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29 May 2021

प्रथम दृष्टि : अपने हाल पर गांव

भारत की आत्मा गांव में बसती है। गांधीजी का वर्षों पूर्व कहा गया कथन आज भी उतना ही सत्य है जितना आजादी के पहले था। जिस कृषि प्रधान देश की दो-तिहाई से अधिक आबादी अब भी ग्रामीण परिवेश में जीवन-यापन करती है, उसकी आत्मा अन्यत्र बस भी नहीं सकती। औद्योगिक विकास, अंधाधुंध शहरीकरण, सूचना क्रांति, वैज्ञानिक सोच, यहां तक कि मंगल ग्रह पर बसने के ख्वाब को साकार करने की जद्दोजहद के बावजूद यह देश दिल से गांवों का देश ही रहा है। विडंबना यह है कि जिस देश की आत्मा गांव में बसती है, वहां के गांवों को, लगता है, हमेशा के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। अगले वर्ष देश की आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनाई जाएगी, लेकिन क्या आज हर गांव में अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधा है? कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान मच रहे हाहाकार के बीच जो सबसे डरावना सच सामने आया, वह है ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधायों का वर्षों से नदारद रहना। ऐसा नहीं है कि शहरी क्षेत्रों में अस्पतालों, ऑक्सीजन और दवाइयों की किल्लत से लोगों की असामयिक मृत्य नहीं हुई, लेकिन सुदूर क्षेत्रों में कोविड-19 के कारण हुई हजारों मौतों ने उस कटु सत्य को उजागर किया, जिसे हम स्वीकार करने से कतराते रहे हैं।

आज समाचार-पत्रों और टीवी पर दिखाए जा रहे देश के कई ग्रामीण क्षेत्रों, कस्बों या छोटे शहरों के अस्पतालों के जर्जर भवन, उनकी दीवारों पर चिपके गोबर के उपलों की तस्वीर या वहां के वार्डों में बेफिक्र घूम रहे पशुओं को देखना हमें सकते में नहीं डालता। अब ये हमारी अंतरात्मा को झकझोरते भी नहीं। ऐसे दृश्य इन अस्पतालों की हालत दशकों से बयां कर रहे हैं। हां, कोरोना संक्रमण त्रासदी ने हमें यह जरूर स्मरण कराया है कि मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत छोटे-छोटे गांवों को भी उतनी ही है जितना बड़े शहरों को। कम से कम व्यवस्था इतनी सुदृढ़ तो हो कि हर गांव के पांच किलोमीटर के दायरे में जरूरी सुविधायों से लैस एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हो, जो सिर्फ सरकारी कागजों पर नहीं, बल्कि रोजाना सुचारू रूप से चले। जहां वेंटीलेटर और आइसीयू भले न हों, लेकिन जीवनरक्षक दवाएं मयस्सर हों। जहां एक एमबीबीएस डॉक्टर के साथ दो नर्स प्रतिदिन कम से कम आठ घंटों के लिए कार्यरत दिखें। दुर्भाग्यवश, वर्षों से स्थितियां ऐसी रही हैं कि आज ऐसी उम्मीद करना आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा लगता है।

आखिर हालात ऐसे क्यों हुए? क्या देश की आर्थिक स्थिति ऐसी रही कि ऐसी व्यवस्था बनाने में यहां की सरकारें चाहकर भी सफल नहीं हुईं? या फिर यह वर्षों से चली आ रही शासकीय इच्छाशक्ति के अभाव की देन है? इसमें दो मत नहीं कि शिक्षा की तरह स्वास्थ्य भी हुक्मरानों की प्राथमिकता कभी नहीं रहा। साल दर साल के बजट आंकड़ों से यह स्पष्ट है। यदा-कदा कुछ राज्य सरकारों ने ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के प्रयास किए, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। देश के कई इलाकों में जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के पुराने भवन इस बात की गवाही देते हैं कि प्रयास तो जरूर किए गए, लेकिन कभी चिकित्सकों की कमी या अनुपस्थिति से, कभी राजनैतिक उदासीनता से और कभी विधि-व्यवस्था जैसी स्थानीय समस्याओं से वे नियमित रूप से संचालित नहीं हुए। आज भी अधिकतर जिलों के सदर अस्पताल वेंटीलेटर जैसी आवश्यक सुविधाओं से वंचित हैं, और कुछ में उपलब्ध हैं भी तो उन्हें चलाने के लिए योग्य व्यक्तियों की नियक्ति नहीं हुई। नतीजा यह है कि गांवों में अचानक जरूरत पड़ने पर नीम-हकीम और झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं सूझता।

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दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सकों की कमी की समस्या लंबे समय से रही है। अधिकतर राज्यों में जरूरत के अनुसार नियुक्तियां नहीं हुई हैं। ऐसे क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं के अभाव और अन्य समस्याओं के कारण अधिकतर चिकित्सक वहां सरकारी अस्पतालों में अपनी सेवाएं देने के बजाय शहरों में निजी क्लिनिक या प्राइवेट अस्पतालों में काम करना बेहतर समझते हैं। कुछ विशेषज्ञों का सुझाव रहा है कि इस समस्या को दूर करने के लिए ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों की नियुक्ति की अलग व्यवस्था हो। इस तरह की व्यवस्था कितनी व्यावहारिक है, इस पर गौर करने की जरूरत है, लेकिन अगर ग्रामीण क्षेत्रों में इससे स्थितियां बेहतर हो सकती हैं, तो इसकी आधिकारिक पहल की जा सकती है। चिकित्सकों की उपलब्धता वहां अच्छे निजी क्षेत्रों के अस्पतालों के खुलने का मार्ग भी प्रशस्त कर सकती है। आज कोरोना काल की भयावहता को देखते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं को जल्द से जल्द बहाल करने की आवश्यकता है, भले ही इसके बजट के आकार को कई गुना बढ़ाना पड़े। ऐसा करके हम आने वाले समय में कोरोना जैसी महामारियों से बेहतर ढंग से निपट सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि वैश्विक स्तर पर शुरू हो चुके टीकाकरण अभियान के बावजूद इस वायरस के हमारे इर्दगिर्द मंडराने का खतरा बना रह सकता है। लड़ाई लंबी हो सकती है और देश की आत्मा को उसके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता।

@giridhar_jha

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TAGS: Pratham Dristi, Covid Crisis, Rural India, प्रथम दृष्टि, कोरोना वायरस, गिरिधर झा, Giridhar Jha, Outlook Hindi Opinion
OUTLOOK 29 May, 2021
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