सर्जिकल हमले वक्त की जरूरत थे
भारत ने आतंकवाद की मदद करने और उसे बढ़ावा देने की पाकिस्तान की नीति को काफी समय तक झेला है। हजारों जख्मों से भारत का खून बहाने की अपनी विदेश नीति के एक हथियार के तौर पर पाकिस्तान नॉन-एक्टरों का इस्तेमाल करता रहा है। 1985 से पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ परोक्ष युद्ध शुरू किया। उस समय, पंजाब में उग्रवाद में आई अचानक घातकता को हम समझ नहीं पाए थे, जो बाद में, 1989 में, जम्मू-कश्मीर तक फैल गई, जो उसका प्रमुख निशाना था और फिर यह पूरे भारत में फैल गई।
देश ने दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, सूरत, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरू, गुवाहाटी...और पता नहीं कहां-कहां बम विस्फोटों में हजारों लोगों का बलिदान झेला है। देश, एक तरह से असहाय सा होने लगा था, क्योंकि दुश्मन कहीं छुपा बैठा था और जब चाहे, जहां चाहे, हमले करने के लिए तैयार था। हजारों जख्म देकर भारत के खून बहाने की पाकिस्तान की योजना, 1971 युद्ध के जरिये पूर्वी पाकिस्तान को अलग करने के बदले के रूप में शुरू की गई थी। उसने इस महत्वपूर्ण बात को समझने की कोशिश नहीं की कि पूर्वी पाकिस्तान को हमने नहीं बनाया था, बल्कि इसका निर्माण तो बंगाली आबादी पर खुद उसके नृशंस जुल्मों ने किया था।
भारत के खिलाफ हिंसात्मक गतिविधियां लगातार बढ़ती रहीं और अधिक दुस्साहसी होती रहीं। 1999 में कारगिल, दिसंबर 1999 में काठमांडू से इंडियन एयरलाइन्स की उड़ान आईसी-814 का अपहरण, 2000 में अमरनाथ यत्रियों पर हमला, नवंबर 2001 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर हमला, दिसंर 2001 का संसद हमला, 2008 में मुंबई आतंकी हमला, 2015 में हीरा नगर पुलिस चौकी, जनवरी 2016 में पठानकोट एयरबेस...सूची बहुत लंबी है।
इसलिए, देश की चिंताओं को दूर करने के लिए सर्जिकल हमले बहुत जरूरी थे, और पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने का राजनीतिक फैसला करने का श्रेय मोदी सरकार को जाता है। लेकिन, ऐसा पहली बार नहीं है जब सर्जिकल हमले किए गए थे। यू.पी.ए. के शासन काल में भी ऐसे हमले हुए थे - सितंबर 2011, जुलाई 2013 और जनवरी 2014। लेकिन, इस बार, ये बिल्कुल भिन्न थे। पहले, हमले, यूनिट और ब्रिगेड स्तर पर ही किए गए थे। इस बार, मुख्यालय स्तर पर पूरे तालमेल के साथ इन्हें अंजाम दिया गया था, जिसे राजनीतिक नेतृत्व का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। इनकी योजना बनाई गई थी और जैसा कि डी.जी.एम.ओ. ने कहा कि इन्हें ‘इस बार अपनी पसंद के समय और स्थान’ पर अंजाम दिया गया था। ये हमले पाकिस्तानी क्षेत्र में नियंत्रण रेखा से 2.5 किलोमीटर से तीन किलोमीटर के भीतर किए गए।
इन हमलों की योजना में राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (एन.टी.आर.ओ.) की तकनीकी खुफिया सूचना की मदद ली गई, रॉ और आई.बी. से प्राप्त खुफिया जानकारी का उपयोग किया गया, वायुसेना का इस्तेमाल ध्यान बंटाने और स्पेशल फोर्सिज़ के छाताधारी सैनिकों को पाकिस्तानी क्षेत्र में उतारने के लिए किया गया। भिम्बर, केल और लिपा सेक्टरों में विभिन्न जगहों से एकत्र स्पष्ट खुफिया सूचनाओं के बाद, हमले किए गए। इन हमलों में सात लांच पैड्स नष्ट किए गए, गाइडों और हैंडलरों सहित 38 आतंकवादियों और दो पाकिस्तानी सैनिक मारे गए, जबकि भारत का कोई भी सैनिक इस कार्रवाई में हताहत नहीं हुआ।
सर्जिकल हमलों के दो पहलु उभर कर सामने आए हैं - सैन्य और राजनीतिक। सैन्य दृष्टि से, इन्होंने, पाकिस्तान के इलाके में तेज़ी से तथा बिना किसी अतिरिक्त नुकसान के अचूक सर्जिकल हमले करने की भारत की क्षमता को सिद्ध कर दिया है। राजनीतिक रूप से, इन हमलों के बाद जो रस्साकशी शुरू हुई है, उसने राष्ट्रीय भावनाओं को कमजोर किया है। मोदी सरकार ने जवाबी हमला करने की मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है, लेकिन उनकी पार्टी और सहयोगी दल, इसकी राजनीतिक जिम्मेदारी का दावा नहीं कर सकते, जैसा कि उन्होंने चुनावों के लिए तैयार हो रहे उत्तर प्रदेश में, पोस्टर लगाकर करने की कोशिश की है। एक पोस्टर में, मोदी को राम, नवाज़ शरीफ को रावण और अरविंद केजरीवाल को रावण के पुत्र मेघनाद के रूप में दिखाया गया है। एक और पोस्टर में कहा गया है, ‘हम तुम्हें मारेंगे और ज़रूर मारेंगे। लेकिन, वो बंदूक भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी, वक्त भी हमारा होगा, लेकिन जगह तुम्हारी होगी’। इससे सेना की भूमिका कमजोर होती है, जिसने इस काम को अत्यंत कुशलता से अंजाम दिया।
विपक्षी दल भी उतने ही गलत है, जो इन हमलों के सबूत मांग रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि डी.जी.एम.ओ., लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह के शब्दों को अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाए। कई सैन्य तथा सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस बारे में विवरण को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे रणनीतिक तथ्य सामने आ जाएंगे, जिनसे भविष्य में कार्रवाई पर असर पड़ सकता है। आज, सत्ताधारी पार्टी का यह आरोप कि हमलों का सबूत मांगना ‘देशद्रोह’ है, मामले को बहुत ही अधिक खींचना है। स्मरण होगा कि भा.ज.पा., यानी तत्कालीन जनसंघ के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने युद्धकाल में 1962 की भारत-चीन लड़ाई को नेहरू द्वारा हैंडल किए जाने पर सवाल उठाया था। नेहरू, राज्यसभा में इस मुद्दे पर बहस के लिए राजी हो गए। भा.ज.पा. ने न तो वाजपेयी को ‘देशद्रोही’ कहा और न कभी कहेगी।
हम जान लें कि ये मुद्दे, पाकिस्तान के बारे में सरकार की अस्पष्ट नीति के कारण उत्पन्न हुए हैं। भारत में आतंकवाद के लगातार प्रसार के पाकिस्तान के प्रयासों के बावजूद, पाकिस्तान के प्रति मोदी सरकार की नीति, गर्मजोशी और वार्ता रद्द करने के बीच झूलती रही है। मोदी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में अन्य सार्क नेताओं के साथ-साथ नवाज़ शरीफ को आमंत्रित करने के साथ ‘नई सोच के उदय’ की जो शुरुआत हुई थी, उसमें भी कई तरह की उलट-पलट हुई है। अगस्त 2014 में, हुर्रियत नेताओं के साथ पाकिस्तान के उच्चायुक्त, अब्दुल बासित की मुलाकात के बाद, सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी गई थी। 11 जुलाई, 2015 को, शंघाई कोआपरेटिव आर्गेनाइज़ेशन समिट के अवसर पर, भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की रूस के उफा में मुलाकात हुई, जिसमें साफ तौर पर तय हुआ कि आतंकवाद पर केंद्रित वार्ता के लिए दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मिलेंगे, जिसके बाद, डी.जी. रेंजर्स और डी.जी. बी.एस.एफ. के बीच बैठकों की मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी तथा 2003 में संघर्ष-विराम समझौते को सुनिश्चित करने के लिए दोनों देशों के डी.जी.एम.ओ. की बैठक होगी, लेकिन यह वार्ता नहीं हो सकी, क्योंकि पाकिस्तान ने कहा कि वह केवल आतंकवाद पर बातचीत नहीं करेगा, बल्कि वार्ता में जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को भी शामिल किया जाएगा। इसके बाद, 6 दिसंबर 2015 को बैंकाक में एन.एस.ए. स्तर पर वार्ता के जरिये एक और कोशिश की गई। विदेश सचिव, ऐज़ाज़ अहमद चैधरी और जय शंकर और उनके अपने-अपने प्रतिनिधिमंडलों के साथ, लेफ्टिनेंट जनरल नासिर खान जंजुआ और अजीत डोभाल की बैठक हुई। भारत के प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने नवाज़ शरीफ के जन्म-दिन और उनकी पोती के विवाह समारोह के अवसर पर, 25 दिसंबर 2015 को लाहौर के बाहरी इलाके में उनके निवास पर अचानक पहुंच कर उन्हें बधाई दी और कुछ दिन बाद ही पठानकोट एयरबेस पर हमला हुआ। अब, उरी हमले के बाद, सार्क सम्मेलन को एक प्रकार से रद्द ही कर दिया गया है।
समस्या तो पाकिस्तान की दूसरी सरकार बनी हुई है, जिसका अपना अलग ही एजेंडा है, चाहे जो भी हो, वह अच्छे संबंधों को पटरी से उतारने में लगी हुई है। पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार, वजाहत सजिद खान के साथ एक इंटरव्यू में, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ से सवाल पूछा गया कि पहले तो देश को यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि क्या ज़ाकिर हुसैन लखवी और हाफिज़ सईद, आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले हैं या और कुछ? जवाब में उन्होंने कहाः ‘1979 के बाद से हालात लगातार बदल रहे हैं। सोवियत संघ को निकाल बाहर करने के लिए हमने मजहबी कट्टरता की शुरूआत की। हम दुनिया भर से मुजाहिदीन लेकर आए। हमने तालिबान बनाया, उन्हें ट्रेनिंग दी और उन्हें हथियार मुहैया कराए। वे हमारे हीरो थे। हक्कानी हमारा हीरो है। ओसामा बिन लादेन, हमारा हीरो था। हीरो, खलनायक बन गए हैं। 1990 के सालों में कश्मीर में संघर्ष आरंभ हुआ....कई नौजवान पाकिस्तान आए। हमने हीरो के रूप में उनका स्वागत किया और उनकी मदद की, उन्हें प्रशिक्षित किया, क्योंकि वे कश्मीर में, भारतीय सेना से लड़ने वाले थे। इसके बाद, लश्कर-ए-तैयबा आया और फिर ऐसे ही अनेक संगठन आए। वे हमारे हीरो थे। अब, यह सब आतंकवाद में बदल गया है। सकारात्मक उग्रवाद, अब नकारात्मक उग्रवाद में बदल गया है। यहां भी और दुनिया में भी। वे बम विस्फोट कर रहे हैं, हमें मार रहे हैं। उन पर इसी समय काबू करना होगा तथा उन्हें सलाखों के पीछे करना होगा। क्योंकि हम भी प्रभावित हुए हैं और उनके शिकार हैं.....’’
पाकिस्तानी समाज में आम तौर से यह स्वीकारा जाने लगा है कि आतंकवाद के निर्यात की नीति नाकाम रही है। सुप्रसिद्ध पत्रकार, नजम सेठी ने कहा कि उनकी कश्मीर यात्रा से उनकी आंखें खुल गईं, जहां लोगों का मानना है कि पाकिस्तान ने उनकी रोजी-रोटी तबाह कर दी है। उनका मानना था कि भारत के साथ बेहतर संबंधों के अलावा और कोई दूसरा बेहतर रास्ता नहीं है। लेकिन, क्या पाकिस्तान की दूसरी सरकार सुन रही है ?