दावोस, देश और बजट
इक्कीस साल बाद देश का कोई प्रधानमंत्री दुनिया के सबसे अमीर लोगों और कारपोरेट जगत के क्लब वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सम्मेलन में दावोस गया। वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदी में दुनिया भर के बड़े निवेशकों को संबोधित करते हुए भारत में मौजूद आर्थिक और कारोबारी संभावनाओं की बात की। उन्होंने यह भी कहा कि संरक्षणवाद के बढ़ते दौर में भारत ग्लोबलाइजेशन के लिए अपने दरवाजे खोल रहा है। उनकी बात सही है कि भारत में बड़ी विदेशी कंपनियां निवेश के लिए आएंगी तो अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ेगी ही, रोजगार सृजन की गति भी बढ़ेगी, जो इस समय उनके नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है।
लेकिन प्रधानमंत्री को यह भी मालूम होगा कि किसी भी निवेशक के लिए राजनीतिक स्थिरता, दीर्घकालिक नीतियां और कानून-व्यवस्था की बेहतरी ऐसे मानदंड हैं जो निवेश के फैसले को तय करते हैं। अफसोस की बात यह है कि दावोस के खूबसूरत रिसॉर्ट से उनके लौटने के दिन ही राजधानी दिल्ली से सटे और एनसीआर के हिस्से गुड़गांव से मासूम स्कूली बच्चों की चीख पूरे देश को सुनाई पड़ रही थी। इन बच्चों के चेहरों पर भय और दहशत का भाव था। ये बच्चे उस स्कूल बस में सवार थे जिस पर पद्मावत फिल्म का विरोध कर रहे लोगों ने पत्थरबाजी शुरू कर दी थी। ये लोग तथाकथित जातीय गौरव की रक्षा के लिए उस फिल्म का विरोध कर रहे हैं, जो उन्होंने देखी ही नहीं है। लेकिन उन बच्चों के अंदर जो दहशत इस हमले से पैदा हुई, वह लंबे समय तक उनके जेहन में बनी रहेगी। खास बात यह है कि गुरुग्राम, जो पहले गुड़गांव था, दुनिया भर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में सबसे अहम डेस्टिनेशन में शुमार है।
यही नहीं, जिस गुजरात राज्य को आर्थिक तरक्की और बेहतर कानून-व्यवस्था के मॉडल के रूप में देश भर के वोटरों के सामने पेश कर मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वहां की राजधानी अहमदाबाद में भी इसके दो दिन पहले हिंसा का तांडव हुआ और विरोधियों ने मॉल समेत तमाम संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। बात किसी एक गुड़गांव, अहमदाबाद, जयपुर, जोधपुर, मेरठ या भोपाल, इंदौर की नहीं है, बात है कि ऐसे उद्दंडियों की, जिन पर कानून की नकेल नहीं है। गौरतलब यह भी है कि फिल्म को फिल्म सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिल चुकी है और सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकारों को निर्देश दे चुका है कि फिल्म दिखाने के लिए सुरक्षा प्रदान की जाए। फिर भी जिस तरह की ढील राज्य सरकारों और प्रशासन की ओर से दिखी है, उससे लगता है कि इन असामाजिक तत्वों को भी परोक्ष रूप से इसका एहसास है कि वह तोड़-फोड़ और हिंसक कृत्यों को अंजाम देने के बाद भी कानून के शिकंजे से बच सकते हैं। अहम बात यह है कि इन अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं।
उसके बाद दूसरा बड़ा मुद्दा बजट का है। सरकार उसे अंतिम रूप देने में जुटी हुई है। जब यह अंक आपके हाथ में होगा, उसके कुछ दिन बाद ही वित्त मंत्री अरुण जेटली एक फरवरी को मौजूदा सरकार का अंतिम पूर्ण बजट पेश करेंगे। इस बजट से देश के सभी वर्गों को उम्मीदें बंधी हैं। यह बजट सरकार की उस रणनीति को भी साफ करेगा, जिसके तहत वह भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश करना चाहती है, सुधारों और विदेशी निवेशकों के लिए देश में निवेश के रास्ते आसान करना चाहती है। वैसे प्रधानमंत्री कह ही चुके हैं कि दुनिया भर के निवेशकों के लिए भारत एक चुंबक की तरह है, जहां सभी के लिए अवसर हैं।
लेकिन इस समय देश की अर्थव्यवस्था और आबादी का एक बड़ा वर्ग संकट में है। यह संकट है खेती और किसान का। साढ़े छह फीसदी की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर के दौर में कृषि विकास दर दो फीसदी के आसपास ही है। यह वर्ग बड़ा वोटर भी है, इसलिए सरकार की कोशिश है कि उसके संकट का हल निकाला जाए। 2019 में तय लोकसभा चुनावों के पहले वह किसानों की दिक्कतों को हल करते हुए दिखना चाहती है। लेकिन इस समय किसानों के तमाम उत्पादों की कीमतें निचले स्तर पर हैं और उनके सुधरने की जल्दी उम्मीद नहीं दिखती है। इसलिए संकट पैदावार का नहीं है बल्कि बेहतर उपज के बाद अच्छी कीमत का है। यही वह चुनौती है जिसे सरकार को हल करनी है। माना जा रहा है कि इस बजट में सरकार कुछ बड़ा करने जा रही है और एक फरवरी को वित्त मंत्री के बजट पेश करने के बाद मीडिया और विश्लेषक इस बजट को किसानों और गांव-देहात की सुध लेने वाला बजट कह सकते हैं। हालांकि यह तो तभी पता लगेगा जब जेटली अपना बजट पेश करेंगे।
अपनी बात पूरी करने के पहले मैं एक बात जरूर कहना चाहूंगा और वह है इस अंक की खास पेशकश, जो हमने कृषि से जुड़े इनोवेशन पर केंद्रित की है। यह आउटलुक की उस पहल का हिस्सा है जिसके तहत हमने देश के किसानों की आर्थिक बेहतरी पर बात करने के लिए इससे जुड़े नीति-निर्धारकों, विशेषज्ञों और किसानों को एक साथ मंच मुहैया कराने की कोशिश की।