सांप्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ गए अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी
23 मार्च को हुई शहीदे आजम भगत सिंह और उनके साथियों-सुखदेव और राजगुरु की फांसी का मातम पूरा देश मना ही रहा था कि दो दिन बाद, 25 मार्च 1931 की काली दुपहरी आ गई। तीनों स्वातंत्र्य सेनानियों की फांसी के विरोध में कानपुर बंद रखने के सवाल पर वहां का सामुदायिक माहौल तनावपूर्ण हो गया था। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की जान के प्यासे बन गए थे। एक दुबला पतला आंखों पर कमानीदार चश्मा लगाए खद्दरधारी अपने चंद हिन्दू-मुसलमान समर्थकों के साथ इस आपसी मारकाट को रोकने एवं दोनों संप्रदायों के बीच स्नेह, श्रद्धा और आपसी विश्वास का भाव जगाने का संकल्प लिए कानपुर के तनावग्रस्त मोहल्लों में निकल पड़ा है।
चारों तरफ जानलेवा भीड़ आपसी मारकाट में लगी है। ‘दौड़ो, पकड़ो, मारो’, ‘भागने न पाए’, ‘यह काफिर है, हिन्दू है, बचने न पाए’ के समवेत स्वरों के साथ कुछ दंगाई उस खद्दरधारी की तरफ बढ़ते हैं। तभी एक कड़कदार आवाज गूंजती है, ‘‘अरे क्या करते हो, यह तो मसीहा हैं, इन्हें मारोगे! इन पर हाथ भी मत उठाना। यह ही वह हस्ती हैं जिनने इस तनाव के माहौल में भी हिन्दू और मुसलमान, दोनों की जानें समान रूप से बचाई हैं।’’ बलवाई भीड़ थम जाती है। शांति और सद्भाव का वह पुजारी अपने उन नादान भाइयों को माफ करते हुए आगे बढ़ जाता है। आगे एक संकरी गली है। साथ चल रहे सहयोगी उधर जाने से रोकते हैं। लेकिन वह आगे ही बढ़ता जाता है। सामने से पंद्रह बीस लोग हाथ में गड़ांसे, फरसा, छुरी कटार लिए मारो काटों के नारे के साथ इस व्यक्ति की तरफ बढ़ते हैं। गिरोह के दो पठान उस खद्दरधारी पर टूट पड़ते हैं। इतने में ही कोई बीच में आ जाता है और उस व्यक्ति को बचाने के लिए आत्म बलिदान कर देता है। लेकिन इस आत्मोत्सर्ग से भी धर्मांधों की रक्त पिपासा नहीं बुझती। कई लोग एक ही साथ हथियारों से लैस होकर उस खद्दरधारी पर टूट पड़ते हैं। खद्दरधारी जमीन पर गिर पड़ता है। मुंह से अंतिम शब्द निकलता है, ‘शांति’। और इसी के साथ मानवता का वह पुजारी भारत माता के दो बेटों (संप्रदायों) में एकता कायम करने, हिन्दू-मुसलमानों के बीच आपसी मारकाट बंद कराने के प्रयास में अपनी जान दे देता है।
जानते हैं, वह दुबले पतले खद्दरधारी कौन थे. वह थे इस देश के महान क्रांतिकारी, जनसेवी राजनीतिक, निर्भीक पत्रकार अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी। उनकी इस शहादत पर महात्मा गांधी को भी ईर्ष्या हुई थी। गांधी जी के शब्दों में, ‘‘गणेश शंकर का खून दोनों मजहबों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेंट का काम करेगा।’’ इन शब्दों के साथ महात्मा गांधी ने अपने लिए भी इसी तरह की मौत की कामना की थी। और यह महज संयोग नहीं था कि 30 जनवरी 1950 को महात्मा गांधी को भी इसी तरह की मौत का आलिंगन करना पड़ा था जब एक कट्टर हिन्दू संप्रदायवादी नाथूराम गोडसे ने उन्हें अपनी गोली का निशाना बना दिया।
अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी आजीवन धार्मिक कट्टरता और उन्माद के खिलाफ आवाज उठाते रहे। उन्होंने धर्म और राजनीति के मेल, दोनों संप्रदायों के बीच बढ़ रहे कट्टरपंथ और उन्माद के विरुद्ध जीवन पर्यंत खूब लिखा। राजनीति और खासतौर से चुनावी राजनीति में धर्म के बढ रहे इस्तेमाल पर कठोर टिप्पणी करते हुए अपनी मौत से छह साल पहले 1925 में जो लिखा था, वह आज कहीं ज्यादा मौजूं लगता है। उन्होंने लिखा, ‘‘मैं हिन्दू-मुसलमान के बीच झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं। चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता।’’ यह बात उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद मशहूर लेखक और संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में राजनीतिक माहौल पर आक्रोश जाहिर करते हुए लिखी थी। विद्यार्थी जी जीवन पर्यंत अपनी लेखनी के जरिए लोगों को धार्मिक उन्माद के प्रति सावधान करते रहे। 27 अक्टूबर, 1924 को प्रताप में उन्होंने ‘धर्म की आड़’ नाम से एक लेख लिखा जो आज भी बहुत प्रासंगिक है। वह लिखते हैं, ‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं।’ हालांकि, इसमें वे आम आदमी को ज्यादा दोषी नहीं मानते। वह आगे कहते हैं, ‘ऐसे लोग कुछ भी समझते-बूझते नहीं हैं। कुछ दूसरे लोग इन्हें जिधर जोत देते हैं, ये लोग उधर ही जुत जाते हैं।’
26 अक्टूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में एक मध्यमवर्गीय शिक्षक जयनारायण श्रीवास्तव के घर जन्मे गणेशशंकर विद्यार्थी के अंदर लेखकीय प्रतिभा का विकास विद्यार्थी जीवन से ही हो गया था, जब उनके लेख स्वराज नामक उर्दू अखबार में छपने लगे। छात्र जीवन में ही उनकी मुलाकात कर्मवीर पंडित सुंदरलाल जी से हो गई थी। सुंदरलाल जी ने ही गणेश शंकर के नाम के आगे ‘विद्यार्थी’ शब्द लगा दिया जो उनके साथ जीवन पर्यंत जुड़े रहा। वह निर्भीक और स्पष्टवादी थे। वह अपने लेखों के जरिए ब्रितानी दासता के विरुद्ध आग उगलते तथा देशवासियों के मन में अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ संघर्ष का उत्साह भरते। अपने इन निर्भीक विचारों के कारण उन्हेंआरंभ के दिनों में कई नौकरियां छोड़ देनी पड़ीं। कानपुर में रहते हुए उनके लेख ‘हितवादी’, ‘कर्मयोगी’, ‘अभ्युदय’ जैसी उस समय की स्वनामधन्य पत्र पत्रिकाओं में छपने लगे थे। एक साल तक उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित हिंदी की मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के सहायक संपादक के रूप में भी काम किया।
इसके कुछ समय बाद ही उन्हें ‘अभ्युदय’ में सह संपादक की नौकरी मिल गई और वह कुछ दिनों तक वहीं जमे रहे। अभ्युदय में काम करते हुए ही विद्यार्थी जी ने शेक्सपीयर, टॉलस्टाय, विक्टर ह्यूगो, रूसो, मोपांसा, रस्किन थोरो, स्टुअर्ट मिल, अनातोले फ्रांस, टेनिसन, एच जी वेल्स, कीट्स आदि विश्व प्रसिद्ध रचनाकारों की अधिकतर रचनाएं पढ़ डाली थीं। वह ह्यूगों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। उन्होंने ह्यूगों की दो पुस्तकों-‘नाइंटी थ्री’ और लॉ मिजरेबुल’ का हिंदी में रूपांतरण भी किया था।
अभ्युदय छोड़ने के बाद 1913 में विद्यार्थी जी ने कुछ मित्रों के सहयोग से कानपुर से ही ‘प्रताप’ नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन-संचालन शुरू किया। कुछ ही दिनों में उनका प्रताप अपने निर्भीक और बेबाक समाचारों और अग्रलेखों के साथ ही विद्यार्थी जी की संपादकीय टिप्पणियों के कारण बहुत जल्दी ही आम जनता के प्रवक्ता बन गया। लेकिन इसके साथ ही ‘प्रताप’ अंग्रेज शासकों की आंख का किरकिरी भी बनता गया. इसके चलते अक्सर उसे अत्याचारी शासकों एवं ब्रितानी सत्ता का कोप भाजन भी बनना पड़ा। कई बार विद्यार्थी जी को जेल भी जाना पड़ा लेकिन वह कभी झुके नहीं और ना ही कभी बिके ही।
एक बार प्रताप में ग्वालियर रियासत के बारे में प्रकाशित एक टिप्पणी को पढ़कर तत्कालीन ग्वालियर नरेश बहुत खिन्न हुए और यह जानकर कि प्रताप के संपादक उनके अपने ही एक कारिंदे जयनारायण लाल के पुत्र गणेशशंकर ही हैं, ग्वालियर नरेश ने इसकी शिकायत जयनारायण लाल से की। पिता जयनारायण लाल के बहुत समझाने पर विद्यार्थी जी ग्वालियर जाकर महाराजा से मिले। शिष्टाचार के बाद ग्वालियर के महाराजा ने विद्यार्थी जी का ध्यान अपनी रियासत के प्रशासन के बारे में प्रताप में प्रकाशित लेख की ओर दिलाते हुए कहा, ‘‘हम चाहेंगे कि भविष्य में आप रियासत के प्रशासन के बारे में कोई कटु और आलोचनात्मक लेख आप अपनी पत्रिका में नहीं छापेंगे।’’ लेकिन विद्यार्थी जी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, ‘‘महाराज, ग्वालियर रियासत में अध्यापक बाबू जयनारायण के पुत्र होने के नाते हम ग्वालियर रियासत के प्रति निष्ठावान जरूर हूं लेकिन महाराज क्षमा करेंगे, प्रताप के संपादक के नाते मेरे जो कर्तव्य हैं, उनका पालन करने के लिए मैं विवश हूं।’’ लौटते समय रियासत की ओर से उन्हें बख्शीश के बतौर रिश्वत देने की कोशिश भी की गई लेकिन उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
विद्यार्थी जी एक स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकार होने के साथ ही देशभक्त क्रांतिकारी नेता भी थे। वह उस समय के सशस्त्र क्रांतिकारियों के मददगार भी थे। कानपुर में उनका प्रताप अखबार सशस्त्र क्रांतिकारियों के लिए घर और कार्यालय भी था।
अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में विद्यार्थी जी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित थे। 1920 में तिलक की की मृत्यु के बाद उन्होंने गांधीजी का नेतृत्व स्वीकार किया। हालांकि, उन्होंने अपने ऊपर गांधीजी के सभी विचारों को पूरी तरह हावी होने नहीं दिया। लोगों द्वारा गांधी जी की बातों के अंधानुकरण पर उन्होंने लिखा, ‘गांधी जी की बातों को ले उड़ने से पहले हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले उसका मर्म समझ लें। इससे उनका आशय धर्म के ऊंचे और उदार तत्वों से है।’ अंधराष्ट्रवाद के खतरों के बारे में उन्होंने आजादी के आंदोलन के समय ही आगाह कर दिया था। 21 जून, 1915 को प्रताप में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने कहा, ‘‘देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी भूल की जा रही है। यदि हम इसके भाव को अच्छे तरीके से समझ चुके होते तो इससे जुड़ी बेतुकी बातें सुनने में न आतीं।’ विद्यार्थी हिंदू राष्ट्र के नाम पर धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के सख्त खिलाफ थे और समय-समय पर इसे लेकर लोगों को सावधान भी करते थे। ‘राष्ट्रीयता’ शीर्षक से लिखे अपने इस लेख में वह आगे कहते हैं, ‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए। हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं। इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है।’ देश का धर्म के आधार पर बंटवारा होने से पहले ही वह कह चुके थे कि भविष्य में कोई भी देश हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता। इसके पीछे उनका मानना था कि किसी राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन उसके सभी नागरिकों के हाथ में हो।’ सभी नागरिकों से उनका आशय हर धर्म और जाति के लोगों से था। उस समय ही उन्होंने ऐसे आजाद भारत की कल्पना की थी, जहां हिंदू ही राष्ट्र के सबकुछ नहीं होंगे। इस बारे में उनका मानना था कि किसी वजह से ऐसी मंशा रखने वाले लोग गलती कर रहे हैं और इसके जरिए वे देश को ही हानि पहुंचा रहे हैं।
हिंदुओं के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने मुसलमान समुदाय को भी निशाने पर लिया। अपने एक लेख में वे कहते हैं, ‘ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं। ये जगह उनकी जन्मभूमि नहीं है।’ उन्होंने आगे ऐसे लोगों को अपने देश की महत्ता समझाते हुए कहा है, ‘इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे।’