जनादेश ’24 नजरिया: लोकतंत्र का यह कैसा अखाड़ा
आम चुनाव हैं लेकिन चुनाव में सवाल लोकतंत्र का है और लोकतंत्र के इस अखाड़े में चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक टकरा रहे हैं। कहीं चुनाव आयोग की खामोशी तो कहीं सुप्रीम कोर्ट का केंद्र सरकार को नोटिस थमाना। पहली बार चुनाव लड़ने वाले राजनैतिक गठबंधनों में पार्टियों की संख्या रिकॉर्ड-तोड़ है। एनडीए में भजपा के साथ 44 पार्टियां तो ‘इंडिया’ गठबंधन में कांग्रेस के साथ 29 राजनैतिक दल हैं। बाकी दर्जन भर राजनैतिक दल अपने-अपने बूते हैं। लेकिन एक तरफ चुनावी अखाड़े में नरेंद्र मोदी की छवि पार्टियों से बड़ी हो चुकी है, तो दूसरी तरफ राहुल गांधी चुनावी दौड़ को भी विचारों में लपेटकर जीत-हार से दूरी बना चुके हैं। लेकिन लोकतंत्र का अखाड़ा चुनावी राजनीति का ऐसा हथियार बन चुका है, जिसमें निशाने पर चुनाव आयोग है, तो मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता है।
याद कीजिए, आजादी के बाद से देश में कभी कोई चुनाव ऐसा हुआ नहीं कि चुनाव आयोग की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट के फैसले चुनाव को प्रभावित करने वाले हो जाएं। विपक्ष का गठबंधन चुनाव आयोग की घेराबंदी यह कहकर करे कि सभी के लिए एक बराबर अवसर होना चाहिए, जो नहीं हो रहा है। निशाने पर चुनाव आयोग को लेने में सुप्रीम कोर्ट भी नहीं हिचके। चुनावी फंडिग यानी बॉन्ड से लेकर ईवीएम तक पर नोटिस चुनाव आयोग को थमा दिया जाए।
इस चुनावी अखाड़े में कोई भी कह सकता है कि आजादी के 75 साल में किसी भी चुनाव में कांग्रेस इतनी कमजोर कभी नहीं रही कि उसे क्षत्रपों के सामने समझौता करने के लिए झुकना पड़े। आजादी के बाद के हर चुनाव में विपक्ष नजर आया लेकिन कभी इतना कमजोर नहीं दिखा, जितना आज हो चला है। कह सकते हैं कि लगातार दो चुनाव, वह भी बहुमत के साथ जीतने वाली सत्ता तीसरे चुनाव में कहीं ज्यादा ताकतवर होकर चुनाव मैदान में उतरे यह स्थिति भी इससे पहले कभी नहीं रही। तो, क्या चुनाव आयोग की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट के फैसले ही 2024 की राजनैतिक राह तय करेंगे।
चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधू, ज्ञानेश कुमार और मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार (बीच में)
शायद यह पहली बार है कि चुनाव के ऐलान के बाद समूचे विपक्ष ने जिस लोकतंत्र के खत्म होने की दुहाई देनी शुरू की, उसमें चुनाव आयोग की भूमिका निशाने पर है तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद जगी कि लोकतंत्र बरकरार रहेगा, जब तक सुप्रीम कोर्ट फैसले दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट का हर फैसला गौरतलब है, चाहे वह चुनावी बॉन्ड को लेकर हो या ईवीएम को सौ फीसदी वीवीपैट से जोड़ने के लिए चुनाव आयोग को नोटिस देने का हो या दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह की जमानत का हो। अगर ये सारे फैसले राजनैतिक तौर पर मोदी सरकार के खिलाफ जा रहे हो, तो किसी को भी लगेगा कि सुप्रीम कोर्ट के हर फैसले की जद में सत्ताधारी दल है। ऐसी स्थिति 1975 में तब आई थी जब इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ गया था और इंदिरा गांधी ने तब चुनाव में जाने के बदले देश में इमरजेंसी लगा दी थी। लेकिन इमरजेंसी के बाद जब चुनाव हुए तो चुनावी मुद्दा हाइकोर्ट का फैसला नहीं था बल्कि इमरजेंसी थी।
इससे पहले राजनीतिक दलों के मुद्दे जरूर कार्यपालिका या न्यायपालिका को लेकर सवाल उठाते थे। बोफोर्स घोटाले के दौर में जांच एंजेसी सीबीआइ निशाने पर थी। यही स्थिति 2जी और कोयला घोटाले के वक्त भी हुई। तब विपक्ष की राजनीति ने नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट को आधार बनाया था। लेकिन 2024 के चुनाव को परखें, तो हालात उलटे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को अंसवैधानिक करार दिया। उसके बाद भी चुनावी बॉन्ड न सिर्फ छपे बल्कि जनवरी-फरवरी महीने में आठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का खेल हो गया। लेकिन चुनाव आयोग ने खामोशी बरती। चुनाव के ऐलान से महज 24 घंटे पहले दो चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने की। पैनल में तीसरे व्यक्ति लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर अधीररंजन चौधरी थे, जिन्होंने विरोध किया।
सवाल यह उठा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में तीन सदस्यीय पैनल में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश के होने पर मुहर लगाई थी तो बिना देर किए सरकार ने संसद में कानून लाने की जल्दबाजी क्यों दिखाई। यूं तो सुप्रीम कोर्ट को लेकर सवाल तब भी उठे जब तत्कालीन कानून मंत्री किरण रिजूजू ने रिटायर हो चुके जजों को कथित तौर पर धमकाया था। पहली बार किसी प्रधान न्यायाधीश (रंजन गगोई) को रिटायर होने के चंद महीने बाद ही राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया गया।
लोकतंत्र के अखाड़े में, तो इस बार खुला खेल तब शुरू हुआ, जब चुनाव के ऐलान के बाद आयकर विभाग के कहने पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का बैंक अंकाउट फ्रिज कर दिया गया। पहली बार कांग्रेस ने कहा कि उसके पास चुनाव प्रचार के लिए एक पैसा नहीं है। यही नहीं, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी चुनाव ऐलान के बाद दो मुख्यमंत्रियों को जेल में डाल दिया। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गिरफ्तारी के पहले इस्तीफा दे दिया, मगर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जेल से ही सरकार चला रहे हैं। यह भी पहली बार हुआ।
देश में चुनाव आचार संहिता लगीं हुई है। सारा प्रशासन चुनाव आयोग के हाथ में है। आधे दर्जन राज्यों में कलेक्टर और एसपी के तबादले किए गए। लेकिन राजनैतिक मामलो में ईडी, आइटी, सीबीआइ की कार्रवाई पर चुनाव आयोग ने चुप्पी नहीं तोड़ी, जबकि विपक्ष ने सत्ता के इशारे पर राजनैतिक बदले की कारवाई का आरोप लगाया। उसने चुनाव आयोग से गुहार लगाई। फिर भी आयोग खामोश रहा। चुनाव आयोग के पास पिछले तीन महीने से समय नहीं दे पा रहा कि विपक्ष ईवीएम पर अपनी दलीलों का ज्ञापन उसे सौंपे। यानी पहली बार लोकसभा चुनाव चाहे अनचाहे राजनैतिक दलों की ताकत, उनकी लोकप्रियता या उनकी विचारधारा का चुनाव नहीं है।
ध्यान दीजिए तो विपक्ष भी एकजुट तो हुआ लेकिन उसके पास कोई एक चेहरा नहीं है। उम्मीदवारों की राजनैतिक पहचान पारंपरिक ही है। राष्ट्रीय स्तर पर मंहगाई, बेरोजगारी या विकसित भारत का सपना भी मुद्दा नहीं है। चुनाव है, तो लोकतंत्र है। लोकतंत्र है तो चुनाव है। लेकिन विपक्ष एकजुटता के साथ चुनावी प्रचार चाहे पटना के गांधी मैदान में करे या मुबंई के शिवाजी स्टेडियम में या फिर दिल्ली के रामलीला मैदान में तीनों जगहों पर निशाने पर चुनाव आयोग ही आया और उम्मीद सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही जगायी गई। यहां तक की चुनावी घोषणापत्र जारी करते हुए भी कांग्रेस की जबान पर लोकतंत्र बचाने और संविधान की रक्षा करने वाले चुनाव के ही बोल रहे। शरद पवार वर्धा पहुंचे तो महात्मा गांधी को याद करके देश में अघोषित आपातकाल होने का जिक्र खुलकर कर गए। उद्धव ठाकरे हों या तेजस्वी यादव या ममता बनर्जी, सभी खड़े हैं चुनावी अखाड़े में। लेकिन जिक्र लोकतंत्र के उस अखाड़े का ही कर रहे हैं, जो सत्ता की मुट्ठी में है।
(वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार, विचार निजी हैं)