गठबंधनों की नई बेला
आजकल समझौतों का दौर चल रहा है तभी तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उत्तरी कोरिया के चेयरमैन किम जोंग उन के साथ मुलाकात कर वह किया है, जो एक दर्जन से ज्यादा अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं कर सके। यहां यह संदर्भ इसलिए दिया गया है क्योंकि डिप्लोमेसी और राजनीति में जो असंभव लगता है, वह संभव हो जाता है बशर्ते संबंधित पक्ष उसे अपने फायदे की बात समझें। यही वजह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों और दिसंबर के आसपास होने वाले चार विधानसभा चुनावों के पहले भी हमें कुछ वैसे गठबंधन देखने को मिलेंगे, जो कुछ माह पहले तक असंभव दिख रहे थे।
असल में भले ही 2014 के लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को बहुमत मिल गया हो मगर यह भी सच है कि वह दर्जन भर से ज्यादा सहयोगी दलों के साथ एक गठबंधन के रूप में ही लड़ी थी। लेकिन पिछले महीनों में जिस तरह से उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को कुछ सहयोगी छोड़कर गए हैं, वह संकेत है कि गठबंधन धर्म में कोई कमी रह गई थी। इसकी वजह शायद भाजपा का लोकसभा में अपने दम पर बहुमत हो। इसके पहले अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए की दोनों सरकारों के वक्त बाकायदा एक एनडीए संयोजक और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी था। वैसे, इसकी शुरुआत 1996 में एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी पहली संयुक्त मोर्चा की सरकार से हुई थी। इस सरकार को वाम दलों और कांग्रेस का समर्थन था। सीपीआइ तो इसमें बाकायदा भागीदार भी थी। फिर 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की दोनों सरकारों में इस तरह का एक तंत्र रहा, जो सहयोगी दलों के साथ सहमति बनाने का काम करता था।
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा एनडीए सरकार में ऐसा कोई तंत्र नहीं बन सका। नतीजा तेलुगु देशम जैसे सहयोगी एनडीए छोड़कर चले गए जबकि भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल के साथ भी अब पहले जैसा मामला नहीं है। हालांकि, गठबंधन की अहमियत को देखते हुए अब खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह शिवसेना की नाराजगी कम करने के लिए बैठकें कर रहे हैं और अकाली दल को यह एहसास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि हम साथ-साथ हैं।
असल में यह सब अचानक नहीं है। केंद्र में भाजपा मजबूती के साथ सत्ता में आई तो भी उसे केवल 31 फीसदी ही मत मिले थे। यानी 69 फीसदी मत कहीं और हैं। ऐसे में पहला झटका 2015 में बिहार में राजद और जदयू के गठबंधन के सामने मिली शिकस्त से लगा था। उसके बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी (सपा) और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने एक-दूसरे का समर्थन कर गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटें उपचुनाव में भाजपा से छीन लीं, उससे नए राजनीतिक समीकरणों और रणनीति की शुरुआत हो गई। यही फार्मूला राष्ट्रीय लोकदल के साथ मिलकर कैराना संसदीय और नूरपुर विधानसभा उपचुनावों में अपनाया गया, जो कामयाब रहा। यही नहीं, जिस तरह से कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस और जनता दल-एस (जेडीएस) ने गठबंधन कर सरकार बनाई, उससे साफ हो गया कि भाजपा की बढ़त रोकने के लिए भाजपा-विरोधी दल लचीला रुख अपना सकते हैं।
फिर 13 जून को कर्नाटक की जयनगर विधानसभा सीट के नतीजे भी इस गठबंधन के पक्ष में आए। यह साबित करता है कि जमीन पर गठबंधन के पक्ष में मत पड़ रहे हैं। वैसे, दोनों पार्टियों ने 2019 का लोकसभा चुनाव भी साथ लड़ने का ऐलान कर दिया है। वहीं, उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक लोकसभा सीटें देने वाले राज्य महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का साथ चुनाव लड़ना लगभग तय है। राज्य में किसानों के मुद्दे पर सक्रिय सांसद राजू शेट्टी का स्वाभिमानी पक्ष भी इस पाले में आ सकता है। किसानों के मुद्दों पर एनडीए को सबसे पहले इस एक सांसद वाली पार्टी ने ही छोड़ा था। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ गठबंधन के लिए अखिलेश यादव ज्यादा सीटें छोड़ने का बयान दे चुके हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस कुछ दलों के साथ गठबंधन करने के संकेत दे रही है। इन राज्यों में भाजपा के साथ कोई सहयोगी साथ आता नहीं दिखता है। ऐसे में लोकसभा से पहले होने वाले इन राज्यों के चुनाव दिलचस्प होंगे। दूसरी ओर, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु से लेकर केरल तक और पूर्व में पश्चिम बंगाल से क्षेत्रीय दल भाजपा के खिलाफ संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने की बातें कर रहे हैं।
इस राजनीतिक घटनाक्रम से यह तो तय हो गया कि 2019 का लोकसभा चुनाव गठबंधनों का नया स्वरूप सामने लाने वाला है। भाजपा भी समझ चुकी है कि ‘एकला चलो रे’ के बजाय ‘हम साथ-साथ हैं’ का फार्मूला हार-जीत के लिए ज्यादा निर्णायक साबित होगा। इसलिए साफ होता जा रहा है कि सत्ता की चाबी गठबंधनों के रास्ते ही मिलने वाली है।