सुप्रीम कोर्ट की साख पर ऐसा सवाल तो शायद ही कभी उठा
डॉ. भीम राव आंबेडकर ने 24 मई 1949 को कहा था, “मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई संदेह नहीं है कि प्रधान न्यायाधीश सम्माननीय हैं। लेकिन प्रधान न्यायाधीश भी इंसान हैं, उनमें भी इंसानी कमजोरियां, भावनाएं और पूर्वाग्रह हो सकते हैं।” जब आंबेडकर यह बात कर रहे थे, शायद ही उनके मन में यह ख्याल आया होगा कि देश के प्रधान न्यायाधीश पर भी कभी यौन उत्पीड़न का आरोप लगेगा। अविश्वसनीय-से ताजा आरोपों से न सिर्फ देश के प्रधान न्यायाधीश के चरित्र पर दाग लगा है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की साख भी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। फिर, इस आरोप के बाद प्रधान न्यायाधीश ने जैसा रुख दिखाया, उससे न्याय-व्यवस्था की निष्पक्षता पर लोगों का भरोसा डगमगा गया है। आखिर न्यायाधीशों को सीजर की पत्नी की तरह संदेह से परे होना चाहिए।
हालांकि ज्यादातर लोग यह मान रहे हैं कि प्रधान न्यायाधीश पर लगाए गए आरोप दुर्भावना से प्रेरित हैं। उनके मुताबिक, इसका मकसद सिर्फ उनकी बेदाग छवि और चरित्र को दागदार बनाना है। फिर भी, इस मामले में उचित प्रक्रिया के तहत निष्पक्ष जांच बेहद जरूरी है।
भारत में ही नहीं, ब्रिटेन और अमेरिका में भी जजों को कार्यभार ‘अच्छे व्यवहार’ के नाम पर सौंपा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि ‘कदाचार’ सापेक्ष शब्द है जिसमें ‘गलत आचरण’ या ‘अनुचित आचरण’ भी निहित है। अगर भ्रष्टाचार या यौन उत्पीड़न जैसे आरोप साबित होते हैं तो यह निश्चित तौर पर कदाचार ही कहलाएगा, जो महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए पर्याप्त होगा। मौजूदा समय में अगर किसी सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के जज के खिलाफ कोई शिकायत आती है तो प्रधान न्यायाधीश उसकी जांच के लिए आंतरिक समिति का गठन करते हैं। लेकिन आरोप अगर साबित हो जाते हैं तब भी प्रधान न्यायाधीश या राष्ट्रपति के पास संबंधित जज की निंदा, फटकार, प्रोन्नति रोकने या मुअत्तल करने तक का अधिकार नहीं है। अधिकतम यही हो सकता है कि प्रधान न्यायाधीश उसे अदालती कामकाज से वंचित कर दें। 2012 में लोकसभा से पारित 2010 के न्यायिक मानदंड और जवाबदेही कानून में छोटे-मोटे प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है। लेकिन समस्या यह है कि अगर किसी न्यायाधीश पर इस तरह के छोटे-मोटे प्रतिबंध लगते हैं तो उसके लिए बाकी मामलों की सुनवाई करना मुश्किल होगा, क्योंकि लोगों का उस पर भरोसा डिग जाता है। लेकिन उस कानून में भी किसी परिजन के प्रति पूर्वाग्रह, किसी कारोबार या व्यापार में शिरकत या राजनैतिक सवालों पर सार्वजनिक बहस में मुब्तिला होने जैसे मामलों का ही जिक्र है, यौन दुर्व्यवहार उसके दायरे में नहीं है। यानी न्यायिक जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है, सिर्फ महाभियोग का ही रास्ता बचता है।
दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही 1977 में विशाखा दिशा -निर्देश बनाए थे, क्योंकि 1860 की भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के अलावा कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न मामलों की सुनवाई के लिए कोई प्रभावी वैधानिक प्रणाली नहीं थी। धारा 354 केवल महिला के साथ आपराधिक मामलों के आधार पर सुनवाई का अधिकार देती थी। विशाखा गाइडलाइन को भले ही देश के ज्यादातर सार्वजनिक संस्थानों में लागू कर दिया गया, लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट ने 2013 तक इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया था। संसद ने 2013 में कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिबंध और सुनवाई) कानून बनाया। इस कानून की प्रस्तावना के अनुसार यौन उत्पीड़न न केवल भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 के आधार पर किसी महिला के समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है, बल्कि अनुच्छेद-21 के आधार पर सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार का भी उल्लंघन करता है। यह अनुच्छेद-19 के तहत किसी महिला को सुरक्षित वातावरण में व्यापार और नौकरी करने के अधिकार का भी उल्लंघन है।
2013 के कानून की धारा-2 (एन) कहती है कि अगर कोई व्यक्ति किसी के साथ शारीरिक रूप से अभद्र व्यवहार करता है, या फिर उससे यौन इच्छाओं की पूर्ति की मांग करता है या उसका फायदा उठाना चाहता है या पॉर्नोग्राफी दिखाता है या फिर किसी तरह का अभद्र व्यवहार करने से लेकर अशोभनीय बातें करता है, तो उसे यौन उत्पीड़न का मामला माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें यह भी जोड़ा है कि अगर कोई नियोक्ता अपने पद के दुरुपयोग से किसी का पीछा करता है या फिर ताकझांक करता है, या कोई गैर-जरूरी फायदा उठाता है तो उसे भी यौन उत्पीड़न के दायरे में माना जाएगा।
धारा-2 (ओ) में कार्यस्थल को भी परिभाषित किया गया है। इसके तहत हर विभाग, संगठन, इंटरप्राइजेज, इस्टैब्लिशमेंट, अंडरटेकिंग, सरकारी कंपनी, कॉरपोरेशन, निजी संस्थान भी शामिल होंगे। इसी तरह धारा-2 (एफ) कर्मचारी को भी परिभाषित करती है। इसके तहत किसी भी कार्यस्थल पर काम करने वाले स्थायी, अस्थायी, तदर्थ या दिहाड़ी कर्मचारी शामिल होंगे। इसके तहत एजेंट या ठेकेदार के जरिए भर्ती किए गए कर्मचारी शामिल होंगे। अहम बात यह है कि धारा-2(ओ) घर और निवास स्थान को भी कार्यस्थल मानती है। प्रधान न्यायाधीश पर जो आरोप लगे हैं, वह उनके घर के बारे में हैं। धारा-3 न केवल यौन उत्पीड़न की मनाही करती है, बल्कि यह भी कहती है कि लालच देकर, वादा करके, डराकर, धमकाकर भी अगर कोई व्यक्ति नौकरी देने या मौजूदा नौकरी से निकालने का प्रयास करता है या काम नहीं करने का माहौल पैदा करता है, तो उसे भी यौन उत्पीड़न माना जाएगा।
ऐसे संस्थान जहां पर 10 से ज्यादा कर्मचारी काम कर रहे हैं, वहां आंतरिक शिकायत समिति होना अनिवार्य है। धारा-4 के अनुसार आंतरिक समिति की अध्यक्ष न केवल महिला होनी चाहिए बल्कि समिति में आधे से ज्यादा सदस्य भी महिलाएं होनी चाहिए। अगर शिकायत गलत पाई जाती है या फिर किसी गलत इरादे से की गई है तो शिकायत करने वाली महिला को सजा मिलेगी। लेकिन धारा-14 के तहत यह भी प्रावधान है कि महिला के लिए यह जरूरी नहीं होगा कि वह शिकायत का ठोस सबूत पेश करे।
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में शिकायत समिति का गठन किया था, जिसकी अध्यक्षता एक महिला न्यायाधीश कर रही हैं। इसमें महिला सदस्यों का बहुमत है और एक बाहरी सदस्य भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में 2013 के लैंगिक संवेदनशीलता और महिला यौन उत्पीड़न नियमन के अनुसार समिति केवल सुप्रीम कोर्ट के तहत कार्यस्थल के संबंध में ही सुनवाई कर सकती है। उसमें बदलाव कर समिति को न्यायाधीशों के घरों पर स्थित कार्यालयों के संबंध में सुनवाई करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। समिति को शिकायतकर्ता की पहचान को गुप्त भी रखना चाहिए। आंतरिक समिति से खुली या सार्वजनिक सुनवाई की भी उम्मीद नहीं की जाती है। इस तरह, मौजूदा मामले में न्यायाधीश अरुण मिश्रा और संजीव खन्ना की अदालत में भी सुनवाई मानक प्रक्रिया के मुताबिक नहीं थी।
2014 में कानून की एक छात्रा ने इंटर्न रहते हुए न्यायाधीश ए.के.गांगुली पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। हालांकि शिकायतकर्ता ने उस वक्त सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हो चुके गांगुली के खिलाफ न तो औपचारिक शिकायत दर्ज की और न ही एफआइआर दर्ज कराई थी। राष्ट्रपति संदर्भ के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश के खिलाफ आंतरिक जांच की पेशकश की थी। इन आरोपों के बाद न्यायाधीश गांगुली ने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।
मौजूदा मामले में स्क्रॉल और तीन न्यूज पोर्टलों में खबर छपने के फौरन बाद प्रधान न्यायाधीश ने शनिवार को छुट्टी के दिन ही तीन सदस्यों वाली बेंच का गठन कर दिया, जिसकी अध्यक्षता वे खुद कर रहे थे। यह गैर-जरूरी था। उन्होंने कहा कि “मामला जनहित का और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमले का है,” इसलिए यह अचानक और असामान्य सुनवाई रखी गई है। इस सुनवाई में शिकायतकर्ता को नहीं बुलाया गया और अटॉर्नी जनरल तथा सॉलीसिटर जनरल दोनों ने शिकायतकर्ता के बारे में गैर-जरूरी और अनुचित टिप्पणी की।
प्रधान न्यायाधीश ने भी शिकायतकर्ता की कटु आलोचना की, लेकिन न्यायालय के आदेश पर उन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए। यह दर्शाता है कि उन्हें इसके नतीजे का एहसास था। इस प्रक्रिया में प्रधान न्यायाधीश ने न्याय के दो मूल सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। एक, कोई भी व्यक्ति अपने ऊपर लगे आरोपों पर खुद ही सुनवाई नहीं कर सकता है। दूसरे, किसी का पक्ष सुने बिना उसकी आलोचना नहीं की जा सकती है। फिर, शिकायतकर्ता के पुराने आपराधिक रिकार्ड या एफआइआर का उल्लेख करके ऐसे महान न्यायविदों ने कानून की अनदेखी की है। इसी तरह प्रधान न्यायाधीश के बैंक बैलेंस, उनके द्वारा बड़ी संख्या में निपटाए गए मामलों और बेहतरीन करिअर का जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं थी। प्रधान न्यायाधीश इतने व्यथित थे कि वे प्रेस को जारी करने वाले बयान और न्यायिक प्रक्रिया में भेद नहीं कर सके। असल में सुनवाई के दौरान जो बयान दिए गए, उसे आसानी से प्रधान न्यायाधीश की ओर से सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल जारी कर सकते थे।
बेहतर होता कि इस मामले में प्रधान न्यायाधीश इन तीन विकल्पों को अपनाते। एक, वे यह कहकर पूरे मामले को आंतरिक समिति के पास सुनवाई के लिए भेज देते कि भले वे जांच समिति के दायरे में नहीं आते हैं लेकिन स्वैच्छिक रूप से वे इसके लिए तैयार हैं और जांच में पूरा सहयोग करेंगे। अगर वे ऐसा करते तो न केवल उनकी साख बहुत ऊंची हो जाती बल्कि न्यायपालिका की साख भी बढ़ जाती। दूसरे, वे राष्ट्रपति के पास पूरा मामला भेज देते। राष्ट्रपति ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, इसलिए वे आगे की कार्रवाई कर सकते थे। तीसरे, प्रधान न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश एस.ए.बोबडे से उचित कार्रवाई का अनुरोध कर सकते थे। तीसरे विकल्प का इस्तेमाल तो किया गया लेकिन काफी देर से। तब तक तो काफी नुकसान हो चुका था। न्यायाधीश बोबडे की अध्यक्षता वाली समिति में भी शिकायतकर्ता के विरोध के बाद बदलाव करना पड़ा है। समिति में न्यायाधीश रमन्ना के शामिल होने के विरोध के बाद उन्होंने सही फैसला लेते हुए खद ही अपने को अलग कर लिया है। अब रमन्ना की जगह न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा को समिति में जगह मिली है।
शिकायत समिति का गठन कुछ हद तक 2013 कानून के मुताबिक हो गया है, जिसमें दो महिलाएं हैं और उसकी अध्यक्षता न्यायाधीश बोबडे कर रहे हैं। समिति ने 26 अप्रैल 2019 को अपनी पहली सुनवाई की। इस दौरान शिकायकर्ता से करीब दो घंटे सुनवाई की गई। शिकायतकर्ता सुनवाई के दौरान किसी वकील की सेवाएं ले सकती है, इसका उल्लेख 2013 के कानून में नहीं किया गया है। लेकिन मामला प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ है इसलिए शिकायतकर्ता की वकील वृंदा ग्रोवर को भी सुनवाई के दौरान मौजूद रहने का मौका दिया जाना चाहिए। कानूनविद ए.वी.दिसे के अनुसार कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है, चाहे वह कितने ही ऊंचे पद पर क्यों न हो।
(लेखक जाने-माने विधि विशेषज्ञ और एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)