कोविड-19 का खतरा और मनोवैज्ञानिक भय
कोविड-19 के खतरे का मोटे तौर पर गलत अनुमान लगाया गया है। इसके कारण मनोवैज्ञानिक भय पैदा हुआ है जिससे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हो सकता है और भोजन और आवश्यक सेवाओं की कमी हो सकती है। समूचे यूरोप और पूर्वी एशिया के कुछ देशों में लोगों को इस तथ्य का अहसास हो गया कि उन्हें कुछ समय कोविड-19 के साथ रहना पड़ सकता है। दूसरी ओर, अनेक विकासशील देशों खासकर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में लॉकडाउन के कारण सभी गतिविधियां बंद हैं।
मैं यह तर्क नहीं दे रहा हूं कि हमें अपने जीवन पर इस नए खतरे की चिंता नहीं करना चाहिए। लेकिन हमें इस खतरे से निपटने के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे। भारत में हर साल 10,000 लोग मलेरिया और 150,000 लोग सड़क दुर्घटनाओं में मर जाते हैं। लेकिन हम जब भी बाहर निकलते हैं तो मलेरिया या एक्सीडेंट होने का मनोवैज्ञानिक भय नहीं सताता है।
मनोविज्ञान में ‘मौन’ पर काफी कुछ लिखा गया है। कोई सूचना ‘शांतिपूर्वक’ कैसे प्रस्तुत की जाती है, उसी पर तार्किक उपाय निर्भर करते हैं। अगर आप कोविड की मौतों की जानकारियां विस्तार से पढ़ते हैं, लेकिन ड्राइविंग के दौरान सीट बेल्ट न लगाने के खतरों की जानकारी पीछे के पन्नों पर पढ़ते हैं तो आपके दिमाग में अलग छवि बनती है। जब से हम सोशल मीडिया और त्वरित समाचार के युग में जी रहे हैं, इसका व्यापक असर हो रहा है।
इतना ही महत्वपूर्ण यह है कि अमीर देशों से आ रहे महामारी के आंकड़ों को आबादी के अनुसार तारतम्य बनाए बगैर प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इस वजह से ज्यादा आबादी वाले एशिया और अफ्रीका में खतरे का पूरी तरह गलत अनुमान लगाया जा रहा है। जब हमें पता चलता है कि अमुक तारीख तक भारत में कोविड से 3,434 लोग मर गए और आयरलैंड में 1,571 लोगों की मौत हुई, तो बहुत से भारतीय घबरा जाते हैं। लेकिन आबादी के लिहाज से ये आंकड़े सही हैं कि आयरलैंड में कोविड से मर रहे लोगों पर कोविड का खतरा भारत के मुकाबले 260 गुना ज्यादा है। वर्तमान खतरे में इस तरह का भारी अंतर सिर्फ भारत और आयरलैंड के बीच ही नहीं है, बल्कि अफ्रीका, एशिया और अधिकांश लैटिन अमेरिका की तुलना में यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी खतरा ज्यादा है।
कुछ लोग मेरे तर्क के जवाब में कह सकते हैं कि मैं भविष्य के खतरे को अनदेखा कर रहा हूं। क्या इसकी आशंका नहीं है कि अफ्रीका और एशिया में कोविड महामारी बड़े पैमाने पर फैल जाए? उस स्थिति में क्या हमें अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पूरी तरह लॉकडाउन नहीं करना चाहिए?
पहले सवाल का जवाब ‘हां’ है और दूसरे सवाल का ‘ना’। इसके बारे में मेरा कहना है कि भविष्य के बारे में आमतौर पर हम बहुत कम जानते हैं। कोविड-19 इतना नया वायरस है कि हमें इसकी बहुत कम जानकारी है। महामारी धीरे-धीरे कम होगी, यह बढ़ सकती है और फिर स्थिर हो सकती है। यह बड़ी महामारी के रूप में फैल सकती है, इसकी संभावना को नकारना मूर्खता होगी। लेकिन हम हमेशा सबसे बुरी स्थिति के बारे में नहीं सोच सकते हैं, बल्कि उसके साथ रह सकते हैं। इस तर्क से तो देशों को वुहान की घटना से पहले ही लॉकडाउन कर देना चाहिए था। हमें नए वायरस के खतरे की जानकारी कुछ समय पहले मिल गई थी। 27 अप्रैल, 2018 को मैसाचुसेट्स मेडिकल सोसायटी के एक कार्यक्रम में बिल गेट्स और कई अन्य लोगों ने हमें नए वायरस और महामारी की चेतावनी दी थी। कुछ लोगों के तर्क के अनुसार अर्थव्यवस्थाओं को तभी बंद कर देना चाहिए था। बिल गेट्स ने इस तरह का कोई सुझाव नहीं दिया, बल्कि उन्होंने रिसर्च और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए अपील की थी।
अगर हम सबसे खराब हालात पर भी गौर करें तो हम इस तथ्य को नजरंदाज कर रहे हैं कि सामान्यतया कोविड से मरने का खतरा समूचे अफ्रीका और एशिया में यूरोप और उत्तरी अमेरिका के मुकाबले कई सौ गुना कम है जो पिछली बीमारियों के कारण हो सकता है। इसलिए इन क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ब्राजील के जायर बोसलोनारो जैसे विश्व के कुछ गैर जिम्मेदार नेता हैं जिन्होंने सभी वैज्ञानिक सबूतों को नकारते हुए बेहद लापरवाही का रवैया अपनाया और कोविड-19 को सामान्य सर्दी-जुकाम की तरह मान लिया। सौभाग्य से एंजेला मार्केल और इमेनुएल मैक्रॉन जैसे उत्कृष्ट नेता भी हैं, जो लोगों को महामारी के प्रति आगाह कर रहे हैं लेकिन इस ओर संकेत भी करते हैं कि हमें लॉकडाउन खोलने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कठोर फैसले करने होंगे।
यद्यपि पिछले दो महीनों में भारत से पूंजी का बाहर जाना चिंताजनक है, लेकिन उम्मीद बनी हुई है क्योंकि तमाम कॉरपोरेट लीडर, वरिष्ठ नौकरशाह और सभी विचारधारों की पार्टियों के नेता हाल के दिनों में कहने लगे है कि लंबा खिंचता लॉकडाउन बेहतरी से कहीं ज्यादा नुकसानदायक हो सकता है। देश में कुछ अच्छी प्रैक्टिस खासकर केरल में सामने आई, जिनके बारे में पूरी दुनिया में चर्चाएं हो रही हैं। देश में दिल्ली जैसे कुछ राज्यों में भी ऐसी प्रैक्टिस दिखाई दी।
लेकिन कुछ ऐसे भी देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्थाओं को भारी झटका लगने का खतरा है। अर्जेंटीना ऐसा ही एक उदाहरण है। इसमें उसकी कोई गलती नहीं है। अर्जेंटीना को प्राइवेट अंतरराष्ट्रीय कर्जदाता लोन डिफॉल्टर घोषित करने वाले हैं, इससे महामारी के समय में इन कर्जदाताओं की सहानुभूति का अभाव दिखाई देता है। लेकिन उसकी कुछ समस्याएं भी उभरकर सामने आई हैं। जिंदगियां बचाने के गलत अनुमान के आधार पर अर्थव्यवस्था बंद करने और आवागमन रोकने में उसने बहुत जल्दबाजी दिखाई।
अर्थव्यवस्था की बात आती है तो सवाल यह नहीं है कि लॉकडाउन होना चाहिए या नहीं, बल्कि सवाल है कि कैसा लॉकडाउन होना चाहिए। यह बात सामने आ रही है कि हम न्यूनतम सामाजिक संपर्क के नियम बनाकर भीड़ को रोकते हुए हम बसें और ट्रेन चला सकते हैं और सीमित संख्या में लोगों को अनुमति दे सकते हैं। विमानों में एक सीट छोड़कर बिठा सकते हैं। इससे किराया बढ़ सकता है लेकिन हमें यह कीमत तो चुकानी ही होगी। सरकार गरीबों को सीधे सब्सिडी देकर राहत दे सकती है। हमें यह व्यवस्था लागू करने के लिए ज्यादा स्टाफ की आवश्यकता होगी, जिससे नए रोजगार पैदा होंगे। अगर कोई व्यक्ति संक्रमित हो जाता है तो पूरा एरिया या फिर पूरी बिल्डिंग में शटडाउन करने के बजाय उसके परिवार को क्वेरेंटाइन किया जा सकता है। पश्चिमी देशों और पूर्वी एशिया में स्कूल खोलने पर चर्चाएं हो रही हैं और कुछ ने पहले ही खोल दिए हैं, क्योंकि इससे देश के मानव संसाधन को और भविष्य में विकास को भारी नुकसान हो सकता है। मैं फिलहाल भारत में इस दिशा में सोचने नहीं कहूंगा लेकिन जून में हमें फैसला करना होगा, तब तक महामारी की स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी। दूसरी ओर, हमें टेस्टिंग और संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए लोगों की खोज के लगातार प्रयास करते रहना होगा। इससे हम सटीक लॉकडाउन पूंजी प्रवाह और आर्थिक बदहाली के जोखिम को टालकर प्रभावी तरीके से लागू कर सकेंगे।
अर्थशास्त्रियों ने श्रमिकों, प्रवासी मजदूरों और छोटे अनौपचारिक कामगारों की मदद के लिए सरकार की ओर से ज्यादा धन दिए जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। यह बहुत आवश्यक है। हालांकि यह समझने का समय है कि अर्थव्यवस्था अत्यंत नाजुक दौर से गुजर रही है। एक महत्वपूर्ण कारक जो उसे विकास करने में सहायक होता है, वह बाजार का अदृश्य हाथ है, जो हजारों वर्षों में विकसित हुआ है। बाजार का यह अदृश्य हाथ लाखों लोगों में हर किसी को यह निर्णय लेने को सक्षम बनाता है कि उसे क्या उत्पादन करना है और क्या खरीदना है। यदि बाजार को अत्यधिक नियंत्रण के जरिये रोक दिया जाता है, तो इस इस अदृश्य हाथ का कोई विकल्प नहीं होगा जिसकी नौकरशाह और पुलिस भरपाई कर सकें। वे लोगों को नहीं बता सकते कि क्या करना है और पैसा कहां खर्च करना है। 1970 के दशक के आखिरी दौर में डेंग जियाओपिंग ने इस सिद्धांत को माना, जिसके कारण चीन की अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का अवसर मिला। ये चुनौतीपूर्ण समय है लेकिन अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में उभरते देशों के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था और समाज किसी आपदा का एक नुस्खा है।
(लेखक अमेरिका की कार्नेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में भी प्रकाशित हुआ है)