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01 October 2022

प्रथम दृष्टि: राजस्थान के संकेत

“राजस्थान की ताजा घटनाएं तो यही बयां कर रही हैं कि आलाकमान जैसी व्यवस्था के दिन अब लदने लगे हैं”

राजनैतिक दलों खासकर कांग्रेस में, आलाकमान का कहा हर शब्द पत्थर की लकीर समझा जाता रहा है। एक समय था जब उसके किसी फरमान की अवहेलना कोई मातहत करे, इसकी कल्पना नहीं जा सकती थी, भले ही वह कितना भी कद्दावर नेता क्यों न हो। कांग्रेस के लंबे इतिहास में न जाने कितने रसूखदार क्षत्रप हुए, जिन्होंने केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर बिना एक पल गंवाए मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और बगैर किसी वाद-विवाद के विधायक दल के नए नेता के नाम के प्रस्तावक बन गए। नेपथ्य में भले ही उन्होंने जरूर अपनी नाराजगी जाहिर की हो, लेकिन सार्वजानिक मंचों से हमेशा यही कहा कि पार्टी हित सर्वोपरि है और आलाकमान का आदेश अध्यादेश के समान है। यही कारण है कि अतीत में अधिकतर कांग्रेसी मुख्यमंत्री विधायकों का समर्थन जीतने की बजाय दिल्ली दरबार में हाजिरी देकर अपने पद को सुरक्षित रखते थे। कहने को तो आलाकमान हर मौके पर दो पर्यवेक्षकों को नए मुख्यमंत्री के चुनाव पूर्व सभी विधायकों से रायशुमारी करने को भेजता था लेकिन आम तौर पर फैसला पहले ही हो जाया करता था कि प्रदेश सरकार की बागडोर किसे सौंपनी है। कई ऐसे उदाहरण भी हैं जब किसी ऐसे केंद्रीय नेता को नए मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जाता था, जो राज्य के किसी सदन का नेता भी न हो। ऐसा अक्सर प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी या किसी एक के नाम पर आम सहमति नहीं बनने के कारण होता था। वजहें जो भी रही हों, इसमें कोई दो मत नहीं कि अंतिम नाम की मुहर आलाकमान की ही लगती थी। जाहिर है, आलाकमान ही कांग्रेस में दशकों से सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान रहा।

राजनीतिक टिप्पणीकारों ने इसे कालांतर में ‘कांग्रेस संस्कृति’ का नाम दिया। उनका मानना है कि मुख्यमंत्री के चयन में पार्टी के नेताओं की योग्यता और लोकप्रियता से अधिक गांधी-नेहरू परिवार के प्रति वफादारी को तरजीह दी जाती रही है। इसलिए राजस्थान में पिछले कुछ दिनों में जो हुआ, वह हैरान करने वाला है। खबरों के अनुसार कांग्रेस के लगभग 90 विधायक आलाकमान के दो पर्यवेक्षकों की मौजूदगी के बावजूद न सिर्फ विधायक दल के नए नेता के चनाव के लिए आहूत बैठक से नदारद रहे, बल्कि उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को सामूहिक त्यागपत्र की पेशकश कर डाली। उन्हें लगा कि अशोक गहलोत की जगह नए मुख्यमंत्री को चुनने की प्रक्रिया महज खानापूरी है और आलाकमान ने नाम पहले तय कर लिया है।

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कांग्रेस के इतिहास में ऐसा शायद ही हुआ हो जब किसी राज्य में इतने सारे विधायकों ने आलाकमान के किसी निर्णय के खिलाफ अपनी आवाज मुखर की हो। आलाकमान को कहीं भी विगत में ऐसी मुखालफत का सामना नहीं करना पड़ा, जैसे उसे अशोक गहलोत-बनाम-सचिन पायलट प्रकरण के दौरान राजस्थान में देखना पड़ा है। दरअसल पिछले विधानसभा चुनाव में विजय के बाद से ही वहां पार्टी दो खेमों में बंट गई। पायलट के समर्थकों का मानना है कि पार्टी को सत्ता में वापस लेने का श्रेय उन्हें है और सरकार की बागडोर भी उन्हीं को मिलनी चाहिए। लेकिन, आलाकमान ने अनुभवी और पुराने सिपहसालार गहलोत को चुना। नतीजतन, कुछ महीनों बाद ही पायलट ने बगावत का बिगुल फूंका लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। सूत्रों की मानें तो आलाकमान के ‘समझाने’ के बाद उन्होंने अपने पांव वापस खींच लिए।

अब शायद आलाकमान गहलोत को राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर देना चाहता है, लेकिन एक-व्यक्ति-एक-पद सिद्धांत के तहत उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ेगा, जिसके लिए वे संभवतः तैयार नहीं। उनके समर्थक विधायक भी पायलट को नया मुख्यमंत्री स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं। कांग्रेस आलाकमान की योजना अगर यह थी कि गहलोत को पार्टी अध्यक्ष और पायलट को मुख्यमंत्री बनाकर न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर गांधी-नेहरू परिवार के एकाधिकार पर उठने वाले सवालों को रोका जा सकता है बल्कि 2024 लोकसभा चुनावों के पहले राजस्थान में चल रही गुटबाजी से निजात पाया जा सकता है तो वह योजना फिलहाल सफल होती नहीं दिखती। राजस्थान में गुटबाजियां अभी खत्म नहीं होती नहीं लगतीं।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या गहलोत के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस की कार्यशैली में कोई बदलाव आएगा? क्या नए अध्यक्ष को पार्टी अपने ढंग से चलाने की स्वतंत्रता रहेगी या हर छोटे-बड़े निर्णय के लिए आलाकमान की स्वीकृति लेनी होगी? अगर पार्टी चलाने में नए अध्यक्ष को वाकई पूरी आजादी मिलती है तो यह निस्संदेह क्रांतिकारी कदम होगा। कांग्रेस को आगे बढ़ाने में गांधी-नेहरू परिवार के योगदान को नकारा नहीं जा सकता और यह भी सही है कि उसी नेतृत्व के कारण पार्टी में परस्पर लड़ने वाले नेता एक मंच पर मौजूद होते हैं। इसके बावजूद सिर्फ एक परिवार की विरासत की धुरी के इर्दगिर्द पार्टी का घूमना उसकी सेहत के लिए अच्छा नहीं। कम से कम राजस्थान की ताजा घटनाएं तो यही बयां कर रही हैं।

 

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TAGS: developments, Rajasthan, high command, Congress, Ashok Gehlot, Sachin Pilot
OUTLOOK 01 October, 2022
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