले करे।