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26 June 2024

जनादेश ’24/नजरियाः मोदी से मोहभंग!

चुनाव परिणाम आने के अगले दिन 5 जून 2024 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले, अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य और पूर्व सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी और संघ-सरकार में समन्वय बनाने वाले अरुण कुमार मुलाकात के लिए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर पहुंचे। अमित शाह और राजनाथ सिंह वहां पहले से मौजूद थे। चुनाव परिणाम को लेकर चर्चा के बीच जेपी नड्डा से सीधा सवाल पूछा गया- आपने कहा था कि संघ की प्रासंगिकता अब भाजपा के लिए नहीं है। यह आपने खुद सोचा या किसी के कहने पर कहा? वह कौन है जिसके कहने पर आप ऐसा बोले? नड्डा का जवाब था, ‘‘मैंने वैसा कुछ नहीं कहा जैसा अखबार में छपा।’’ इस पर संघ के पदाधिकारियों का कहना था- लेकिन आपने इसका स्पष्टीकरण नहीं दिया, अखबार में छपी रिपोर्ट का खंडन नहीं किया।

यह मीटिंग ट्रिगर की तरह काम कर गई, जिसके बाद सरसंघचालक मोहन भागवत से लेकर इन्द्रेश कुमार और संघ के मुखपत्र में लिखे गए लेखों के जरिये संघ का गुस्सा सामने आ गया। इसके बाद दिल्ली की धड़कन बढ़ने लगी और सवाल बड़ा होने लगा कि अल्पमत भाजपा की सहयोगियों के सहारे सरकार तो बन गई, लेकिन क्या मोदी इसे पांच साल चला पाएंगे। मुख्य मुद्दा यह है कि बात यहां तक कैसे पहुंची और आने वाले वक्त में इसका क्या असर होगा। इसके लिए मोदी-भागवत की उस ट्यूनिंग को समझना होगा जो बीते दस बरस में कभी भी टकराव तक नहीं पहुंची, बल्कि सरसंघचालक ने हमेशा प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ ही की।

“सत्ता पाने के तरीके से बड़ी कोई विचारधारा नहीं होती। सत्ता होगी तभी संघ अपने एजेंडे पूरे कर सकता है। सत्ता रहेगी, तो संघ को विस्तार में मदद मिलेगी। सत्ता रहेगी तो कांग्रेस भी संघ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। सत्ता में रहकर ही संघ के उन कार्यों को भी पूरा कर पाएगा, जिसे पहले कोई सरकार पूरा न कर सकी, चाहे वह अनुच्छेद 370 हो या अयोध्या में राम मंदिर निर्माण या कॉमन सिविल कोड।” कमोबेश 2017 से लेकर मार्च 2024 तक इन्हीं बातों का जिक्र अलग-अलग तरीके से प्रचारक से प्रधानमंत्री तक की कुर्सी पर पहुंचे नरेन्द्र मोदी ने किया। साथ ही चुनावी बिसात बिछाने वाले अमित शाह भी यही भरोसा दिलाते रहे कि सत्ता हर हाल में भाजपा की होगी। चुनाव से ऐन पहले मार्च 2024 में भी मोदी-शाह ने सरसंघचालक मोहन भागवत को यह भरोसा दिलाया था कि भाजपा 300 से ज्यादा सीट जरूर जीतेगी, जो संख्या 350 तक भी हो सकती है। उस वक्त सरसंघचालक भागवत ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया क्योंकि सत्ता से बड़ी कोई विचारधारा नहीं होती और यह पाठ जब खुद सत्ता संभालने वाला स्वयंसेवक कहे, तो सवाल कौन करे।

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इसीलिए संघ के भीतर या संघ से जुड़े संगठनों से जब-जब सरकार के कामकाज को लेकर आलोचना आई, सरसंघचालक ने खयाल रखा कि सरकार के दामन तक जरा भी इसकी आंच न पहुंचने पाए। किसानों के सवाल पर किसान संघ के अध्यक्ष को हटा दिया गया। मजदूरों के सवाल पर भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष के.सी. मिश्रा को हटाया गया। अयोध्या में राम मंदिर का जिक्र 2014 से 2018 के बीच विश्व हिंदू परिषद न करे, इसके लिए प्रवीण तोगड़िया को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। विदेशी निवेश के लिए स्ट्रेटेजिक क्षेत्रों को खोला गया। इसका विरोध न हो इसके लिए स्वदेशी जागरण मंच को कुंद कर दिया गया। कुल मिलाकर बीते दस बरस में सरसंघचालक मोहन भागवत, बाकायदा संघ को कमजोर करते जाने की कीमत पर मोदी सत्ता को मजबूती देने का काम करते रहे। इसलिए धीरे-धीरे सवाल उठने बंद हो गए या फिर फुसफुसाहट के साथ स्वयंसेवकों का गुस्सा बढ़ने लगा। फिर पार्टी ने अपने आप चुनाव के वक्त संघ की जरूरत तक को खारिज कर दिया। हर चुनाव में भाजपा के लिए माहौल और सरकार बनाने वाले, घूम-घूम कर नैरेटिव बनाने वाले सभी स्वयंसेवक गायब हो गए।

पहले स्थिति यह थी कि 2014 में चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने तमाम मंत्रियों को निर्देश दिया था कि वे अपने-अपने मंत्रालयों के कामकाज को लेकर संघ से मिलें और सुझाव लें। तब इसका असर यह हुआ था कि संघ खुलकर मोदी की जीत की खातिर राजनीतिक बयान भी देने लगा था। 2019 के चुनाव में सरसंघचालक ने हिंदुओं से बाहर निकल कर वोट देने की बात कही थी, लेकिन 2019 की जीत के बाद यह सब खत्म हो गया। कश्मीर विधानसभा के आखिरी चुनाव के वक्त इन्द्रेश कुमार मुस्लिम समाज में यही नैरेटिव बनाते रहे कि नरेंद्र मोदी मुस्लिमों के भी बड़े हमदर्द है। उसी संघ के सब्र का बांध 2024 के चुनाव परिणाम के बाद ऐसा टूटा कि उन्हें मोदी सरकार सत्ता अहंकार में डूबी दिखाई देने लगी।

असल में न सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी सरकार के गवर्नेंस और संगठन के कामकाज के तौर-तरीके या कहें हर चुनाव में जीत की गारंटी ने उन सभी को चुप करा दिया, जो संघ की विचारधारा या राजनीतिक कार्यशैली को लेकर सवाल करते रहे थे। हिमाचल विधानसभा में हार के बाद भी जेपी नड्डा को अध्यक्ष पद पर बनाए रखा गया जबकि हिमाचल तो नड्डा का गृहराज्य है। इस पर संघ से कोई राय नहीं ली गई। गडकरी को संसदीय बोर्ड से बाहर किया गया तब भी संघ से मशविरा नहीं किया गया। भाजपा के संगठन को संभालने में संघ का योगदान न सिर्फ खत्म हुआ बल्कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री हटाने-बनाने में समन्वय बैठक की जरूरत भी नहीं समझी गई। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को भी शिवराज सिंह चौहान की तर्ज पर हाशिये पर लाने की पूरी कोशिश की गई।

दरअसल पहली बार संघ के सामने दो हकीकत उभरी। पहला, जिस दिन भाजपा सत्ता में नहीं होगी या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं होंगे तब भाजपा और संघ का क्या होगा? दूसरा, संघ ने अपने कोर एजेंडे को ही जब राजनीतिक प्रयोग के लिए मोदी के हवाले कर दिया और उस एजेंडे की यदि राजनीतिक हार हो गई, तब संघ का भविष्य क्या होगा? यानी जिस अयोध्या के जरिये राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा किया जा सकता है, उसके राजनीतिकरण की परिस्थिति ही ऐसी हो गई कि देश के प्रधानमंत्री पुजारी की छवि में देश के सामने आ गए। प्रधानमंत्री ने अपने सलाहकार नृपेन्द्र मिश्रा को राम मंदिर निर्माण समिति का अध्यक्ष बना दिया। उन्होंने मुलायम सिंह के दौर में कारसेवकों पर गोलियां चलाने की वकालत की थी। विहिप के चंपत राय पर वित्तीय गड़बड़ी के आरोप लगे। संघ ने उन्हें चित्रकूट की प्रतिनिधि सभा से बुलाकर डपटा भी, फिर वही राम मंदिर के कर्ताधर्ता होकर सरसंघचालक को न्यौता देने लगे। शंकराचार्य नाराज हुए लेकिन उन्हें मनाने की जगह राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा बॉलीवुड-कॉरपोरेट में सिमट गई। उसी अयोध्या के लोगों ने जब भाजपा को अयोध्या में ही हरा दिया है, तब यह सवाल संघ के भीतर बड़ा हो गया है कि अब न तो काशी-मथुरा का एजेंडा चलेगा, न ही ज्ञानवापी का खेल। बड़ी बात तो यह भी है कि मुस्लिमों को संघ की नहीं, बल्कि संघ को मुस्लिमों की जरूरत राजनीतिक तौर पर रही है। ऐसे में भाजपा की राजनीति और संघ की विचारधारा या कहें एजेंडा भविष्य में कैसे चलेगा?

संघ के सामने इतना बड़ा वैक्यूम इससे पहले कभी नहीं आया। सच तो यह है कि इसी रास्ते की खोज सरसंघचालक को गोरखपुर ले गई। यूपी की राजनीतिक प्रयोगशाला जिस तरह योगी आदित्यनाथ ने बनाई है, संघ उसे अपने भविष्य के तौर पर देख रहा है। उत्तर प्रदेश की हार योगी की नहीं, प्रधानमंत्री मोदी की हार है। फैजाबाद में हार जाना, बनारस में किसी तरह जीतना और अयोध्या से प्रभावित नौ में से छह सीटों पर हार जाना मामूली नहीं है। बनारस के इर्द-गिर्द की 15 में नौ सीटों पर भाजपा की हार की वजह जानने-समझने के लिए सरसंघचालक गोरखपुर पहुंचे। 2010-11 में जब भाजपा के भीतर भी कोई अयोध्या का जिक्र नहीं कर रहा था, तब भी गोरखनाथ मठ सक्रिय था। योगी आदित्यनाथ अयोध्या को लेकर संवेदनशील थे। तब अशोक सिंघल से लेकर मोहन भागवत समेत संघ के तमाम बड़े पदाधिकारियों के सामने योगी ने ही भविष्य की राजनीति का खाका अयोध्या को केंद्र में रखकर खींचा था। इसी का असर था कि 2017 में जब मोदी-शाह तय कर चुके थे कि मनोज सिन्हा मुख्यमंत्री बनेंगे तब संघ ने हस्तक्षेप किया और रात भर में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। इस वक्त यानी 2024 के चुनाव परिणाम के बाद इसी राजनीतिक खाके को खींचने की एक बार फिर से कोशिश गोरखपुर के मठ में हुई है जिसके केंद्र में नरेंद्र मोदी या अमित शाह नहीं, बल्कि योगी आदित्यनाथ हैं। इसकी वजह भी संघ-भाजपा के भीतर दिल्ली को लेकर गुस्सा है।

सरसंघचालक ने जिस तरह लगातार बहत्तर घंटे तक स्वयंसेवकों से लेकर भाजपा के कोर कार्यकर्ताओं और संघ के करीबी सामाजिक कार्यों से जुड़े लोगों से बातचीत की, उसके बाद दो ही सवाल सबसे बड़े थे। पहला, मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ना और शाह की टिकट बांटने की रणनीति पूरी तरह फेल हो गई। संघ-भाजपा का कोर वोटर बाहर नहीं निकला। स्वयंसेवक और कार्यकर्ता भी घर में सिमटे रहे। दूसरा, योगी आदित्यनाथ को अगर दिल्ली की सत्ता से मुक्ति नहीं मिली, तो 2027 का चुनाव जीतना मुश्किल होगा। समूचा मंथन तीन बातों पर आकर टिक गया। पहला, हर हाल में यूपी का संगठन योगी आदित्यनाथ के अनुसार हो। दिल्ली के इशारे पर काम करने वाले दो उपमुख्यमंत्रियों से मुक्ति मिले। दूसरा, होने वाले उपचुनाव और विधानसभा चुनाव के वक्त टिकट वितरण योगी आदित्यनाथ की मर्जी से हो। तीसरा, देश के अलग-अलग प्रांतों के कद्दावर भाजपा के नेता हों या सभी कार्यकर्ता योगी में भविष्य को देखें, चाहें वे तमिलनाडु में अन्नामलै हों, राजस्थान में वसुंधरा राजे हों या शिवराज या फिर गडकरी। यानी जिस तरह वाजपेयी-आडवाणी के वक्त सरसंघचालक केसी सुदर्शन भविष्य की राजनीति को मथने लगे थे, उसी तर्ज पर अब सरसंघचालक मोहन भागवत को लगने लगा है कि भविष्य की योजना साफ होना चाहिए। यानी ये तीनों बातें भविष्य की उस राजनीति को देखने लगी हैं जिसका सवाल है, मोदी के बाद कौन?

यही सवाल दिल्ली की धड़कन को बढ़ा चुका है। संघ इसे बखूबी समझ रहा है कि सत्ता तक पहुंचने के संघर्ष में सभी साथ होते हैं लेकिन सत्ता पाने-बचाने के संघर्ष में सभी अकेले होते हैं। फिलहाल लड़ाई सत्ता बचाने या गंवाने से कहीं आगे निकल चुकी है, जिसे लेकर घमासान तय है। इसलिए केरल में 31 जुलाई से 2 अगस्त तक होने वाली समन्वय बैठक में भाजपा अध्यक्ष के साथ मोदी-शाह को भी निमंत्रण भेजा गया है। दरअसल 2017 में केरल में संघ की बैठक में योगी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ था। इस बार क्या होता है, देखना दिलचस्प होगा।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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TAGS: RSS's Disillusionment, Narendra Modi
OUTLOOK 26 June, 2024
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