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09 April 2018

चुनाव शास्त्र का पतन

योगेंद्र यादव

“ पॉलिटिकल कंसल्टेंट सिर्फ राय ही नहीं देते, सीधे-उल्टे तरीके से चुनाव को सेट करने के तरीके भी बता रहे ”

मुझे जब लोग सेफोलॉजिस्ट कहते थे तो असमंजस होता था। यह क्या बला है समझ नहीं पाता था। यह न कोई विषय है, न ही कोई डिग्री! फिर इसके नाम पर जिस-जिस तरह की चीजें होती थीं, उससे भी संकोच होता था। अब जबकि चुनाव की आंकड़ेबाजी एक अलग स्तर पर आ चुकी है, शुक्र है कि मैं सेफोलॉजिस्ट नहीं हूं।

लोकतंत्र में चुनाव का महत्व है, इसलिए जाहिर है चुनाव को समझने, समझाने का शास्त्र भी काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन पिछले 50 वर्षों में इस विद्या का स्वरूप बदल गया है। चुनाव को समझने की विद्या, या तो चुनाव जीतने-जिताने का धंधा बन गई है या फिर भविष्य बताने वाला काला जादू। इन दोनों स्वरूप में यह चुनाव शास्त्र का पतन है।

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हमारे देश में चुनाव के आंकड़ों को समझने-समझाने का प्रयास 1960 के दशक से शुरू हुआ था। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) में रजनी कोठारी के बौद्धिक नेतृत्व में डीएल सेठ, गोपाल कृष्ण और बशीरुद्दीन अहमद सरीखे विद्वानों ने व्यवस्थित रूप से चुनाव के सर्वेक्षण शुरू किए। उससे पहले रुडोल्फ ऐंड रुडोल्फ जैसे विद्वानों ने कुछ छिटपुट सर्वेक्षण किए थे लेकिन व्यवस्थित सर्वेक्षण 1967 के राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन से शुरू हुआ। 1971 का चुनाव अध्ययन इस यात्रा में मील का पत्थर था। लेकिन इन सर्वेक्षणों का उद्देश्य चुनाव की भविष्यवाणी करना नहीं था। ये सर्वेक्षण चुनाव पूरा होने के कई महीनों बाद किए जाते थे और इनका उद्देश्य जनमत के रुझान, किसने-किसको वोट दिया, कौन-से कारण प्रभावी रहे इसकी समझ बनाना था। इन सर्वेक्षणों के आधार पर भारतीय राजनीति के बारे में नई स्थापनाएं आईं और कई मिथक टूटे।

इस बीच चुनावी भविष्यवाणी की पहली कोशिश भी हुई। ईपीडब्ल्यू डा कोस्टा नामक शोधकर्ता ने अमेरिका के गैलप पोल से सीखते हुए भारतीय चुनाव की भविष्यवाणी करने की असफल चेष्टा की। 1980 का दशक आते-आते चुनावी भविष्यवाणी की इस विद्या को प्रणय राय, अशोक लाहिड़ी और डेविड वाल्टर एक कदम और आगे ले गए। उन्होंने इंडिया टुडे के साथ मिलकर 1984 और 1989 के चुनावों की पहली बड़ी सफल भविष्यवाणियां कीं। याद रहे कि प्रणय राय और साथियों का प्रयास गंभीर अकादमिक शोध पर आधारित था।

चुनाव शास्त्र के विकास का अगला चरण 90 के दशक में हुआ था। जब सीएसडीएस में हम कुछ लोगों ने मिलकर राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन की शृंखला को 1996 में पुनर्जीवित किया। उसके बाद हुए हर लोकसभा और अधिकांश विधानसभा चुनावों में हमने सर्वेक्षण कर प्रामाणिक आंकड़े इकट्ठा किए। अमेरिका में मिशिगन और ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड के बाहर यह चुनावी आंकड़ों का संभवत: सबसे बड़ा अभिलेखागार है। दरअसल, चुनावी सर्वेक्षण बहुत खर्चीले होते हैं। इन सर्वेक्षणों के लिए पैसा जुटाने के लिए हमें भविष्यवाणी के खेल में उतरना पड़ा। लेकिन हमारा उद्देश्य जनमत को समझना, राजनैतिक व्यवहार और वोटिंग कारणों को समझना था। मैंने इस टीम और सीएसडीएस को 2013 में छोड़ दिया लेकिन यह टीम आज भी चुनावों के गंभीर विश्लेषण में लगी है और पहले से कुछ बेहतर ही काम कर रही है।

चुनावी भविष्यवाणियों की टीवी पर सफलता से एक बड़ा नुकसान भी हुआ। हर अखबार, टीवी चैनल पर चुनावी भविष्यवाणियों की बाढ़ आ गई। हर कोई कुशल व्यक्ति सेफोलॉजिस्ट बन बैठा और चुनाव के बहुत पहले ही नतीजों की गारंटीशुदा भविष्यवाणी का काला जादू चल निकला। जिसका एकाध बार तुक्का लग गया, वह जादूगर हो गया। जाहिर है, धंधा चलना नहीं था। कुछ दिन बाद भांडा फूट गया। अब ऐसी स्थिति आ गई है कि लोग एग्जिट पोल और चुनावी सर्वेक्षण की बात सुनते ही हंसने लगते हैं। यह मनोरंजन की चीज बन गया।

इसी दौरान चुनाव में आंकड़ों के इस्तेमाल का बिलकुल दूसरा खेल शुरू हुआ। चुनावी आंकड़ों के जरिए चुनाव को मैनेज करने की विद्या पनपने लगी। अमेरिका की तरह चुनाव कंसल्टेंट आने लगे। उन्होंने बड़े पैमाने पर आंकड़े जुटाने शुरू कर दिए। अब चुनाव शास्त्र का रूप बदल गया। 2014 में प्रशांत किशोर की सफलता और लोकप्रियता से इस धंधे का अप्रत्याशित विस्तार हुआ। अब जिसे देखो पॉलिटिकल कंसल्टेंट बना घूम रहा है।

जहां बाजार आता है, वहां  कालाबाजार भी आता है। जब पॉलिटिकल कंसल्टेंट का धंधा शुरू हुआ तो उसमें ठगी और तिकड़मबाजी का धंधा होने लगा। कंसल्टेंट सिर्फ राय ही नहीं देते, हर सीधे-उल्टे तरीके से चुनाव को सेट करने के तरीके भी बताने लगे। बड़े पैमाने पर फोन नंबर चुराने, उनके राजनीतिक विज्ञापनों में इस्तेमाल के हथकंडे समझाने लगे। चूंकि फेसबुक, वाट्सएप और फोन से मैसेज भेजने पर कानूनी पाबंदियां थीं, इसलिए कानून से आंख बचाकर यह सब करने का खेल शुरू हुआ। जैसे-जैसे लोकतंत्र चुनाव तंत्र में बदलता जा रहा है, चुनाव का शास्‍त्र चुनाव जीतने के धंधे में बदलने लगा है। आज जैसे ही कोई मुझे सेफोलॉजिस्ट बोलता है। मैं कहता हूं मैं वो नहीं हूं। कभी था भी नहीं!

(लेखक राजनीति विज्ञानी और स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं)

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TAGS: The fall of election scriptures, Yogendra Yadav, article
OUTLOOK 09 April, 2018
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