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31 July 2019

उत्पीड़न के खिलाफ उठे आवाज तभी सुधरेगी पुलिस

हाल में रिलीज फिल्म आर्टिकल 15 में भारतीय पुलिस की मौजूदा स्थिति को अच्छी तरह से दिखाया गया है। इस फिल्म ने न केवल शर्म और निराशा की गहरी भावना पैदा की, बल्कि इससे कुछ उम्मीद भी दिखती है। उम्मीद यह कि अब भी कुछ पुलिसवाले और नेता ऐसे हैं, जो आम नागरिक को इंसाफ दिलाने की जंग लड़ रहे हैं।

सरकारी तंत्र को यह श्रेय तो दिया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में छोटे-छोटे सकारात्मक बदलाव हुए हैं। कह सकते हैं कि बदलाव के गंभीर प्रयास भी जारी हैं। भले ही उनकी रफ्तार धीमी है, लेकिन ये बदलाव निश्चित रूप से और विभिन्न तरीकों से हो रहे हैं। इसके लिए प्रगतिशील कानूनों, अदालती हस्तक्षेप, पुलिस व्यवस्था के भीतर ही विभिन्न सुधारवादियों के अथक प्रयासों और मानवाधिकारों को लेकर जागरूकता का शुक्रगुजार होना चाहिए। पहले की तुलना में जागरूकता बढ़ी है, हालांकि यह अब भी अपर्याप्त है। देश के कई हिस्सों में पुलिस बेहतर कार्यकुशलता, संवेदनशीलता और सामाजिक कौशल दिखाती है। आज भर्ती होने वाले पुलिसकर्मी ज्यादा शिक्षित और तकनीक के बेहतर जानकार हैं। पुलिस अधिकारी पेशेवर रूप से अधिक आत्म-विश्वासी हैं। लोगों को कुशल, संवेदनशील और बेहतर सेवा मुहैया कराने के लिए हम कुछ अधिकारियों की ओर से जोशपूर्ण प्रयासों को भी देखते हैं। कुछ राज्यों ने प्रौद्योगिकी का बड़े पैमाने पर और सफलतापूर्वक उपयोग किया है। नई पीढ़ी के कुछ पुलिस अधिकारियों का समर्पण और जुनून एक उम्मीद जगाता है।

लेकिन कुछ चुनिंदा सकारात्मक बदलावों को देखने के लिए 70 साल तक इंतजार करना कोई अच्छी बात नहीं है। आम नागरिक की चिंता यह है कि पुलिस बेहद असंवेदनशील, भारी पक्षपाती, पितृसत्तात्मक और सामंती मानसिकता वाली बनी हुई है। आम नागरिकों के मन में पुलिस की छवि क्रूर, जातिगत और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से ग्रसित, राजनैतिक संरक्षकों के पक्ष में खुलेआम पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाले और भ्रष्टाचारी के तौर पर बनी हुई है। पुलिस पर जनता के विश्वास में गिरावट लगातार जारी है और यह चिंता की बात है।

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तो, समस्या कहां है? आम लोग, राजनीतिक नेता और पुलिस अधिकारी सब व्यवस्था में सुधार की वकालत करते हैं। लेकिन राज्य हो या केंद्र सरकार, किसी भी स्तर पर इसे अमलीजामा पहनाने के लिए संस्थागत या ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। यह रहस्य सबको पता है कि सिस्टम के भीतर ही कई लोग इस बदलाव के हिमायती नहीं हैं। व्यवस्था को बिगाड़ने में पुलिस अधिकारियों और नौकरशाहों के साथ राजनीतिक नेताओं और दलों का निहित स्वार्थ है।

नई दिल्ली में हाल में आयोजित ‘न्याय तक पहुंच’ विषय पर एक कॉन्फ्रेंस में मैंने जिक्र किया था कि पुलिस अधिकारियों को खुद पुलिस सुधारों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और सक्रिय तौर पर सुधार के एजेंडे की अगुआई करनी चाहिए। कॉन्फ्रेंस में एक बहुत ही सम्मानित और जानी-मानी शख्सियत ने यह कहकर जवाब दिया कि पुलिस सुधार को अकेले पुलिस अधिकारियों पर नहीं छोड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि सेवा के दौरान अनेक पुलिस अधिकारी गंभीर सुधारों का विरोध करते हैं। लेकिन वही अधिकारी सेवानिवृत्त होने के बाद पुलिस सुधार के कट्टर समर्थक बन जाते हैं!

मैंने महसूस किया कि पुलिस सुधारों की अवधारणा में अंतर की वजह से ऐसी तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। असल में, अभी तक यह बात स्पष्ट नहीं है कि आखिर पुलिस सुधार होता क्या है। दूसरे शब्दों में कहें तो अलग-अलग लोगों के लिए सुधार का मतलब अलग-अलग है।

आम नागरिकों के लिए पुलिस सुधार का मतलब एक ऐसी सेवा होगी, जो पेशेवर रूप से कुशल, ईमानदार, पारदर्शी और अपने तरीके से जवाबदेह हो और सभी स्थितियों में कानून के शासन को बनाए रखने वाली हो। एक ऐसी पुलिस जो अपराध की शिकार महिला को संवेदनशीलता से सुनेगी, जिसकी हकदार वह असहाय पीड़िता है। पुलिस उसकी शिकायतों को दर्ज करे, निष्पक्ष रूप से जांच पूरी करे और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए कानून सम्मत कदम उठाए। इन सबसे ऊपर, एक ऐसा पुलिस बल जो निष्पक्ष हो तथा जाति, धर्म, धन, बाहुबल और राजनीतिक ताकत से प्रभावित न होता हो।

एक आम महिला या पुरुष पुलिसकर्मी के लिए पुलिस सुधारों का मतलब कुछ अलग तरह के बदलाव हो सकते हैं। यह कामकाज और रहन-सहन के बेहतर माहौल, लंबे और अप्रत्याशित काम के घंटों में कमी, उचित पारिश्रमिक और ऐसे आवास से जुड़ा हो सकता है जिससे उनका जीवन गरिमामय बने। इनमें सबसे ऊपर, वरिष्ठ अधिकारी उनके साथ मानवीय और संवेदनशील व्यवहार करें। उनमें करिअर को लेकर तरक्की की आकांक्षाएं भी होती हैं, लेकिन मौजूदा प्रणाली में तरक्की की संभावना बेहद कम होती है। कई राज्यों में कॉन्स्टेबल के रूप में भर्ती होने वाले अनेक लोग बतौर कॉन्स्टेबल ही सेवानिवृत्त होते हैं या फिर उनका निधन हो जाता है।

भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के बहुत से अधिकारियों के लिए पुलिस सुधार का मतलब कुछ अलग हो सकता है। मैंने देखा है कि कई आइपीएस अधिकारियों के लिए सुधार का मतलब न सिर्फ अलग है, बल्कि वे अपने जीवन और करिअर में आगे बढ़ने के साथ-साथ अपना रुख भी बदलते रहते हैं।

देश में पुलिस सुधार क्यों नहीं हुए, इसका कारण जानने के लिए दूर तक जाने की जरूरत नहीं। आइपीएस अधिकारी मजबूत मूल्यों के आधार पर सुसंगत और लगातार प्रबुद्ध नेतृत्व देने में सक्षम नहीं रहे हैं। कई पुलिस अधिकारी महत्वपूर्ण परिस्थितियों में सैद्धांतिक स्टैंड लेने में विफल तो रहे ही, अपने जूनियर्स के लिए भी रोल मॉडल नहीं बन सके। जहां कुछ लोग सुधार के लिए खड़े हुए, वहां उनकी अपनी ही बिरादरी ने उनका साथ नहीं दिया। अगर जमीनी हकीकत देखें, तो कई राज्यों में नेतृत्व किनारे बैठे उन अवसरवादी लोगों की तरह नजर आता है, जो न तो कोई स्टैंड लेता है और न ही हस्तक्षेप या अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है।

दिशाहीन पुलिस नेतृत्व के अलावा, नौकरशाही का दबदबा भी पुलिस सुधार की राह में एक बड़ी बाधा रहा है। यह सच है कि देश में कुछ दूरदर्शी और प्रगतिशील आइएएस अधिकारी रहे हैं, लेकिन जब बात पुलिस बल को शस्‍त्रों से लैस करने, प्रशिक्षण देने और उन्हें सशक्त बनाने की आती है, तो ज्यादातर आइएएस के विचार पूर्वाग्रही और संकीर्ण नजर आने लगते जाते हैं। आइएएस और आइपीएस के बीच अधिकार-क्षेत्र के विवाद ने भी नुकसान पहुंचाया है।

पुलिस पर लोकतांत्रिक निगरानी राजनीतिक नेतृत्व का एक वैध विशेषाधिकार है। हालांकि, इस देश में राजनीतिक नेता पुलिस से अगाध निष्ठा और अधीनता की उम्मीद करते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जहां कानून के शासन में मोलभाव मुमकिन है, वहां राजनेता, नौकरशाह और पुलिस नेतृत्व की साठगांठ संवैधानिक प्रणाली को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। पुलिस सुधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर थोड़ा ही सम्मान दिखाया गया है। यह लंबे समय में देश के गवर्नेंस के लिए हानिकारक है। आमतौर पर राजनीतिक और धन-बल से लैस लोगों के हितों की रक्षा की जाती है, जबकि गरीब और कम प्रभावशाली नागरिक सबसे अधिक भुगतते हैं।

अब सवाल है कि अगर पुलिस, प्रशासनिक और राजनीतिक नेतृत्व तत्काल जरूरी इन सुधारों को लाने में विफल रहा है, तो और कौन पहल कर सकता है? निर्भया के दुखद प्रकरण के तुरंत बाद दिल्ली में लोगों ने, विशेष रूप से सिस्टम के साथ अपनी नाराजगी और बेसब्री दिखाई थी। देशव्यापी अभियान का समय आ गया है। इसका और कोई तरीका नहीं है। या फिर 70 साल और इंतजार कीजिए!

भारत के संदर्भ में कहें तो केवल एक बड़ा, दूरदर्शी और राष्ट्रीय नेता इस तरह के बदलाव ला सकता है। भारत में बड़े कद के नेता रहे हैं, लेकिन हमें उनमें से किसी में भी बदलावों के लिए कदम उठाने की इच्छा या मौजूदा व्यवस्था की सहूलियतों से छेड़छाड़ करने का साहस नहीं दिखा। एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या देश कानून के शासन पर आधारित सशक्त आपराधिक न्याय प्रणाली और आधुनिक तकनीक से चलने वाली पुलिस के बिना अपनी आर्थिक और राजनैतिक आकांक्षाओं को हासिल करने की उम्मीद कर सकता है?

(लेखक सेवानिवृत्त आइपीएस और भारतीय पुलिस फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)

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TAGS: Police reform, voice, harassment, police, improve
OUTLOOK 31 July, 2019
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