चरण सिंह ने दिखाई राह
भारत की चिंतन परंपराओं में चरण सिंह (1902-1987) का बौद्धिक विमर्श लगभग विस्मृत रहा है। हालांकि चरण सिंह के लेखन को कम-से-कम तीन कारणों से अधिक गंभीरता से लिया जाना चहिए। पहला, इस लेखन में, मुख्यधारा के विकास के मॉडल की आलोचना के साथ-साथ एक वैकल्पिक विकास की अवधारणा का सूत्रपात मिलता है। चरण सिंह ने कृषि और देहात के दृष्टिकोण से भारत में विकास के विमर्श की लगभग पहली और विस्तृत समालोचना प्रस्तुत की थी। दूसरे, चरण सिंह की लेखनी कोई अव्यवस्थित राजनीतिक-आर्थिक सोच का प्रतिफल नहीं है, बल्कि इसे आधुनिक समाज विज्ञान के मुहावरे में गढ़ा गया है। अपने तर्कों की पुष्टि के लिए चरण सिंह अक्सर तुलनात्मक अध्ययन करते हैं और दुनिया भर के देशों से आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। लगभग पांच दशक के इस लेखन में एक गजब की तारतम्यता देखने को मिलती है, जो अनेक पुस्तकों, लेखों, घोषणापत्रों आदि में समाहित है। तीसरे, चरण सिंह आधुनिक भारत के उन गिने-चुने नेताओं में से रहे हैं, जिनके बौद्धिक विमर्श ने उनकी राजनीति को आधार और आकार प्रदान किया। कम-से-कम उत्तर भारत की राजनीति और अर्थनीति को बिना इस व्यक्ति और अनिवार्यत: उसके बौद्धिक प्रोग्राम से रूबरू हुए नहीं समझा जा सकता।
जानकारी के अभाव में चरण सिंह की राजनीति, यहां तक कि बौद्धिक उद्यम को भी अक्सर कृषि के ‘ट्रेड यूनियनवाद’ तक सिमटा दिया जाता है। लेकिन उनका विमर्श एक व्यापक अकादमिक सवाल से जूझता है, जो कई अर्थों में आधुनिक मानव इतिहास की मुख्य धुरी भी है। यह इस प्रश्न पर विचार करता है कि उत्तर-औपनिवेशिक परिस्थितियों में सघन कृषि समाजों के ‘रूपांतर’ या ‘ट्रांजिशन’ का मॉडल क्या हो। इस कवायद में चरण सिंह कई मौलिक सैद्धांतिक और नीतिगत तत्वों का सूत्रपात करते हैं। मिसाल के तौर पर मुख्यधारा के विकास की समझ को उद्योगों की मातहती में ही सोचा गया है। इस कारण से कई उत्तर-उपनिवेशिक देशों ने आरंभ में ही बड़े उद्योगों को विकास के मॉडल के केंद्र में रखा। चरण सिंह ने ठोस कारण बताते हुए तर्क प्रस्तुत किया कि उन्नत कृषि औद्योगिक विकास (जिस हद तक भी भारत की परिस्थिितयों में ये संभव है) की भी पूर्व-शर्त है। यह तर्क चरण सिंह के लेखन के लगभग दो दशक बाद माइकल लिप्टन सरीखे विद्वानों ने जब प्रस्तुत किया, तो इसे व्यापक स्वीकृति मिली।
चरण सिंह के चिंतन के संबंध में कुछ मुख्य बातों को रेखांकित करना आवश्यक है। प्रथम तो इस विमर्श को पूंजीवाद और मार्क्सवाद इत्यादि के परंपरागत वैचारिक खांचों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता। गांधी से प्रेरणा पाते हुए यह गांधी को ‘अपडेट’ भी करता है। इसके सवाल और निदान भारतीय संदर्भ से प्रेरणा पाते हैं और विकास के मॉडल को चार कसौटियों पर परखने पर जोर देते हैं: 1. कुल पूंजी या उत्पादन में वृद्धि 2. रोजगार सृजन 3. समता 4. लोकतंत्र का पोषण। इन चारों बिंदुओं में कोई प्राथमिकता नहीं है, बल्कि चारों पैमाने सामान रूप से महत्वपूर्ण हैं। चरण सिंह कहते हैं कि भारत जैसे देश में अंततोगत्वा प्रगति अंतिम व्यक्ति को मिली मूलभूत सुविधाओं की मात्रा और गुणवत्ता (जिसमें वे स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह भी शामिल करते हैं) की उपलब्धता के माध्यम से नापी जानी चहिए। चरण सिंह उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए छोटी जोत के फार्म, लघु उद्योग, छोटे बांध वगैरह पर आधारित अर्थव्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। दरअसल, छोटी जोत के खेत की श्रेष्ठता उनके कृषि पर विचारों का महत्वपूर्ण भाग है। चरण सिंह संभवतः भारत में पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने छोटी जोत के खेत की उत्पादन श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए व्यवस्थित आंकड़े जुटाए। उनका कहना था कि छोटी जोत के खेत न केवल उत्पादकता की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं, बल्कि रोजगार सृजन, पर्यावरण, आर्थिक समानता और लोकतंत्र के पोषक भी हैं। इन्हीं तर्कों के दम पर वे ‘सहकारी’/’सामूहिक’ खेती का विरोध करते हैं, जो मूलतः बड़े फार्म की ज्यादा उत्पादक क्षमता के अनुमान पर आधारित है। चरण सिंह इस विषय पर भी अपने समय से बहुत आगे प्रतीत होते हैं। चरण सिंह के इस विषय पर लिखने के कई वर्षों बाद भारत के अकादमिक हलकों में इस तर्क का परिचय हुआ, हालांकि इस विमर्श में चरण सिंह को कोई बौद्धिक श्रेय नहीं मिला।
‘शहरी-झुकाव’ या ‘नगरीय-पूर्वाग्रहों’ की समालोचना चरण सिंह के चिंतन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस विचार को प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माइकल लिप्टन ‘अर्बन बायस’ के रूप में संकल्पनाबद्ध करते हैं। चरण सिंह के लेखन में ‘अर्बन बायस’ के अनेक पहलू पहचाने जा सकते हैं। इस संकल्पना के अर्थशास्त्रीय आयाम में खेती के प्रति उदासीनता, संसाधनों के आवंटन में देहात के साथ दोयम व्यवहार वगैरह की सूक्ष्म पड़ताल देखने को मिलती है। चरण सिंह द्वारा ‘अर्बन बायस’ के सामाजिक पहलुओं की विवेचना और भी रोचक है। वे ‘शहरी मनोवृत्ति’ के बारे में बात करते हैं, जिसमें ग्राम और ग्रामीण को अक्सर हीन दृष्टि से देखा जाता है। ‘अर्बन डिक्शनरी’ में जिन अर्थों में ‘देहाती’, ‘गंवार’, ‘दहकानी’ आदि शब्द इस्तेमाल होते हैं, वे इसी मनोवृत्ति का ही परिणाम है। इसी के साथ चरण सिंह महत्वपूर्ण पेशों और शिक्षण संस्थाओं में कृषि समुदायों और ग्रामीण भारत के न्यून प्रतिनिधित्व का सवाल भी उठाते हैं और इसके नकारात्मक परिणामों के लिए सचेत करते हैं। इस सबके माध्यम से चरण सिंह भारत में राज्य और समाज की मौलिक प्रकृति के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हैं। इसके अतिरिक्त उनके विचारों में संगठित और असंगठित क्षेत्रों के बीच के द्वंद्व के प्रति भी संवेदनशीलता मिलती है। चरण सिंह के लेखन में विकास के विमर्श से संबंधित आधारभूत सवालों के सूत्र भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर मुख्यधारा के विकास के सिद्धांत अक्सर ‘यूरोप’ या ‘औद्योगिक देश’ केंद्रित होते हैं, जिनमें अन्य सभी समाजों को इन्ही देशों के इतिहास की परछाईं में समझा जाता है। यह सिद्धांत भारत जैसे देशों के लिए एक तरह की ‘पथ निर्भरता’ का निर्माण करते हैं, जिनको आज नहीं तो कल अपना भविष्य ‘यूरोप’ या ‘औद्योगिक देशों’ के अनुसार ढालना ही पड़ेगा। यानी ‘यूरोप’-औद्योगिकीकरण, शहरीकरण वगैरह के मामले में-सारे विश्व का ‘भविष्य’ है। चरण सिंह के विचारों में इस विमर्श की समालोचना मिलती है और वे भारत की परिस्थिितयों में यूरोप या औद्योगिक देशों के अनुभवों को दोहराने की संभाव्यता पर सवाल उठाते हैं। इन्हीं कारणों से उनका आग्रह है कि भारत जैसे देशों को अपनी परिस्थितियों में रमा हुआ अपना विकास मॉडल खोजना होगा।
चरण सिंह के चिंतन की कुछ सीमाएं भी हैं। मिसाल के तौर पर उनकी योजना में भूमिधर कृषक तो हरावल की भूमिका में है, मगर भूमिहीन किसान केवल परोक्ष रूप से ही उनके विमर्श में स्थान पाते हैं। हालांकि, छोटे उत्पादक और दस्तकारों पर वे लगभग बराबर ध्यान देते हैं। कुछ तत्व ऐसे भी हैं, जिनको ‘यूटोपियन’ कहा जा सकता है। साथ ही बहुत से विचारों को आज के नारीवादी विमर्श के नजरिए से कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। इन सबके बावजूद चरण सिंह के लेखन में कई ऐसी चीजें हैं, जो आज भी उतनी ही या अधिक प्रासंगिकता रखती हैं।
अपनी लेखनी में चरण सिंह कई नीतिगत मसलों की पड़ताल करते हैं, जिसके माध्यम से आज भी अनेक विषयों पर भारत के नीति-निर्माताओं के मस्तिष्क के जाले साफ करने में मदद मिल सकती है। जैसे, एक सूत्र के रूप में वे कहते हैं कि तीन चीजें- छोटी जोत (जो कि भारत में अपरिहार्य है), अधिक कृषि उत्पाद (जो भारत में परम आवश्यक है) और कृषि उत्पाद का कम दाम-एकसाथ संभव नहीं हैं। छोटी जोत और अधिक कृषि उत्पाद भारत की परिस्थितियों में अनिवार्य हैं, अतः लाजमी रूप से किसान को उसके उत्पाद का लाभकारी दाम देना पड़ेगा। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त चरण सिंह कई ऐसे विषय-वस्तुओं से भी रूबरू होते हैं, जिनको अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। विकास और टेक्नोलॉजी के अंतर्संबंधों की भी वे बारीकी से पड़ताल करते हैं। वे एक ईमानदार कार्य-संस्कृति या आचार पर अत्यधिक बल देते हैं और इसे राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक मानते हैं। एक परिष्कृत, विस्तृत, विचारशील और कई अर्थों में मौलिक लेखन के बावजूद चरण सिंह को भारत के बुद्धिजीवी हलकों में हमेशा पराया ही समझा गया। इसके कारकों की पड़ताल अपने आप में रोचक है। इस व्यवहार के कारण कुछ भी हों, पर आज एक ऐसे समय में जब विकास की बयार अक्सर देहात और कृषि से बचकर निकल जाती है, इस ‘बहिष्कृत’ चिंतक के लुप्तप्राय विचार अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के आइपी कॉलेज ऑफ वूमेन में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)