नीतियों ने किया बंटाधार
सबसे पहली बात तो यह है कि एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक कारोबारियों की आत्महत्या का आंकड़ा 2019 में एकदम से बढ़ना शुरू होता है। उसके पहले कोई खास ऊंच-नीच नहीं थी। उनकी आत्महत्या के ट्रेंड में 2018 तक कोई बढ़ोतरी नहीं दिख रही है। इसके दो कारण हैं। पहली बात तो यह कि विकास दर में 2017 से कमी आनी शुरू होती है क्योंकि नोटबंदी ने छोटे कारोबारियों पर इतना आघात किया कि उनकी दुकानें, उनकी इकाइयां या सेवा क्षेत्र के काम, सबमें दिक्कतें बढ़ने लगी। उन पर भयंकर आघात पहले नोटबंदी और छह महीने बाद जीएसटी से लगा। विकास दर में कमी आ रही है तो उनकी सेवाओं की खपत और मांग में कमी आ रही होगी। दूसरी ओर उनकी सप्लाई साइड में बहुत-सी दिक्कतें सरकार ने अपनी नीतियों की वजह से बढ़ा दी। खासकर नोटबंदी के बाद दिक्कतें बढ़ीं क्योंकि छोटी इकाइयों का सारा काम नकदी में होता है। उनको वर्किंग कैपिटल की लगातार आवश्यकता रहती है। उनको बैंक से उतना पैसा नहीं मिलता, वे मोटे तौर पर नॉन-बैंकिंग फाइनांस कंपनियों (एनबीएफसी) पर निर्भर होते हैं। एनबीएफसी की दिक्कतें भी नोटबंदी के बाद भयंकर रूप से बढ़ीं। एक तरफ असंगठित क्षेत्र की मांग, खपत घट रही है और दूसरी तरफ उन पर अलग-अलग तरह से आघात हो रहे हैं। नोटबंदी से नकदी की कमी, एनबीएफसी (जैसे, दीवान हाउसिंग, आइएलएफसी वगैरह) के डूब जाने से छोटे कारोबारियों के हाथ के तोते उड़ गए। ऐसी स्थिति में उनकी इकाइयां बंद होती हैं या वे इतने कर्ज में दब जाते हैं कि माल की खपत कम होने से वे कर्ज चुका नहीं पाते। इस तरह वे भी उस हालत में पहुंच गए हैं जहां किसान पहुंच चुके थे। यह पूर्णत: सरकारी नीतियों का असर है। इसमें हमें कोई भी ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
एमएसएमई की मदद के लिए कहने को तो सरकार ने मई 2020 के बाद इमरजेंसी क्रेडिट लाइन स्कीम (ईसीजीएलएस) चलाई थी। अब जरा ईसीजीएलएस की वेबसाइट पर जाकर उसके आंकड़े देखिए कि कितनों को कर्ज दिया गया। आप पाएंगे कि कर्ज लेने वालों की संख्या कुछ लाख होगी। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र यानी एमएसएमई में करीब साढ़े छह करोड़ इकाइयां हैं। ध्यान रहे कि ये गैर-कृषि क्षेत्र की इकाइयां हैं। आप सोच सकते हैं कि ईसीजीएलएस का कितना योगदान रहा एमएसएमई को डूबने से बचाने में। लोन लेने वालों में भी हर 6 में 1 का लोन एनपीए हो जाता है। आप सोचिए कि ये कितना कर्ज उठाते होंगे, कुछ लाख ले लेंगे, करोड़ों में कर्ज मिलने की उनकी क्रेडिट रेटिंग ही नहीं है। ऐसी स्थिति में उसका भी एनपीए हो जाना बता रहा है कि उनके माल की खपत और मांग काफी घट गई है।
इसी तरह सरकार पिछले पांच साल से मुद्रा लोन का ढिंढोरा पीट रही है। उसमें भी खूब एनपीए की संख्या बढ़ी है। जबरदस्ती बैंकों को लोन देना पड़ा क्योंकि उनको लक्ष्य थमा दिया गया था। ये मुद्रा लोन भी दो कौड़ी का होता है। सरकार बात तो यह करती है कि हमारे देश के युवाओं को नौकरी करने की जरूरत नहीं है, उन्हें तो नौकरी देने वाला बनना है। मुद्रा में 95 प्रतिशत ऋण 29,000 रुपये का दिया गया है जिसे तीन साल में वापस करना होता है। ढिंढोरा इतना और 95 प्रतिशत लोगों को कर्ज शिशु वर्ग में मिला है। 29,000 रुपये में आप क्या कर लोगे, एक ठेला खरीद लोगे, कुछ फल-सब्जी खरीद लोगे, एक महीने चल जाएगा, लेकिन कर्ज हर महीने चुकाना है, तो कितना कमा लोगे?
इसका बेरोजगारी पर भयंकर असर पड़ा है। बेरोजगारी की दर 2012 और 2017-18 के दौर में ढाई-तीन गुना हो गई थी। उसके बाद 2017 में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ज्यादा हो गई। जितना ज्यादा पढ़े-लिखे, उतनी ज्यादा बेरोजगारी दर। अगले चार साल सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही 2012 की तुलना में युवा बेरोजगारी दर तीन-चार गुना बढ़ गई। ऐसी स्थिति में मांग या खपत कैसे बढ़ेगी? फिर एमएसएमई मालिक जान दे रहे हैं तो ताज्जुब क्यों हो रहा है?
कई लोग यह तर्क देते हैं कि इसे उदारीकरण के दौर से जोड़कर देखा जाना चाहिए। यह गलत है। उदारीकरण के दौर में हमारी विकास दर में बढ़ोतरी हुई। 1980 के दशक में हमारी विकास दर औसतन 5.5 प्रतिशत थी। वह 1990 के दशक में बढ़कर 6.5 प्रतिशत होती है। फिर, 2003-04 के बाद से 2015 तक वह विकास दर 8 प्रतिशत चली। हमारे देश के इतिहास में 8 प्रतिशत ऐतिहासिक विकास दर लंबे समय तक बनी रही। यह 1991 के बाद ही तो होना शुरू हुआ। यह हुआ कैसे? 2015 तक गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार सालाना 75 लाख पैदा हो रहे थे। इस सरकार के आने के बाद उसकी संख्या घटी। उसके बाद यह दर घटकर सालाना 29 लाख हो गई। यह ऐसे दौर में हुआ जब पढ़े-लिखे युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी। वे पढ़-लिख जा रहे थे तो काम ढूंढने के लिए शहरों में आ रहे थे, काम ढूंढ रहे थे। यानी नौकरी की मांग बढ़ रही थी और नौकरी की सप्लाई गिर रही थी।
यह ठीक है कि इस दौर में बड़े कॉरपोरेट की ताकत बढ़ी, उनका मुनाफा बढ़ा, गैर-बराबरी बढ़ी मगर रोजगार पैदा हो रहे थे और गैर-कृषि क्षेत्र में पैदा हो रहे थे इसलिए रोजगार दर बढ़ रही थी। रोजगार दर मुद्रास्फीति को एडजस्ट करके बढ़ रही थी। तो, ये जो भाजपा के प्रवक्ता आपको मीडिया पर बातें कहते सुनाई देते हैं कि कोविड महामारी के पहले पांच-छह साल तक हमने मुद्रास्फीति की दर को कम रखा तो वे यह बात यूपीए के दौर की तुलना में कहते हैं। वे भूल जाते हैं कि इनके दौर में रोजगार दर कम हो गई जबकि पहले महंगाई के बावजूद रोजगार दर ज्यादा रही है। वास्तविक तनख्वाहें बढ़ रही थीं, उसका ट्रेंड जारी था।
यह सरलीकरण है कि इसे उदारीकरण से जोड़ दिया जाए। यह पूर्ण रूप से इस सरकार की नीतियों का नतीजा है। दरअसल यह उन लोगों की सरकार है जिनके लिए भारी-भरकम ऋण माफ किए गए हैं। इधर दो साल से एनपीए में कमी दिखाई गई है क्योंकि ऋण माफ कर दिया गया तो वह कहां से आंकड़ाें में दिखेगा? बैंकों ने उसे राइट-ऑफ कर दिया। इससे ज्यादा धांधली और धूर्तता हो नहीं सकती कि बिलकुल बेशर्मी से बड़ी कंपनियों के लोन को माफ कर रहे हैं। आप क्या समझते हैं कि यह बिना क्विड प्रो को के हो रहा होगा, यह हो ही नहीं सकता। लोगों को भी यह समझ में आ रहा है, जिसका अक्स भले मीडिया में न दिख रहा हो मगर लोग यह सब देख रहे हैं। यह तरह-तरह से, कई बार त्रासद ढंग से जाहिर हो रहा है।
(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर रह चुके हैं और प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री, खासकर रोजगार संबंधी विषयों के विशेषज्ञ हैं। यह लेख हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित है। विचार निजी हैं )