धर्मस्थल या शूटिंग लोकेशन?
आधुनिकता के साथ विकसित होती डिजिटल दुनिया, अब धार्मिक स्थलों को सतही दिखावे की ओर धकेल रही है। इन स्थानों पर जाने का उद्देश्य अब आत्मशुद्धि न होकर ‘कंटेंट क्रिएशन’ बनता जा रहा है। अब यह ज़रूरी नहीं कि लोग ईश्वर के आगे सिर झुकाएँ, बल्कि यह आवश्यक हो गया है कि वे उस स्थान की भव्यता को कैमरे में कैद करें और इंस्टाग्राम या फ़ेसबुक पर डालकर दुनिया को दिखाएँ। यह बदलाव केवल एक सामाजिक परिवर्तन नहीं, बल्कि हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों की असल पहचान के लिए गंभीर चुनौती बन चुका है। हिमालय के पवित्र धामों से लेकर काशी के घाटों तक, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से वृंदावन की गलियों तक, श्रद्धा से लबरेज़ स्थलों को अब ‘सेल्फी पॉइंट’ बना दिया गया है। केदारनाथ धाम, जो कभी कठिन यात्रा और आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए प्रसिद्ध था, वहाँ अब लोग गोप्रो कैमरे लेकर व्लॉग बनाने पहुँचते हैं। गंगा आरती के समय जहाँ पहले भक्त आँखें बंद कर ध्यान में लीन होते थे, वहाँ अब वीडियो रिकॉर्डिंग की होड़ लगी रहती है। इन तस्वीरों और वीडियो से सोशल मीडिया पर भले ही पर्यटन बढ़ा हो, मगर श्रद्धा का असली रूप लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है।
इस परिवर्तन के पीछे कई कारण हैं। पहला, डिजिटल युग ने धार्मिक स्थलों को भक्ति से हटाकर ‘पर्यटन स्थल’ में बदल डाला है। टूरिज्म कंपनियाँ इन्हें ऐसे प्रचारित कर रही हैं, मानो ये केवल घूमने और मौज-मस्ती की जगहें हों। चारधाम यात्रा अब केवल एक आध्यात्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक ‘पैकेज टूर’ में तब्दील हो चुकी है। होटल, कैफे, एडवेंचर स्पोर्ट्स, हेली-टूरिज्म, रोपवे—इन सबने आध्यात्मिक स्थलों को व्यापार का मैदान बना दिया है। दूसरा बड़ा कारण सोशल मीडिया और इंफ्लुएंसर संस्कृति है, जिसमें धार्मिक स्थलों की पवित्रता से ज़्यादा, अच्छा वीडियो और ज़्यादा लाइक्स का महत्व है। इस बदलती पहचान का प्रभाव भी बेहद गहरा है। सबसे बड़ा असर श्रद्धा और भक्ति की गहराई पर पड़ा है। जहाँ पहले लोग मंदिरों में ध्यानमग्न होते थे, अब वे कुछ मिनट ठहरकर फोटो लेकर आगे बढ़ जाते हैं। धार्मिक यात्राएँ आत्मचिंतन और आत्मशुद्धि का माध्यम थीं, अब वे केवल एक चलन बनकर रह गई हैं। भीड़ और डिजिटल गतिविधियों के कारण इन स्थलों की शांति और पवित्रता भंग हो चुकी है। मंदिरों और गुरुद्वारों में पहले जहाँ सन्नाटा और आध्यात्मिकता महसूस होती थी, वहाँ अब कैमरों की फ्लैश और आवाजें छाई रहती हैं।
इस दिशा को पलटने के लिए समाज और सरकार दोनों को ठोस कदम उठाने होंगे। सरकार को धार्मिक स्थलों पर कड़े नियम लागू करने चाहिए, जिससे इनकी गरिमा बनी रहे। जैसे तिरुपति बालाजी मंदिर और स्वर्ण मंदिर में कैमरा और मोबाइल का उपयोग प्रतिबंधित है, वैसे ही अन्य स्थलों पर भी यह लागू होना चाहिए। जापान के बौद्ध मठों में मोबाइल ले जाना सख्त मना है, जिससे ध्यान और शांति बनी रहे। वेटिकन सिटी के चर्चों में भी लोग मोबाइल निकालकर फोटो नहीं खींच सकते। भारत को भी इसी दिशा में कदम उठाने होंगे। इसके अलावा, धार्मिक स्थलों के व्यावसायीकरण पर भी नियंत्रण जरूरी है। अब तो कई मंदिरों में ‘VIP दर्शन’ का प्रचलन चल पड़ा है, जिसमें अधिक पैसे देने वालों को विशेष सुविधा मिलती है। यह धर्म की मूल भावना के बिल्कुल विपरीत है। धर्म का व्यवसायीकरण न सिर्फ इन स्थलों की गरिमा को कम करता है, बल्कि श्रद्धालुओं में असमानता की भावना भी बढ़ाता है। सरकार को मंदिरों और धार्मिक संस्थानों के व्यावसायिक स्वरूप पर सख्त क़ानून बनाने चाहिए ताकि आस्था को बाज़ार बनने से रोका जा सके।
समाज को भी इस बदलाव की गंभीरता को समझना होगा। हमें अपने उद्देश्यों पर पुनर्विचार करना होगा—क्या हम धार्मिक स्थलों पर आत्मिक शांति पाने जाते हैं, या केवल अपनी उपस्थिति सोशल मीडिया पर दिखाने? श्रद्धा केवल बाहरी प्रदर्शन से नहीं आती, बल्कि वह एक भीतरी अनुभूति है। इन स्थलों पर जाना केवल ‘सही एंगल’ में तस्वीर खींचने के लिए नहीं, बल्कि भक्ति और आस्था के साथ कुछ क्षण बिताने के लिए होना चाहिए। दूसरे देशों में इस संकट से निपटने के लिए अनेक उपाय किए गए हैं। इज़राइल के यरुशलम में विशेष सुरक्षा गार्ड तैनात रहते हैं, जो शोर और अनुचित गतिविधियों पर रोक लगाते हैं। बौद्ध धर्म स्थलों पर ध्यान और साधना के लिए विशेष क्षेत्र बनाए गए हैं, जहाँ पर्यटकों को मौन रहना होता है। भारत में भी इसी तरह के उपाय किए जाने चाहिए। मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर ऐसे क्षेत्र बनाए जाएँ, जहाँ मोबाइल प्रतिबंधित हो और भक्त शांति से पूजा कर सकें।
अंततः, श्रद्धा और दिखावे के इस द्वंद्व में हमें तय करना होगा कि हम किस दिशा में जाना चाहते हैं। क्या हम धर्म को केवल एक ट्रेंड बनाकर इसकी गहराई खोना चाहते हैं, या इसे उसकी मूल आत्मा में सहेजना चाहते हैं? यह बदलाव हमारी मानसिकता में लाना होगा। जब तक लोग खुद यह नहीं समझेंगे कि श्रद्धा का अर्थ केवल तस्वीर खींचना नहीं, बल्कि उसे महसूस करना है—तब तक समाधान संभव नहीं। धर्म केवल परंपरा नहीं, एक आस्था और आत्मानुभूति का अनुभव है। यदि हम इसे केवल पर्यटन या सोशल मीडिया तक सीमित कर देंगे, तो इसकी गहराई खो जाएगी। इसलिए समय आ गया है कि हम अपनी जिम्मेदारी समझें और धार्मिक स्थलों की गरिमा को बचाने के लिए आवश्यक कदम उठाएँ। जब तक श्रद्धा से ज़्यादा सेल्फी महत्वपूर्ण रहेगी, तब तक धर्म केवल दिखावा बनकर रह जाएगा। हमें इसे सतही बनते दिखावे से बचाकर, आत्मिक शांति और भक्ति का माध्यम बनाए रखना होगा।